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धर्मं चर
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"उसके नोट्स" से :
Question प्रश्न 46 :
परम्परागत दृष्टिकोण से "धर्म" जीवन के चार स्वाभाविक प्रयोजनों में से प्रथम है। धर्म का सीधा तात्पर्य है :
जिस स्वाभाविक प्रेरणा से प्रत्येक वस्तु की कार्यप्रणाली तय होती है चाहे फिर वह "पदार्थ / द्रव्य के गुणधर्म" / Properties of Matter / Materials हों, या फिर अपने आपको "चेतन" कहने या समझनेवाले के द्वारा की जानेवाली गतिविधियों के "गुणधर्म" हों। हमें अभी यह नहीं पता, कि हममें अनायास ही विद्यमान "चेतनता / चेतना" नामक जो तत्व है, और जिसका कार्य शुरू होने के बाद ही हम अपने आपको एक नित्य, वर्तमान, आधारभूत, अविनाशी और अविकारी "मैं" / आत्मा के रूप में स्वीकार करते हैं, क्या वह उन सब असंख्य वस्तुओं में भी विद्यमान होता होगा, जिन्हें हम अपने से पृथक् और भिन्न किसी "दूसरे" की तरह कहा करते हैं, उस तरह से जानते और समझते हैं?
उन सब "दूसरी वस्तुओं" का मोटे तौर पर पुनः दो प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है - एक प्रकार तो वह है, जो कि विज्ञान और समष्टि विज्ञान अर्थात् प्रकृति के ज्ञात / अज्ञात नियमों से संचालित होता है, जबकि अन्य प्रकार वह, जिसमें अपने आपके अस्तित्व का स्वाभाविक भान हर किसी को रहता ही है। यह भान किसी भी तरह का इन्द्रियगम्य, बुद्धिगम्य, बोधगम्य ज्ञान नहीं होता क्योंकि उपरोक्त तीनों ही प्रकारों में विषय और विषयी के बीच का स्पष्ट विभाजन होता है। इसकी तुलना में अपने आपके स्वाभाविक भान / बोध में ऐसा विभाजन संभव ही नहीं होता। ऐसे भान / बोध में विषय और विषयी नितान्त अभिन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में - अस्तित्व ही भान / बोध, और यह भान / बोध ही अस्तित्व होता है।
उपरोक्त समस्त विवेचना की प्रामाणिकता की परीक्षा केवल बौद्धिक दृष्टि से भी की जा सकती है। और यदि ऐसा प्रतीत हो कि इसमें कोई त्रुटि है तो उस त्रुटि की परीक्षा भी की जा सकती है।
यदि यहाँ तक हम सहमत हैं तो प्रश्न यह उठता है कि इसे पुस्तक का स्वरूप देकर इस पुस्तक का कोई "शास्त्र" निर्मित किया जा सकता है?
स्पष्ट है,- संसार में प्रचलित सभी परंपराएँ या तो किसी पुस्तक विशेष को आधाररूप में स्वीकार कर अपने मत को ही एकमात्र और अंतिम निष्कर्ष होने का आग्रह और दावा करती हैं या किसी भी विशेष पुस्तक का आग्रह न करते हुए सीधे जिज्ञासा और अनुसन्धान के माध्यम से सत्य की खोज करने पर बल देती हैं। इसी मूलभूत आधार पर संसार के सभी मतों का वर्गीकरण दो मुख्य रूपों में पाया जाता है। दुर्भाग्यवश इन दोनों को ही "धर्म" कहा जाने लगा है। जबकि धर्म "आचरण" है न कि कोई मत या सिद्धान्त विशेष। दोनों ही प्रकार के मत संसार में प्रचलित हैं और उनके अनुयायी केवल अपनी अपनी पुस्तक के मत को ही एकमात्र सार्वकालिक और सार्वत्रिक सत्य होने का दृढ आग्रह करते हैं।
क्या सत्य के विनम्र जिज्ञासु के लिए यह संभव है कि वह किसी पुस्तक या मत का सहारा लिए बिना ही स्वतन्त्र रूप से खोज करते हुए उस सत्य का साक्षात्कार कर ले जिसका कि उसके जैसा कोई और, दूसरा जिज्ञासु भी साक्षात्कार कर सके?
सनातन धर्म की मान्यताओं में सर्वप्रथम इस एक प्रश्न को ही सर्वाधिक महत्व दिया जाता है और इसलिए इस सनातन धर्म के विभिन्न प्रकारों में किसी विशेष मत का न तो प्रतिपादन, और न ही खण्डन-मण्डन ही किया जाता है। बौद्ध और जैन आदि मत का पालन करनेवाले भी अनुसन्धान के अपने अपने तरीके को सनातन धर्म से तारतम्ययुक्त मानते हैं। इन दोनों ही प्रकारों के अनुयायी यद्यपि अपने आपको अनेक पंथों में वर्गीकृत भी करते हैं किन्तु उनमें यह विभाजन सैद्धान्तिक और बौद्धिक ही होता है, न कि धर्म के स्वरूप के संदर्भ में।
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