November 19, 2023

दृक्-दृश्य विलय

ऋषि, देवता, प्रजापति और मनुष्य

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न तो युगों का और न ही अवतारों का कोई विशेष समय या कालखण्ड हो सकता है। हर प्राणी के अपने जीवन और अपनी आयु में वह स्वयं ही अवतार होता है और स्वयं ही वह समय या कालखण्ड भी जो वह होता है। 

ऋषि कश्यप जिन्हें प्रजापति भी माना जाता है मूलतः कच्छ अवतार के रूप में प्रकट हुए थे, उनका विवाह प्रजापति दक्ष की दो पुत्रियों से हुआ था। वे दोनों बहनें जुड़वाँ होने से सभी को प्रायः उनके विषय में भ्रम हो जाया करता था। स्वयं ऋषि कश्यप भी इस भ्रम से बच नहीं पा रहे थे। तब उन्होंने दोनों युगल बहनों के स्वरूप पर ध्यान लगाया। तब उन्हें यह स्पष्ट हुआ कि अदिति ही भावना और दिति ही स्मृति है। यही नहीं, तब उनके उन बहुत से ज्ञात अज्ञात, और दृश्य अदृश्य  रूपों का ज्ञान भी उन्हें हुआ जो उनसे उत्पन्न हुए उनके अपने ही पुत्र और पुत्रियाँ थे। संशय, भ्रम, विचार, भय तो उनके पुत्र ही थे जिनका जन्म कब हुआ यह तक उन्हें न पता था, जबकि चिन्ता, भ्रान्ति, मति और कल्पना उनकी पुत्रियाँ थीं। और उन्हें यह भी स्पष्ट नहीं था कि उनमें से उनकी कौन सी सन्तान अदिति से और कौन दिति से उत्पन्न हुई थी। सुख, दुःख और आसक्ति भी ऐसे ही थे। स्मृति और भावना की ही सन्तानें वर्तमान, अतीत और भविष्य रूपी समय थे, और उस विषय में भी उन्हें प्रायः सन्देह हुआ करता था। चूँकि उनकी दूसरी और भी सन्तानें उत्पन्न हो चुकी थीं, इस प्रकार से उन्हें प्रजापति कहा जाने लगा। इस प्रकार से वंश वृद्धि और विस्तार से उनका मन खिन्न रहने लगा। और वे इस सब को त्यागकर वन को चले गए। वन में अकल्पित समय तक तप करते हुए उनके मन में प्रश्न उठा कि इन सबके बारे में शायद मुझे थोड़ा बहुत ज्ञान है, किन्तु स्वयं अपने बारे में; - मेरा अपना स्वरूप क्या और कैसा है, इसे मैं कितना और कहाँ तक जान सका? उनकी कठिनाई और भी बढ़ गई। उन्हें यह  सूझा कि प्रश्नकर्ता कौन है?

मैं प्रश्नकर्ता, या प्रश्नकर्ता मैं?

स्पष्ट है कि प्रश्न के रूप में ही प्रश्नकर्ता और प्रश्नकर्ता  के रूप में प्रश्न ही पुनः पुनः प्रकट और अप्रकट होता रहता है, जबकि मैं तो उनकी पृष्ठभूमि में सदैव सनातन रूप से विद्यमान हूँ। मैं न तो प्रकट होता हूँ न अप्रकट। किन्तु मेरे ही होने से प्रश्नों और प्रश्नकर्ता का उद्भव और लय होता रहता है। तो क्या मैं स्वयं को, स्वरूपतः जान सकता हूँ? क्या यह प्रश्न ही असंगत नहीं है? यद्यपि स्वयं को अवश्य ही मैं जानता हूँ किन्तु यह "जानना" कोई जानकारी नहीं बल्कि भानमात्र है जिसका ज्ञान के विषय और विषयी की तरह से विभाजन नहीं हो सकता है।

तब उनके समक्ष उन्हें प्रतीत हो रहा संपूर्ण दृश्य जगत् दृक् में विलीन हो गया और वे पुनः अपनी उस प्रज्ञा में प्रतिष्ठित हो गए जहाँ से कोई कभी लौटता नहीं है।

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आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।। 

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 

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