Dharma / Adharma and Ethics
धर्म और अधर्म, नैतिकता और अनैतिकता
What is the relationship between Dharma / Adharma and Ethics?
धर्म / अधर्म और नैतिकता के बीच क्या संबंध है?
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धर्म है आचरण - धर्मं चर, अर्थात् चरित्र जो कि प्रकृति के अनुसार होनेवाली कोई भी स्वाभाविक गतिविधि या क्रियाकलाप है। पातञ्जल योगसूत्र के अनुसार धर्म यम है, जिसका उल्लङ्घन कभी नहीं किया जाना चाहिए। अर्थात् यह सदैव अपने और सबके लिए भी, अपने और सबके द्वारा किया जानेवाला कर्तव्य है, जिसका निर्वाह न करना या उल्लङ्घन करना ही अधर्म है। इसके पाँच मौलिक अङ्ग हैं :
अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह
अहिंसा का अर्थ है प्रकृति की किसी भी वस्तु, पदार्थ या जीवों आदि से वैर न रखना। इस प्रकार की अहिंसा हर किसी का स्वाभाविक धर्म हो सकता है, चाहे वह कोई शाकाहारी प्राणी हो या माँसाहारी प्राणी। मुख्य बात यह है कि अपना अन्न / आहार कुछ भी क्यों न हो, मन में उसके प्रति घृणा, द्वेष या शत्रुता की भावना न हो। अतः यह सबके लिए अनुपालनीय है।
सत्य का अर्थ है वह वस्तु जो सतत वर्तमान, अविकारी, आधारभूत तत्व है, -और जो काल-स्थान-निरपेक्ष परम वास्तविक है। और इसे ही आत्मा या ब्रह्म भी कहते हैं। अर्थात् इस वस्तु के अस्तित्व का निश्चयात्मक ज्ञान। इसे व्यवहार के स्तर पर "शुद्ध भान या बोधमात्र" भी कहा जा सकता है। जहाँ जानना ही ज्ञान तथा ज्ञेय भी कहते हैं। उल्लेखनीय है कि विषय और विषयी दोनों यही है।
अस्तेय अर्थात् अपना जिस पर अधिकार न हो उसको प्राप्त करने की लालसा या आग्रह न होना। सरल अर्थ में : चोरी न करना।
चौथा है ब्रह्मचर्य -- जन्म लेते ही प्राणीमात्र को अनायास प्राप्त होनेवाला आश्रम। उल्लेखनीय है कि ब्रह्म तीनों ही प्रकार के भेदों से रहित होता है। क्रमशः ये तीन भेद इस प्रकार से हैं : सजातीय, विजातीय तथा स्वगत। जैसे कि दो या अधिक गौओं में एक दूसरे से भिन्नता होने पर भी आकृति और रंगरूप आदि में वे परस्पर एक जैसी होती हैं। इसे सजातीय भेद कहा जाता है ब्रह्म भी इस तरह से एकमेव अद्वितीय है। दूसरा प्रकार है गाय और बकरी के बीच का भेद। दोनों समान प्रकार की होते हुए भी किसी प्रकार से परस्पर भिन्न अर्थात् विजातीय होती हैं। तीसरा भेद होता है स्वगत - जैसे अपने ही शरीर के भिन्न भिन्न अंगों की आकृति और कार्य भिन्न भिन्न होने पर भी उन सबको अपना ही समझा जाता है। ब्रह्म में इन तीनों ही भेदं का अभाव होता है। छोटा शिशु भी जन्म के समय भेदबुद्धि से रहित होता है, इसलिए उसे स्वाभाविक रूप से "ब्रह्म जैसी चर्या है जिसकी" अर्थात् ब्रह्मचर्य में स्थित कहा जाता है। किन्तु इसी बुद्धि में समय आने पर अपने स्त्री या पुरुष होने की भावना उत्पन्न हो जाती है और तब भेदबुद्धि का भी जन्म हो जाता है।
अंतिम है अपरिग्रह - अर्थात् तात्कालिक आवश्यकता से अधिक की लालसा या आग्रह न होना। कुछ प्राणी इस प्रकार के होते हैं - गाय, बकरी आदि जबकि कुछ और जैसे कि चूहे या गिलहरी आवश्यकता से अधिक संग्रह किया करते हैं। मनुष्य भी अपनी आवश्यकता तय कर सकता है और अनावश्यक संग्रह करने के श्रम और लोभ से छुटकारा पा सकता है।
ये सभी एक व्यक्ति के "धर्म" हैं, जबकि "नियम" नैतिक मूल्य होते हैं जो कि दो या अधिक व्यक्तियों के समूह की आवश्यकता के अनुसार धर्म की मर्यादा को परिभाषित और रेखांकित करते हैं। इसलिए भिन्न भिन्न समूहों की नैतिकताएँ भिन्न भिन्न हो सकती हैं।
"नैतिकता" इसीलिए स्थान, समय और परिस्थितियों के अनुसार निर्धारित की जाती है, जबकि "धर्म" सदैव एक समान अपरिवर्तनशील व्यावहारिकता होता है।
इसलिए "भ्रष्टाचार" चरित्र या भ्रष्ट आचरण के रूप में तो अधर्म ही है, जिसे करने के लिए बाध्य किए जाने पर तो सामाजिक रूप से इसे अनैतिक भी कहा जा सकता है।
नैतिकता नीति पर निर्भर होती है और नीति सदाचार पर निर्भर होती है। इसकी तुलना में धर्म स्वतंत्र होता है। धर्म किसी पंथ तक सीमित नहीं होता, जबकि कोई भी ऐसा पंथ जो धर्म पर आश्रित न हो कभी पूर्ण और स्वतंत्र नहीं हो सकता। किसी भी पंथ के एकमात्र सत्य और पूर्ण का आग्रह ही विभिन्न पंथों के बीच परस्पर अविश्वास, भय और वैमनस्य को जन्म देता है जिसका परिणाम मनुष्यों के बीच टकराहट और शत्रुता पैदा होना है।
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दीपावलि पर्व की शुभकामनाएँ!
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