November 03, 2023

Clash Of Civilizations

और Samuel P. Huntington.

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 प्रश्न  / Question 45

"तो सवाल यह नहीं था कि संस्कृत और  தமிழ்  दोनों भाषाओं में कौन सी भाषा अधिक पुरानी या अधिक प्राचीन है!"

सवाल पूछना बुद्धिमत्ता का द्योतक है, किन्तु सवाल का सन्दर्भ क्या है यह जान लेना भी इतना ही महत्वपूर्ण है।

"उसके नोट्स" पढ़ते हुए उपरोक्त पंक्तियों पर मेरा ध्यान गया तो आगे और भी पढ़ने की उत्सुकता हुई।

उसने लिखा था -- 

"... वैसे मैं कोई मान्य भाषाविज्ञानी या भाषाशास्त्री तो नहीं हूँ केवल एक स्वतंत्र शोधकर्ता हूँ इसलिए मुझे नहीं मालूम कि मेरा शोध कितना प्रामाणिक हो सकता है।

फिर भी विभिन्न भाषाओं की उत्पत्ति और प्रादुर्भाव पर अपना अध्ययन और शोध करते हुए मेरा ध्यान अनायास इस ओर गया कि किस प्रकार किसी प्रश्न को प्रमाद या लापरवाही या फिर केवल न्यस्त स्वार्थ और दुराग्रह से प्रेरित और प्रभावित होने के कारण भी इस प्रकार पूछा जा सकता है कि प्रश्न का उत्तर देनेवाला भ्रमित हो जाए।

इसका एक उदाहरण यही है।

वैसे तो सभ्यताओं के बीच संघर्ष होना ही अपने आपमें विचित्र प्रतीत होता है क्योंकि वास्तव में किन्हीं भी दो या अधिक "सभ्यताओं" के बीच मतभेद होना यद्यपि संभव है, लेकिन क्या सभ्यताओं के परस्पर बीच "संघर्ष" होना भी संभव है! स्पष्ट है कि संघर्ष तो दो "असभ्यताओं" के बीच ही, या केवल असभ्यता का ही किसी और सभ्यता या असभ्यता से हो सकता है।

तथाकथित विद्वान और स्थापित भाषाशास्त्री वैसे तो इसे "भारोपीय" / Indo-European कहकर इस तथ्य से ध्यान भटका देते हैं कि लिपि-साम्य (figuratively) और ध्वनि-साम्य (phonetically), दोनों ही दृष्टियों से प्रत्येक ही भाषा का प्रादुर्भाव स्वतंत्र रूप से होता है और कोई भी भाषा किसी दूसरी से कम या अधिक प्राचीन हो सकती है और अन्तर्दृष्टि सभी भाषाएँ भिन्न भिन्न स्थानों पर समय समय पर उत्पन्न होकर विकसित और समृद्ध भी अवश्य होती हैं, फिर भी मनुष्यों के द्वारा प्रयोग की जानेवाली किसी भी भाषा का मूल उद्गम तो ध्वनि या मनुष्य द्वारा बोली जानेवाली वाणी ही है, न कि कोई स्वतंत्र भाषा। लिपि का आविष्कार तो बहुत बाद में होता है। मूलतः तो प्रत्येक ही भाषा प्राकृत ही होती है जिसे संस्कारित करने के बाद ही उसका विशिष्ट रूप अस्तित्व में आता है और प्रचलित होता है।

इस प्रकार लिपि का स्वरूप उसके आविष्कार करनेवाले के द्वारा ही तय किया जाता है जो मूलतः कूटलिपि के रूप में coded-script होता है। स्पष्ट है कि कूटलिपि के निर्माण का आधार मनुष्य की वाणी से उत्पन्न ध्वनि ही होता है। इसलिए ध्वनि के स्वरूप के ज्ञान के आधार पर ही लिपि में विभिन्न ध्वनियों के द्योतक चिह्न-विशेष तय करना ही लिखित रूप में भाषा के प्रयोग का आधार हो सकता है।

जिन मनुष्यों ने इस विषय में गहरा अनुसंधान किया और जिन्हें ऋषि कहा जाता है, उन्होंने पाया कि मनुष्य द्वारा बोली जानेवाली वाणी में प्रयुक्त भिन्न भिन्न ध्वनियाँ मुख में स्थित भिन्न भिन्न अंगों से उत्पन्न होती हैं इस प्रकार से उन्होंने ध्वनिशास्त्र का आविष्कार किया, न कि उसका "निर्माण" किया।

यह जानना महत्वपूर्ण है कि इस अनुसंधान के बाद ही उन्होंने इसी आधार पर क्रमशः "कुचुटुतुपु" --

क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स और ह,

आदि मूल ध्वनियों की पहचान  / identity  तय की। इन सभी को व्यञ्जन consonants कहा जाता है।

वि + अञ्जनं -- इति व्यञ्जनम् । इन सभी ध्वनियों का उच्चारण अवश्य ही किसी न किसी दूसरी ध्वनि की सहायता से ही हो पाता है। उन सभी दूसरी ध्वनियों को "स्वर" / vowel  कहा जाता है। इस प्रकार मोटे रूप में ध्वनि-शास्त्र के निर्माण के पश्चात् जनसामान्य के द्वारा प्रयुक्त की जानेवाली भाषा की उत्पत्ति हुई। स्वरों तथा व्यञ्जनों के मेल से शब्द (word) बनाए गए और ऐसे ही छोटे बड़े शब्दों को वस्तुवाचक, वस्तु को इंगित करने वाले साधन की तरह मान्य कर लिया गया। इस प्रकार से उनके संभावित "अर्थ" तय किए गए, जबकि उनके मूल अर्थ (वस्तु) तो नित्य सत्य और सदा ही वर्तमान होते हैं। ऋषियों के मन में फिर एक प्रश्न यह उत्पन्न हुआ होगा कि क्या विभिन्न ध्वनियाँ अर्थात् स्वर, व्यञ्जन आदि एवं उनसे बने विभिन्न शब्दों के अर्थ के बीच कोई सुनिश्चित नियम हो सकता है? चूँकि मनुष्यों द्वारा बोली जानेवाली विभिन्न भाषाओं में एक ही वस्तु के लिए भिन्न भिन्न शब्द प्रयुक्त होते हैं किन्तु उनमें विद्यमान तात्पर्य या भाव एक ही होता है, इसलिए ध्वनियाँ / शब्द और भावों का उद्गम  जिस स्रोत से होता है, वह सभी मनुष्यों में संभवतः एक ही होना चाहिए। सरलता से इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि भाव / भावना की भाषा को तो पशु पक्षी आदि भी समझ लिया करते हैं। और यह भी स्पष्ट है कि वे मनुष्यों जैसी कोई विकसित भाषा तो शायद ही बोलते हों। ऋषियों ने और अनुसंधान कर इस तथ्य का आविष्कार किया कि सभी प्राणियों और मनुष्य की वाणी में जिस साधन / ध्वनि-तंत्र (vocal system) का प्रयोग किया जाता है वह तंत्रिका जाल (nervous system) से बंधा और परिचालित होता है। तात्पर्य यह कि प्रत्येक ही ध्वनि में प्राण तथा चेतना का तत्व अपरिहार्य रूप से विद्यमान होता ही है। वेद इसे ही देवता  तत्व कहते हैं। प्राण तो ऊर्जा energy है जबकि उससे जुड़ी चेतनता consciousness मनुष्य या इतर प्राणियों में विद्यमान वह बोध है जिसे संवेदन या चेतना भी कहा जा सकता है।

इसी आधारभूत सत्य का साक्षात्कार हो जाने के बाद उन ऋषियों ने मंत्रों के रहस्य का उद्घाटन किया। सभी मंत्र भी विभिन्न वर्णों का विशिष्ट संयोजन ही होता है जिससे किसी विशिष्ट भाव / भावना / देवता का आवाहन किया जा सकता है। यह अभी भी विचारणीय है कि देवताओं ने ऋषियों को मंत्रों का ज्ञान दिया या मंत्रों का ज्ञान होने से ऋषियों को देवताओं के अस्तित्व की अनुभूति हुई।

इसलिए संस्कृत भाषा को स्वरूपतः दो रूपों में समझा जा सकता है - पहला तो है मंत्र-शास्त्र, दूसरा भाषा की तरह व्यवहार में प्रयुक्त किया जानेवाला एक साधन। दोनों ही प्रकार से संस्कृत अवश्य ही ऐसी एक भाषा है जिसका स्वरूप समय के साथ परिवर्तित नहीं होता। इस तुलना से यह भी पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि दूसरी सभी भाषाएँ समय समय पर उत्पन्न, प्रचलित, विकसित, समृद्ध होकर सतत परिवर्तित होती रहती हैं इसलिए वे कितनी प्राचीन या नयी हैं इस विषय तय रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, जबकि संस्कृत आधारभूत रूप से नित्य सुदृढ अविनाशी और अविकारी भाषा है।

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