क वि ता
--
पता नहीं, वह क्या है,
जो होता नहीं बयाँ है!
पता नहीं, यह क्या है,
जीवन जो यहाँ है!
पता नहीं वह क्या है,
जो यहाँ वहाँ है!
साँसों में बहता है,
पता नहीं, वह क्या है!
***
क वि ता
--
पता नहीं, वह क्या है,
जो होता नहीं बयाँ है!
पता नहीं, यह क्या है,
जीवन जो यहाँ है!
पता नहीं वह क्या है,
जो यहाँ वहाँ है!
साँसों में बहता है,
पता नहीं, वह क्या है!
***
चार पंक्तियाँ
--
बात करने के लिए भी कुछ नहीं है,
और करने के लिए कोई नहीं है।
वह किसी से बात ही नहीं करता,
उसके जीवन में कोई भी दुःख नहीं है।
***
When The Thought / Sense Emerges.
विचार और वृत्ति
--
Mind is a timeless flow of Thought / Sense. Thought is विचार, Sense is वृत्ति.
Consciousness / चेतना is the background wherein and Where-from arise both - So entwined that its very difficult to distinguish between the two. Yet it isn't so difficult when attention is given to the emergence of either of the two. The fact that it's the fragmented attention indeed that makes it difficult to see how both emerge out from one and the same original source.
Thought is inevitably and essentially made of the spoken words, while the Sense is basically devoid of any word.
Thought is ever so in the verbal format while Sense always in and of the form of experience / feeling. Inextricably associated with each other, appear to be one and the same.
The Consciousness on the other hand ever so unaffected and un-associated with either and any of the two remains in the background. Its neither aware nor unaware of the Mind / मन, but manifests only as and through the attention alone that is the ever-present Realitya, always available to all living beings.
Whosoever is a living being, has this inherent attention and conversely, who-so-ever has this attention is a living being without exception.
This संघात / the Vector, the combination that is made up of the Thought and the Feeling is truly the devatA / देवता principle upon which is founded the स्वर्गलोक / देवलोक, The Sphere or the Realm of the celestial divine beings.
That is really how in that sense, the whole Universe / Existence is suffused by Divinity.
The point is :
We all humans are always governed by these myriad Thoughts and Feelings. Driven by them we become a victim of the whims imposed by them, upon us.
This model Realm of the Celestial Divine Beings / देवता / देवलोक keeps all the time forcing us to go in so many various and different directions and we like a animal slave to their whims can hardly sense this truth.
This Realm of devatA / देवता लोक / स्वर्ग-लोक has it's very own administrative way of Governance where they have A King - Indra, A Lord MahAdeva / Shiva, A Preceptor / deva-Guru, a Supreme Military Commander / Skanda. Everyone of them could be propitiated collectively or individually and this is really the Polytheism.
Still above Them, is yet another Truth, that could not be categorized in terms of one or many nor even as no-one or the Zero / शून्य.
देवी अथर्वशीर्ष devI atharvasheerSha points out and describes this Truth, the Reality in the words :
शून्यानां शून्यसाक्षी
This is how the Supreme Reality is just indescribable.
Discovering Where-from the Thought and the Sense emerges out, where-in it plays for the time being a while, and subsequently disappears is the Abode.
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।
Is verily this Abode.
***
Question / प्रश्न 50
--
What is the role of Consciousness?
चेतना की भूमिका / चरित्र और कार्य क्या है?
--
प्रतीति The Appearance, and / और
प्रत्यय The perception,
प्रतीत्य The Object of perception,
and / और,
बुद्धि (The Thought / The Intellect)
प्रतीति The Appearance and / और,
प्रत्यय The Perception,
प्रतीति Appearance and / और,
प्रवृत्ति The Instinct,
प्रवृत्ति Instinct and / और,
वृत्ति The Thought,
वृत्ति The Thought and और,
बुद्धि The Intellect,
बुद्धि The Intellect and / और,
विकल्प The Option / Choice.
विकल्प The Option / Choice and और
संकल्प The Determination.
संकल्प, विकल्प और निर्विकल्प बोध
The Determination, Choice or Option, and The Choiceless Awareness.
विचार और बौद्धिक जानकारी
Thought and knowledge,
बौद्धिक जानकारी और स्मृति
The Knowledge and the Memory.
स्मृति, बौद्धिक जानकारी और मन,
Memory, Knowledge and the Mind.
मन और संवेदनगम्यता
Mind and the Feeling,
संवेदनगम्यता और अनुभूति
Feeling and the Experience,
अनुभूति और अनुभवगम्यता
Experience and the Experiencing,
अनुभवगम्यता और इन्द्रिय-ज्ञान
Experiencing and the Sensitivity,
इन्द्रियाँ / इन्द्रिय-ज्ञान और जगत्, संसार या विश्व
Sensitivity, Senses and the World.
जगत्, संसार या विश्व और अहंकार या अहं-प्रतीति
The World and the Ego / The I-sense.
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An Example :
There was a man living on the bank of the Narmada river.
The rains had ended and there was the beginning of the winters.
The winds were cool and pleasant, and had begun to pinch a bit.
In the early morning he felt a shiver.
At once to him came a thought how to deal with the changing weather. This was बुद्धि - a simple thought, that split his प्रतीति the perception into the प्रतीत्य - the object of perception and the स्व / the "self", and at once this perception gave rise to the dichotomy between the self and the object perceived in the mind.
The mind itself assumed two forms and both appeared to have their own and independent existence.
The self, the subject of perception became the dominant and the other - the object of perception, - relatively less important.
The self assumed the form the doer, the experiencer, the enjoyer and the sufferer - The one who appears to do / perform an activity, who goes through the experience, who enjoys and suffers, and the owner of the memory or the whole information. That is how the sense of being "I" the individual came in existence.
The sum total of all known happenings as events, either the experience, the feelings, the sentiments, the memory attached with this independent one, appeared as the observed while the one the predominant sense of being "I", - the "self" in the objective world, - other than the "self".
Then the drama started and the "self" became the victim of the ignorance and the illusion.
This very"self" is the "individual".
With the emergence of Thought, all this entire phenomenal world appeared in no time.
For Time is / was the Thought itself.
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ऋषि, देवता, प्रजापति और मनुष्य
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न तो युगों का और न ही अवतारों का कोई विशेष समय या कालखण्ड हो सकता है। हर प्राणी के अपने जीवन और अपनी आयु में वह स्वयं ही अवतार होता है और स्वयं ही वह समय या कालखण्ड भी जो वह होता है।
ऋषि कश्यप जिन्हें प्रजापति भी माना जाता है मूलतः कच्छ अवतार के रूप में प्रकट हुए थे, उनका विवाह प्रजापति दक्ष की दो पुत्रियों से हुआ था। वे दोनों बहनें जुड़वाँ होने से सभी को प्रायः उनके विषय में भ्रम हो जाया करता था। स्वयं ऋषि कश्यप भी इस भ्रम से बच नहीं पा रहे थे। तब उन्होंने दोनों युगल बहनों के स्वरूप पर ध्यान लगाया। तब उन्हें यह स्पष्ट हुआ कि अदिति ही भावना और दिति ही स्मृति है। यही नहीं, तब उनके उन बहुत से ज्ञात अज्ञात, और दृश्य अदृश्य रूपों का ज्ञान भी उन्हें हुआ जो उनसे उत्पन्न हुए उनके अपने ही पुत्र और पुत्रियाँ थे। संशय, भ्रम, विचार, भय तो उनके पुत्र ही थे जिनका जन्म कब हुआ यह तक उन्हें न पता था, जबकि चिन्ता, भ्रान्ति, मति और कल्पना उनकी पुत्रियाँ थीं। और उन्हें यह भी स्पष्ट नहीं था कि उनमें से उनकी कौन सी सन्तान अदिति से और कौन दिति से उत्पन्न हुई थी। सुख, दुःख और आसक्ति भी ऐसे ही थे। स्मृति और भावना की ही सन्तानें वर्तमान, अतीत और भविष्य रूपी समय थे, और उस विषय में भी उन्हें प्रायः सन्देह हुआ करता था। चूँकि उनकी दूसरी और भी सन्तानें उत्पन्न हो चुकी थीं, इस प्रकार से उन्हें प्रजापति कहा जाने लगा। इस प्रकार से वंश वृद्धि और विस्तार से उनका मन खिन्न रहने लगा। और वे इस सब को त्यागकर वन को चले गए। वन में अकल्पित समय तक तप करते हुए उनके मन में प्रश्न उठा कि इन सबके बारे में शायद मुझे थोड़ा बहुत ज्ञान है, किन्तु स्वयं अपने बारे में; - मेरा अपना स्वरूप क्या और कैसा है, इसे मैं कितना और कहाँ तक जान सका? उनकी कठिनाई और भी बढ़ गई। उन्हें यह सूझा कि प्रश्नकर्ता कौन है?
मैं प्रश्नकर्ता, या प्रश्नकर्ता मैं?
स्पष्ट है कि प्रश्न के रूप में ही प्रश्नकर्ता और प्रश्नकर्ता के रूप में प्रश्न ही पुनः पुनः प्रकट और अप्रकट होता रहता है, जबकि मैं तो उनकी पृष्ठभूमि में सदैव सनातन रूप से विद्यमान हूँ। मैं न तो प्रकट होता हूँ न अप्रकट। किन्तु मेरे ही होने से प्रश्नों और प्रश्नकर्ता का उद्भव और लय होता रहता है। तो क्या मैं स्वयं को, स्वरूपतः जान सकता हूँ? क्या यह प्रश्न ही असंगत नहीं है? यद्यपि स्वयं को अवश्य ही मैं जानता हूँ किन्तु यह "जानना" कोई जानकारी नहीं बल्कि भानमात्र है जिसका ज्ञान के विषय और विषयी की तरह से विभाजन नहीं हो सकता है।
तब उनके समक्ष उन्हें प्रतीत हो रहा संपूर्ण दृश्य जगत् दृक् में विलीन हो गया और वे पुनः अपनी उस प्रज्ञा में प्रतिष्ठित हो गए जहाँ से कोई कभी लौटता नहीं है।
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आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।
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Question प्रश्न 49
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"उसके नोट्स" से --
धर्म ही एकमात्र सत्य, वास्तविकता अर्थात् आत्मा और ईश्वर अर्थात् परमेश्वर है जिसके आधारभूत पाँच स्कन्ध
पाँच यम :
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यही हैं।
जो इनसे विरुद्ध और विपरीत है वह सभी अधर्म ही है।
"धर्म क्या है?"
के उत्तर में पहले जैसा कि कहा जा चुका है, वह सब धर्म-लक्षण है, उससे विरुद्ध और विपरीत जो कुछ भी है सब अधर्म-लक्षण है।
संक्षेप में :
प्राणिमात्र से वैर, ईर्ष्या, द्वेष न रखना अहिंसा है।
जो नित्य अविकारी और सर्वत्र विद्यमान है, सत्य है।
जिस पर अपना न्यायसंगत अधिकार नहीं है, उसकी कामना तक न करना अ-स्तेय है।
सर्वत्र और सब कुछ एकमेव अद्वितीय ब्रह्म है सबको इस दृष्टि से देखना और अपने आपको भी वही जानते हुए सबके प्रति ऐसी अभेद-बुद्धि होना ही ब्रह्मचर्य है। चूँकि ब्रह्म पूर्ण है अतः उसमें कामवासना का नितान्त अभाव होना भी उसके लिए स्वाभाविक ही है। ऐसे ब्रह्मचर्य में काम-इच्छा और विषयों के प्रति लिप्तता, सुख-बुद्धि या आसक्ति भी कैसे हो सकती है! प्रजा की वृद्धि करना भी धर्म ही है, इसलिए ऐसा मनुष्य संतान की उत्पत्ति करने के ध्येय से और केवल कर्तव्य का निर्वाह करने की दृष्टि से प्रजनन के कार्य में संलग्न होता है क्योंकि उसे कर्तव्य को पूर्ण करने के लिए तो आग्रह हो सकता है, और न ही द्वेष हो सकता है।
और अंतिम है अ-परिग्रह -- अर्थात् अनावश्यक संग्रह न करना। यदि ऐसी कोई संपत्ति, धन आदि व्यर्थ ही नष्ट हो रहे हों तो उसका किसी योग्य और पात्र व्यक्ति को दान कर देना।
क्या आज के समय में केवल लोभ, भय, प्रमादवश, या हठ और अज्ञानवश हम इनमें से अधिकांश का उल्लंघन नहीं कर रहे हैं?
यह तो हुई दो पुरुषार्थों धर्म और अर्थ के संबंध में हमारी दृष्टि। तीसरा पुरुषार्थ "काम" है, जिसका तात्पर्य है सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति करने की आवश्यकता अनुभव होना। जैसे संपत्ति के सृजन और उससे प्राप्त हो सकनेवाले सुखों का उपभोग करने के लिए श्रम का और मानसिक संकल्प का बल होना आवश्यक होता है वैसे ही "काम" के पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए यह आवश्यक है कि विषयों में सुख-बुद्धि रखे बिना ही कामना को पूर्ण करने की चेष्टा की जा सके। धर्म से "अ-विरुद्ध काम" के प्रति हमारी क्या दृष्टि होना चाहिए इसे श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न दो श्लोकों में स्पष्ट किया गया है :
अध्याय ७
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।११।।
अध्याय १०
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पो सर्पाणामस्मि वासुकिः।।२८।
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Question / प्रश्न 48
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What Is Dharma?
धर्म क्या है?
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"उसके नोट्स" से --
"धर्म" नामक शक्ति जिससे संपूर्ण जगत् संचालित होता है, उस वस्तु के कार्य को प्रत्यक्ष और परोक्ष, दो विधियों से जाना जा सकता है। प्रत्यक्षतः तो धर्म आचरण और कार्य अर्थात् "चरित्र" है जिसे कर्म के रूप में प्रत्यक्ष ही देखा जा सकता है, जबकि परोक्षतः या अप्रत्यक्षतः धर्म प्रेरणा के रूप में कार्यशील वह शक्ति है जिससे प्रत्येक जड चेतन वस्तु किसी कार्य का माध्यम बनकर उसे पूर्ण करती है।
इस "प्रेरणा" की अभिव्यक्ति पुनः विवेक, न्याय और प्राप्त परंपरा के अनुसरण के रूप में प्रत्येक के चरित्र, आचरण और बुद्धि में फलित होती है। नित्य-अनित्य विवेक ही धर्म की मूल प्रेरणा शक्ति है। इस प्रकार से धर्म से प्रेरित मनुष्य को अनायास ही धर्म के वास्तविक स्वरूप / तत्व का साक्षात्कार और प्रज्ञारूपी ज्ञान होता है, जो केवल स्मृति का विषय न होकर साक्षात् धर्म ही होता है। सबसे बड़ा सत्य यह है कि मृत्युलोक में उत्पन्न प्रत्येक प्राणी ही इसी धर्म से शासित हुआ अपना जीवन व्यतीत किया करता है, और मृत्युलोक अर्थात् यमलोक के शासनकर्ता मृत्यु अर्थात् यम स्वयं भी इसी से शासित हैं। यही वह धर्म है, जिसे सनातन धर्म भी कहा जाता है जो कि विभिन्न परंपराओं के भेद के कारण वैदिक और अवैदिक इन दो ही प्रकारों में पूरे संसार में प्रचलित है।
इसलिए धर्म ही एकमात्र प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष परमेश्वर है जिसकी उपासना करने का अधिकारी प्राणिमात्र ही है। जैसा पहले कहा है इसी धर्म का अनुष्ठान हर मनुष्य विवेक, न्याय और बुद्धि (तर्क) और परंपरा से प्राप्त विधि के अनुसार करता है और उसे जीवन में तदनुसार सुख और दुःख प्राप्त होते हैं। जो विवेक से परिचालित होता है, उसे यह स्पष्ट होता है कि सभी सुख और दुःख अनित्य हैं, अतीत स्मृति से, जबकि भविष्य कल्पना से भिन्न कुछ नहीं होता। तब उसमें धैर्य उत्पन्न होता है और वह निर्भय और प्रसन्न होता है। जीवन के शारीरिक और मानसिक कष्टों और पीड़ाओं को वह तपस्या की दृष्टि से स्वीकार कर लेता है, न तो उनसे पलायन करता है, न ही उनसे भयभीत होता है। अपने विवेक के अनुसार वह न तो उन्हें निमंत्रित करता हैकर न ही नियंत्रित करता है।
धर्म को ही एकमात्र परमेश्वर जानकर वह उसकी सेवा, विवेकपूर्वक उसकी ही उपासना किया करता है। धर्म ही आत्मा है जिसे परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं।
धर्म ही एकमात्र सत्य है।
***
बेबीलोन ओर मैसेपोटा
--
भव्यलोकं और महापोतमेय
शायद 8 वर्ष पहले हातिमताई की कहानी स्वाध्याय या इस ब्लॉग में लिखी थी। उनमें से किसी में सन्दर्भ दिया था कि किस प्रकार से हजरत मूसा को इजिप्ट छोड़ना पड़ा और वे ईश्वर के घर (ईश्वरालय) की खोज में अपने अनुयायियों के साथ रेगिस्तान में चलते हुए यरुशलम में जा पहुँचे। यरुशलम संस्कृत "ईरुशैलम्" का ही अपभ्रंश जान पड़ता है। इसमें सन्देह नहीं कि यद्यपि अब्राहम ही यहोवा के धर्म (सैद्धान्तिक पूजा पद्धति) के संस्थापक थे और यहोवा अर्थात् YHVH वही "यह्वः" और "यह्वी" है जिसका उल्लेख ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर मिलता है। किसी पोस्ट में यह सन्दर्भ भी नेट से उद्धृत किया था कि एकमात्र एन्जिल गैबरियल ही एकमात्र एन्जिल थे तीनों प्रमुख अब्राहमिक परंपराओं के संस्थापकों से जिनका संपर्क हुआ था। स्पष्ट है कि वर्तमान इसरायल में अब भी इन तीनों परंपराओं से पहले विद्यमान सांस्कृतिक प्रमाण देखे जा सकते हैं। यदि नयी जानकारीनहीं मिलती तो मैं अपने अनुमानों की सत्यता के बारे में बहुत सुनिश्चित न। होता। संयोग से आज ही एक एक्स-मुस्लिम महिला का चैनल देखते समय कुछ पुराने सूत्र उद्घाटित हो उठे। हाइमा नामक उस महिला के यू-ट्यूब चैनल का नाम है : "Out of the box"
कल ही पता चला, शायद इस चैनल पर और भी कुछ लोग हैं। शायद यह एक्स-मुस्लिम्स के लिए है। इससे मुझे जानकारी तो मिली ही और जानकारी का मजहब या धर्म से क्या संबंध हो सकता है? धर्म तो हर मनुष्य की प्रकृति-प्रदत्त प्रेरणा और प्रवृत्ति होती है, जबकि पंथ परंपराओं से प्राप्त आचार-विचार और व्यवहार होता है।
उपरोक्त चैनल में उसने बेबीलोन की सभ्यता का सन्दर्भ देते हुए उल्लेख किया है कि उस समय में किसी स्त्री का विवाह होने पर वह एक रात्रि मन्दिर के देवता के साथ व्यतीत करते थी और देवता से उसे पुत्र की प्राप्ति होती थी। यह परंपरा थी जिसका पालन वे लोग गौरवपूर्वक किया करते थे। बेबीलोन में इस प्रकार से जो पुत्र जन्म लेते थे उनके 14 नाम थे, जिनमें से एक नाम "ईसा" था। याद आया कि श्रीमद्भगद्गीता में 14 मनु(ओं) का उल्लेख है। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि इन्हीं 14 मनुओं से सभी मनुष्य पैदा हुए। उसी चैनल पर इब्राहिम का और इस्माइल का उल्लेख भी है। संस्कृत और वैदिक ज्ञान के आधार पर मुझे लगता है कि जैसे "अब्राहम" अब्रह्मन् का ही अपभ्रंश है, वैसे ही "इस्माइल" भी अस्मिल का अपभ्रंश है। इस प्रकार मनुष्य की चेतना की अभिव्यक्ति क्रमशः ब्रह्म, अब्रह्म और अस्मिल इन तीन रूपों में हुई। एन्जिल गैबरियल की उत्पत्ति के मूल को अंगिरा और जाबाल ऋषि के साथ तुलना कर देखा जा सकता है। अंगिरा और जाबाल ऋषियों का वर्णन उपनिषदों में पाया जाता है जहाँ मुण्डकोपनिषद् में अंगिरा / अंगिरस् का उल्लेख है, वहीं ऋषि जाबाल के नाम पर तो केवल एक नहीं बल्कि दो उपनिषद् पाए जाते हैं। जाबाल ऋषि शैव दर्शन के आचार्य कहे जाते हैं और यह केवल संयोग नहीं प्रतीत होता कि आज भी इसरायल (ईश्वरालय) में शे'बा (Sheba) एक अत्यन्त पवित्र और सम्मानजनक शब्द समझा जाता है। वैदिक और पौराणिक परंपराओं और ग्रन्थों में शिव का नाम शर्व और उनकी शिवा का नाम शर्वणी प्रसिद्ध ही है। संभवतः शर्वरी का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में शबरी के रूप में किया गया है। उर्दू भाषा में "शब" का अर्थ "रात्रि" होता है और इसका ही वेद में भी इसी अर्थ में किया गया है।
शिव की उपासना ही शैव मत है, जो प्रमुखता पश्चिम के स्थानों में हमेशा से प्रचलित रहा। जाबाल ऋषि इसलिए भी अब्राहम परंपराओं के मार्गदर्शक हैं। चूँकि शैव मत में वेद से विपरीत तत्व भी पाए जाते हैं इसलिए वैदिक मत के अनुयायियों से उनका मत-वैभिन्न्य होना स्वाभाविक ही है। वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड सर्ग 87 में एक परम प्रतापवान और पराक्रमी चक्रवर्ती राजा / सम्राट का उल्लेख है, जिसका नाम था "इल"। समस्त पृथ्वीलोक के मनुष्य - राक्षस, गंधर्व, किन्नर, नाग और यक्ष उसे ही "एकमात्र परमेश्वर" मानकर उसकी पूजा करते थे। वह भी वैदिक सनातन-धर्म का ही पालन करता था। संसार में एकेश्वरवाद की अवधारणा का प्रारंभ यहीं से हुआ। क्योंकि वेद उपनिषद् आदि प्रकृति के "देवताओं" को तो मानते हैं किन्तु "ईश्वर" एक है या नहीं इस पर कोई मत प्रदान नहीं करते। देवी अथर्वशीर्ष या शिव अथर्वशीर्ष के अनुसार ईश्वर को एक, अनेक और शून्य के वर्गीकरण में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। यहाँ तक कि ईश्वर से भी उच्चतर है आत्मा अर्थात् वह ईश्वर को जाननेवाला या उस संबंध में विचार करनेवाला। केवल मनुष्य ही इस प्रकार से विचार कर सकता है।
मनुष्यों और सभी प्राणियों के अपने अपने वंश होते हैं। इसी प्रकार जातियाँ और वर्ण भी। इसी आधार पर दो आधिदैविक तत्व हैं :
देवता (divine) और दैत्य (Deity, Dutch, और Deutsche)
मनुष्यों में दानव (दीन / Dane / Dyna, Dyne).
इस्लाम का "दीन" यही है। अरब / अर्वण् और दीनार का उल्लेख संभवतः वेदों में भी पाया जाता सकता है। यह अरबी 'दीन' से व्युत्पन्न है।
हिन्दी / संस्कृत भाषा में 'दीन' शब्द को निर्धन के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है जिसकी संगति 'हीन' से होती है।
इस पोस्ट का और भी अधिक विस्तार किया जा सकता है क्योंकि यह विषय ही बहुत व्यापक है, इसलिए इसमें और अधिक अनुसंधान किया जाना आवश्यक है।
इसलिए यहीं विराम दे रहा हूँ।
***
Dharma / Adharma and Ethics
धर्म और अधर्म, नैतिकता और अनैतिकता
What is the relationship between Dharma / Adharma and Ethics?
धर्म / अधर्म और नैतिकता के बीच क्या संबंध है?
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धर्म है आचरण - धर्मं चर, अर्थात् चरित्र जो कि प्रकृति के अनुसार होनेवाली कोई भी स्वाभाविक गतिविधि या क्रियाकलाप है। पातञ्जल योगसूत्र के अनुसार धर्म यम है, जिसका उल्लङ्घन कभी नहीं किया जाना चाहिए। अर्थात् यह सदैव अपने और सबके लिए भी, अपने और सबके द्वारा किया जानेवाला कर्तव्य है, जिसका निर्वाह न करना या उल्लङ्घन करना ही अधर्म है। इसके पाँच मौलिक अङ्ग हैं :
अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह
अहिंसा का अर्थ है प्रकृति की किसी भी वस्तु, पदार्थ या जीवों आदि से वैर न रखना। इस प्रकार की अहिंसा हर किसी का स्वाभाविक धर्म हो सकता है, चाहे वह कोई शाकाहारी प्राणी हो या माँसाहारी प्राणी। मुख्य बात यह है कि अपना अन्न / आहार कुछ भी क्यों न हो, मन में उसके प्रति घृणा, द्वेष या शत्रुता की भावना न हो। अतः यह सबके लिए अनुपालनीय है।
सत्य का अर्थ है वह वस्तु जो सतत वर्तमान, अविकारी, आधारभूत तत्व है, -और जो काल-स्थान-निरपेक्ष परम वास्तविक है। और इसे ही आत्मा या ब्रह्म भी कहते हैं। अर्थात् इस वस्तु के अस्तित्व का निश्चयात्मक ज्ञान। इसे व्यवहार के स्तर पर "शुद्ध भान या बोधमात्र" भी कहा जा सकता है। जहाँ जानना ही ज्ञान तथा ज्ञेय भी कहते हैं। उल्लेखनीय है कि विषय और विषयी दोनों यही है।
अस्तेय अर्थात् अपना जिस पर अधिकार न हो उसको प्राप्त करने की लालसा या आग्रह न होना। सरल अर्थ में : चोरी न करना।
चौथा है ब्रह्मचर्य -- जन्म लेते ही प्राणीमात्र को अनायास प्राप्त होनेवाला आश्रम। उल्लेखनीय है कि ब्रह्म तीनों ही प्रकार के भेदों से रहित होता है। क्रमशः ये तीन भेद इस प्रकार से हैं : सजातीय, विजातीय तथा स्वगत। जैसे कि दो या अधिक गौओं में एक दूसरे से भिन्नता होने पर भी आकृति और रंगरूप आदि में वे परस्पर एक जैसी होती हैं। इसे सजातीय भेद कहा जाता है ब्रह्म भी इस तरह से एकमेव अद्वितीय है। दूसरा प्रकार है गाय और बकरी के बीच का भेद। दोनों समान प्रकार की होते हुए भी किसी प्रकार से परस्पर भिन्न अर्थात् विजातीय होती हैं। तीसरा भेद होता है स्वगत - जैसे अपने ही शरीर के भिन्न भिन्न अंगों की आकृति और कार्य भिन्न भिन्न होने पर भी उन सबको अपना ही समझा जाता है। ब्रह्म में इन तीनों ही भेदं का अभाव होता है। छोटा शिशु भी जन्म के समय भेदबुद्धि से रहित होता है, इसलिए उसे स्वाभाविक रूप से "ब्रह्म जैसी चर्या है जिसकी" अर्थात् ब्रह्मचर्य में स्थित कहा जाता है। किन्तु इसी बुद्धि में समय आने पर अपने स्त्री या पुरुष होने की भावना उत्पन्न हो जाती है और तब भेदबुद्धि का भी जन्म हो जाता है।
अंतिम है अपरिग्रह - अर्थात् तात्कालिक आवश्यकता से अधिक की लालसा या आग्रह न होना। कुछ प्राणी इस प्रकार के होते हैं - गाय, बकरी आदि जबकि कुछ और जैसे कि चूहे या गिलहरी आवश्यकता से अधिक संग्रह किया करते हैं। मनुष्य भी अपनी आवश्यकता तय कर सकता है और अनावश्यक संग्रह करने के श्रम और लोभ से छुटकारा पा सकता है।
ये सभी एक व्यक्ति के "धर्म" हैं, जबकि "नियम" नैतिक मूल्य होते हैं जो कि दो या अधिक व्यक्तियों के समूह की आवश्यकता के अनुसार धर्म की मर्यादा को परिभाषित और रेखांकित करते हैं। इसलिए भिन्न भिन्न समूहों की नैतिकताएँ भिन्न भिन्न हो सकती हैं।
"नैतिकता" इसीलिए स्थान, समय और परिस्थितियों के अनुसार निर्धारित की जाती है, जबकि "धर्म" सदैव एक समान अपरिवर्तनशील व्यावहारिकता होता है।
इसलिए "भ्रष्टाचार" चरित्र या भ्रष्ट आचरण के रूप में तो अधर्म ही है, जिसे करने के लिए बाध्य किए जाने पर तो सामाजिक रूप से इसे अनैतिक भी कहा जा सकता है।
नैतिकता नीति पर निर्भर होती है और नीति सदाचार पर निर्भर होती है। इसकी तुलना में धर्म स्वतंत्र होता है। धर्म किसी पंथ तक सीमित नहीं होता, जबकि कोई भी ऐसा पंथ जो धर्म पर आश्रित न हो कभी पूर्ण और स्वतंत्र नहीं हो सकता। किसी भी पंथ के एकमात्र सत्य और पूर्ण का आग्रह ही विभिन्न पंथों के बीच परस्पर अविश्वास, भय और वैमनस्य को जन्म देता है जिसका परिणाम मनुष्यों के बीच टकराहट और शत्रुता पैदा होना है।
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दीपावलि पर्व की शुभकामनाएँ!
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Re-reach and Outreach.
धर्मं चर
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"उसके नोट्स" से :
Question प्रश्न 46 :
परम्परागत दृष्टिकोण से "धर्म" जीवन के चार स्वाभाविक प्रयोजनों में से प्रथम है। धर्म का सीधा तात्पर्य है :
जिस स्वाभाविक प्रेरणा से प्रत्येक वस्तु की कार्यप्रणाली तय होती है चाहे फिर वह "पदार्थ / द्रव्य के गुणधर्म" / Properties of Matter / Materials हों, या फिर अपने आपको "चेतन" कहने या समझनेवाले के द्वारा की जानेवाली गतिविधियों के "गुणधर्म" हों। हमें अभी यह नहीं पता, कि हममें अनायास ही विद्यमान "चेतनता / चेतना" नामक जो तत्व है, और जिसका कार्य शुरू होने के बाद ही हम अपने आपको एक नित्य, वर्तमान, आधारभूत, अविनाशी और अविकारी "मैं" / आत्मा के रूप में स्वीकार करते हैं, क्या वह उन सब असंख्य वस्तुओं में भी विद्यमान होता होगा, जिन्हें हम अपने से पृथक् और भिन्न किसी "दूसरे" की तरह कहा करते हैं, उस तरह से जानते और समझते हैं?
उन सब "दूसरी वस्तुओं" का मोटे तौर पर पुनः दो प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है - एक प्रकार तो वह है, जो कि विज्ञान और समष्टि विज्ञान अर्थात् प्रकृति के ज्ञात / अज्ञात नियमों से संचालित होता है, जबकि अन्य प्रकार वह, जिसमें अपने आपके अस्तित्व का स्वाभाविक भान हर किसी को रहता ही है। यह भान किसी भी तरह का इन्द्रियगम्य, बुद्धिगम्य, बोधगम्य ज्ञान नहीं होता क्योंकि उपरोक्त तीनों ही प्रकारों में विषय और विषयी के बीच का स्पष्ट विभाजन होता है। इसकी तुलना में अपने आपके स्वाभाविक भान / बोध में ऐसा विभाजन संभव ही नहीं होता। ऐसे भान / बोध में विषय और विषयी नितान्त अभिन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में - अस्तित्व ही भान / बोध, और यह भान / बोध ही अस्तित्व होता है।
उपरोक्त समस्त विवेचना की प्रामाणिकता की परीक्षा केवल बौद्धिक दृष्टि से भी की जा सकती है। और यदि ऐसा प्रतीत हो कि इसमें कोई त्रुटि है तो उस त्रुटि की परीक्षा भी की जा सकती है।
यदि यहाँ तक हम सहमत हैं तो प्रश्न यह उठता है कि इसे पुस्तक का स्वरूप देकर इस पुस्तक का कोई "शास्त्र" निर्मित किया जा सकता है?
स्पष्ट है,- संसार में प्रचलित सभी परंपराएँ या तो किसी पुस्तक विशेष को आधाररूप में स्वीकार कर अपने मत को ही एकमात्र और अंतिम निष्कर्ष होने का आग्रह और दावा करती हैं या किसी भी विशेष पुस्तक का आग्रह न करते हुए सीधे जिज्ञासा और अनुसन्धान के माध्यम से सत्य की खोज करने पर बल देती हैं। इसी मूलभूत आधार पर संसार के सभी मतों का वर्गीकरण दो मुख्य रूपों में पाया जाता है। दुर्भाग्यवश इन दोनों को ही "धर्म" कहा जाने लगा है। जबकि धर्म "आचरण" है न कि कोई मत या सिद्धान्त विशेष। दोनों ही प्रकार के मत संसार में प्रचलित हैं और उनके अनुयायी केवल अपनी अपनी पुस्तक के मत को ही एकमात्र सार्वकालिक और सार्वत्रिक सत्य होने का दृढ आग्रह करते हैं।
क्या सत्य के विनम्र जिज्ञासु के लिए यह संभव है कि वह किसी पुस्तक या मत का सहारा लिए बिना ही स्वतन्त्र रूप से खोज करते हुए उस सत्य का साक्षात्कार कर ले जिसका कि उसके जैसा कोई और, दूसरा जिज्ञासु भी साक्षात्कार कर सके?
सनातन धर्म की मान्यताओं में सर्वप्रथम इस एक प्रश्न को ही सर्वाधिक महत्व दिया जाता है और इसलिए इस सनातन धर्म के विभिन्न प्रकारों में किसी विशेष मत का न तो प्रतिपादन, और न ही खण्डन-मण्डन ही किया जाता है। बौद्ध और जैन आदि मत का पालन करनेवाले भी अनुसन्धान के अपने अपने तरीके को सनातन धर्म से तारतम्ययुक्त मानते हैं। इन दोनों ही प्रकारों के अनुयायी यद्यपि अपने आपको अनेक पंथों में वर्गीकृत भी करते हैं किन्तु उनमें यह विभाजन सैद्धान्तिक और बौद्धिक ही होता है, न कि धर्म के स्वरूप के संदर्भ में।
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Taciturn and Reticent
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"उसके नोट्स" से :
महेश्वर मिश्र से परिचय होने के बाद मुझे एक नई दृष्टि प्राप्त हुई।
"आप क्या सोचते हैं? कौन सी भाषा सबसे पुरानी है? हम भारतीयों को इन चतुर विदेशियों ने इतना विमोहित कर रखा है कि उनकी शिक्षा दीक्षा से पूरे भारतवर्ष का ही विनाश हो रहा है। और भारतवर्ष का विनाश होने का परिणाम है संसार का विनाश।!"
वे कह रहे थे। फिर बोले :
"हमारे पूर्वज मिश्र थे। आपने मण्डन मिश्र का नाम सुना ही होगा। हम उन्हीं के वंशज हैं। किन्तु उनके ही कुल का विस्तार पूरे विश्व में था। सुदूर अतीत में, उनके ही कुल में उनके कोई पूर्वज अवज्ञप्ति कहलाते थे। अवज्ञप्ति के वंश में एक "मिश्र" हुए जिनका नाम उनके पिता ने पता नहीं क्या सोचकर "खण्डन" या "खण्डन मिश्र" रखा था। "खण्डन" और "मिश्र" जिस स्थान पर रहते थे, स्थानीय प्रभाव के कारण उस स्थान का और उनका भी नाम समय के साथ बदल गया।
"अवज्ञप्ति", "खण्डन" और "मिश्र" के ही अपभ्रंश क्रमशः अजप्त, खानदान और मिस्र के रूप में प्रचलित हो गए। एक और किंवदन्ती के अनुसार चूँकि उन लोगों ने जप-तप इत्यादि कर्मो को त्याग दिया था, इसलिए भी उन्हें "अजप्त" कहा जाने लगा। "अजप्त" ही "जप्त" हो गया जिसकी सुदूर प्रतिध्वनि जर्मन भाषा के :
"es gipt" में सुनी जा सकती है।
आप तो जानते होंगे कि ऋग्वेद के ही प्रमाण के अनुसार अरबी / अर्वण् संस्कृति और भाषा की उत्पत्ति रेत से या समुद्र से हुई है।... "
(मुझे यह सोचकर आश्चर्य हुआ कि उन्होंने अपने पिता से यह सारी जानकारी प्राप्त की होगी या मेरे ब्लॉग में इस बारे में पढ़ा होगा, क्योंकि ऋग्वेद का उक्त सन्दर्भ मैंने अपने किसी ब्लॉग में उद्धृत किया है। संयोगमात्र से भी ऐसा हुआ हो, यह भी संभव है। ऋग्वेद से उद्धृत उक्त सन्दर्भ में "पुरीष" शब्द का प्रयोग "रेत" के अर्थ में किया गया है, और "रेत" का अर्थ है "रेतस्"।
शायद उन्हें पता नहीं होगा कि अरबी भाषा की उत्पत्ति में "उणादि प्रत्यय" तथा "अइउण्" ही आधारभूत है। इस विषय में भी अपने ब्लॉग्स में मैने विस्तार से लिखा है। जब फ़रिश्तः / पार्षद / अंगिरा ऋषि / जाबाल ऋषि ने अब्रह्मन् / अब्राहम / इब्राहिम को दर्शन दिया था तो उसे 10 सम्मन्तमन्त commandments प्रदान किए थे । उसने उन्हें अपनी (अ) ब्राह्मी लिपि में लिख लिया था। अंगिरा जाबाल ऋषि / Angel Gabriel ने तब उसे कहा "पढ़ो / बोलो / ब्रूहि।"
अब्राहम ने "ब्रूहि" को वर्णों के विलोम क्रम में लिखकर पढ़ा "हिब्रू"। तो यह हो सकती है अब्राहमिक परंपराओं के जन्म की कथा। हाँ इस प्रश्न का उत्तर भी अनायास ही मिल गया कि अवज्ञप्ति से Egypt कैसे बना होगा।
तब ऋषि ने अब्राहम से कहा : यह "सारतम" है।
अब्राहम ने उसे विलोमक्रम से जैसा अपनी हिब्रू लिपि में लिखा उसे उसने "सारतम" ही कहा, किन्तु बाद में उसे यह विस्मृत है गया और इस शब्द का लोकप्रचलित रूढ रूप "मदरसा" बना। इसे यदि हिब्रू लिपि में लिखें और विलोमक्रम (दाँये से बाँए) पढें तो इसका उच्चारण यही होगा -- "सारतम"
"उसके नोट्स" पढ़ते हुए यह सब याद आया।
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और Samuel P. Huntington.
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प्रश्न / Question 45
"तो सवाल यह नहीं था कि संस्कृत और தமிழ் दोनों भाषाओं में कौन सी भाषा अधिक पुरानी या अधिक प्राचीन है!"
सवाल पूछना बुद्धिमत्ता का द्योतक है, किन्तु सवाल का सन्दर्भ क्या है यह जान लेना भी इतना ही महत्वपूर्ण है।
"उसके नोट्स" पढ़ते हुए उपरोक्त पंक्तियों पर मेरा ध्यान गया तो आगे और भी पढ़ने की उत्सुकता हुई।
उसने लिखा था --
"... वैसे मैं कोई मान्य भाषाविज्ञानी या भाषाशास्त्री तो नहीं हूँ केवल एक स्वतंत्र शोधकर्ता हूँ इसलिए मुझे नहीं मालूम कि मेरा शोध कितना प्रामाणिक हो सकता है।
फिर भी विभिन्न भाषाओं की उत्पत्ति और प्रादुर्भाव पर अपना अध्ययन और शोध करते हुए मेरा ध्यान अनायास इस ओर गया कि किस प्रकार किसी प्रश्न को प्रमाद या लापरवाही या फिर केवल न्यस्त स्वार्थ और दुराग्रह से प्रेरित और प्रभावित होने के कारण भी इस प्रकार पूछा जा सकता है कि प्रश्न का उत्तर देनेवाला भ्रमित हो जाए।
इसका एक उदाहरण यही है।
वैसे तो सभ्यताओं के बीच संघर्ष होना ही अपने आपमें विचित्र प्रतीत होता है क्योंकि वास्तव में किन्हीं भी दो या अधिक "सभ्यताओं" के बीच मतभेद होना यद्यपि संभव है, लेकिन क्या सभ्यताओं के परस्पर बीच "संघर्ष" होना भी संभव है! स्पष्ट है कि संघर्ष तो दो "असभ्यताओं" के बीच ही, या केवल असभ्यता का ही किसी और सभ्यता या असभ्यता से हो सकता है।
तथाकथित विद्वान और स्थापित भाषाशास्त्री वैसे तो इसे "भारोपीय" / Indo-European कहकर इस तथ्य से ध्यान भटका देते हैं कि लिपि-साम्य (figuratively) और ध्वनि-साम्य (phonetically), दोनों ही दृष्टियों से प्रत्येक ही भाषा का प्रादुर्भाव स्वतंत्र रूप से होता है और कोई भी भाषा किसी दूसरी से कम या अधिक प्राचीन हो सकती है और अन्तर्दृष्टि सभी भाषाएँ भिन्न भिन्न स्थानों पर समय समय पर उत्पन्न होकर विकसित और समृद्ध भी अवश्य होती हैं, फिर भी मनुष्यों के द्वारा प्रयोग की जानेवाली किसी भी भाषा का मूल उद्गम तो ध्वनि या मनुष्य द्वारा बोली जानेवाली वाणी ही है, न कि कोई स्वतंत्र भाषा। लिपि का आविष्कार तो बहुत बाद में होता है। मूलतः तो प्रत्येक ही भाषा प्राकृत ही होती है जिसे संस्कारित करने के बाद ही उसका विशिष्ट रूप अस्तित्व में आता है और प्रचलित होता है।
इस प्रकार लिपि का स्वरूप उसके आविष्कार करनेवाले के द्वारा ही तय किया जाता है जो मूलतः कूटलिपि के रूप में coded-script होता है। स्पष्ट है कि कूटलिपि के निर्माण का आधार मनुष्य की वाणी से उत्पन्न ध्वनि ही होता है। इसलिए ध्वनि के स्वरूप के ज्ञान के आधार पर ही लिपि में विभिन्न ध्वनियों के द्योतक चिह्न-विशेष तय करना ही लिखित रूप में भाषा के प्रयोग का आधार हो सकता है।
जिन मनुष्यों ने इस विषय में गहरा अनुसंधान किया और जिन्हें ऋषि कहा जाता है, उन्होंने पाया कि मनुष्य द्वारा बोली जानेवाली वाणी में प्रयुक्त भिन्न भिन्न ध्वनियाँ मुख में स्थित भिन्न भिन्न अंगों से उत्पन्न होती हैं इस प्रकार से उन्होंने ध्वनिशास्त्र का आविष्कार किया, न कि उसका "निर्माण" किया।
यह जानना महत्वपूर्ण है कि इस अनुसंधान के बाद ही उन्होंने इसी आधार पर क्रमशः "कुचुटुतुपु" --
क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स और ह,
आदि मूल ध्वनियों की पहचान / identity तय की। इन सभी को व्यञ्जन consonants कहा जाता है।
वि + अञ्जनं -- इति व्यञ्जनम् । इन सभी ध्वनियों का उच्चारण अवश्य ही किसी न किसी दूसरी ध्वनि की सहायता से ही हो पाता है। उन सभी दूसरी ध्वनियों को "स्वर" / vowel कहा जाता है। इस प्रकार मोटे रूप में ध्वनि-शास्त्र के निर्माण के पश्चात् जनसामान्य के द्वारा प्रयुक्त की जानेवाली भाषा की उत्पत्ति हुई। स्वरों तथा व्यञ्जनों के मेल से शब्द (word) बनाए गए और ऐसे ही छोटे बड़े शब्दों को वस्तुवाचक, वस्तु को इंगित करने वाले साधन की तरह मान्य कर लिया गया। इस प्रकार से उनके संभावित "अर्थ" तय किए गए, जबकि उनके मूल अर्थ (वस्तु) तो नित्य सत्य और सदा ही वर्तमान होते हैं। ऋषियों के मन में फिर एक प्रश्न यह उत्पन्न हुआ होगा कि क्या विभिन्न ध्वनियाँ अर्थात् स्वर, व्यञ्जन आदि एवं उनसे बने विभिन्न शब्दों के अर्थ के बीच कोई सुनिश्चित नियम हो सकता है? चूँकि मनुष्यों द्वारा बोली जानेवाली विभिन्न भाषाओं में एक ही वस्तु के लिए भिन्न भिन्न शब्द प्रयुक्त होते हैं किन्तु उनमें विद्यमान तात्पर्य या भाव एक ही होता है, इसलिए ध्वनियाँ / शब्द और भावों का उद्गम जिस स्रोत से होता है, वह सभी मनुष्यों में संभवतः एक ही होना चाहिए। सरलता से इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि भाव / भावना की भाषा को तो पशु पक्षी आदि भी समझ लिया करते हैं। और यह भी स्पष्ट है कि वे मनुष्यों जैसी कोई विकसित भाषा तो शायद ही बोलते हों। ऋषियों ने और अनुसंधान कर इस तथ्य का आविष्कार किया कि सभी प्राणियों और मनुष्य की वाणी में जिस साधन / ध्वनि-तंत्र (vocal system) का प्रयोग किया जाता है वह तंत्रिका जाल (nervous system) से बंधा और परिचालित होता है। तात्पर्य यह कि प्रत्येक ही ध्वनि में प्राण तथा चेतना का तत्व अपरिहार्य रूप से विद्यमान होता ही है। वेद इसे ही देवता तत्व कहते हैं। प्राण तो ऊर्जा energy है जबकि उससे जुड़ी चेतनता consciousness मनुष्य या इतर प्राणियों में विद्यमान वह बोध है जिसे संवेदन या चेतना भी कहा जा सकता है।
इसी आधारभूत सत्य का साक्षात्कार हो जाने के बाद उन ऋषियों ने मंत्रों के रहस्य का उद्घाटन किया। सभी मंत्र भी विभिन्न वर्णों का विशिष्ट संयोजन ही होता है जिससे किसी विशिष्ट भाव / भावना / देवता का आवाहन किया जा सकता है। यह अभी भी विचारणीय है कि देवताओं ने ऋषियों को मंत्रों का ज्ञान दिया या मंत्रों का ज्ञान होने से ऋषियों को देवताओं के अस्तित्व की अनुभूति हुई।
इसलिए संस्कृत भाषा को स्वरूपतः दो रूपों में समझा जा सकता है - पहला तो है मंत्र-शास्त्र, दूसरा भाषा की तरह व्यवहार में प्रयुक्त किया जानेवाला एक साधन। दोनों ही प्रकार से संस्कृत अवश्य ही ऐसी एक भाषा है जिसका स्वरूप समय के साथ परिवर्तित नहीं होता। इस तुलना से यह भी पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि दूसरी सभी भाषाएँ समय समय पर उत्पन्न, प्रचलित, विकसित, समृद्ध होकर सतत परिवर्तित होती रहती हैं इसलिए वे कितनी प्राचीन या नयी हैं इस विषय तय रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, जबकि संस्कृत आधारभूत रूप से नित्य सुदृढ अविनाशी और अविकारी भाषा है।
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प्रश्न Question 44
What is the Intelligence,
What is the Intellect,
What is the Talent,
What is the Intuition,
And finally, What is the Insight?
Again,
What is the Renunciation,
And lastly,
What is the Determination ?
प्रज्ञा क्या है, बुद्धि क्या है, प्रतिभा क्या है, अन्तर्ज्ञान क्या है और अन्तर्दृष्टि / विवेक क्या है?
और संन्यास क्या है, तथा संकल्प क्या है?
उत्तर / Answer :
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार प्रत्येक प्राणी देहधारी में प्रकृति के तीन गुणों सत्, रजस् और तमस् के विशिष्ट संयोग के अनुसार जन्मजात श्रद्धा अवश्य ही होती है और इस पुरुष (देहधारी चेतन प्राणी) में विद्यमान यही श्रद्धा बुद्धि में प्रकाशित होकर उसकी बुद्धि को प्रभावित करती है।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १७
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी तां चेति शृणु।।१।।
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।२।।
(स्वरचितं श्लोकत्रयम् --
श्रद्धानुरूपाणि साधनानि तथा मतिः तथा बुद्धिः।।
एवमेव हि ज्ञातव्यं गुणेषु गुणाः वर्तन्ते।।१।।
सिद्धिः साधनानुरूपा हि यथा मतिः तथा गतिः।।
यथा बुद्धिस्तथा बद्धिः यथा कर्म तथा फलम्।।२।।
संन्यासः च त्यागः स्यात् सर्वसंकल्प संन्यासी।।
निष्काम कर्म कर्तव्यमिति च स्यात्तन्निश्चयः।।३।। ... )
Success according to the means, Consequence, according to thought, Intellect follows the knowledge / memory acquired and accordingly the result of the action.
However, as pointed out in the above 5 verses, the intellect has the faith that is its foundation. In the above five verses the word श्रद्धा is the appropriate sense of 'faith'. The word 'faith' is from the Arabic 'fidA' or the Latin word 'fidelity' implies natural and spontaneous belief. This belief is inherent as in the natural tendencies acquired from the birth of one's own. This is the very natural and functional characteristic of every one, of every individual consciousness.
Accordingly even an uneducated or a learned man too follows this faith or this natural inborn instinct without any doubt or questioning its truth.
For example a scientist has no doubt or suspicion that the existence is governed by certain Laws that are firmly in the foundation and takes them as the only truth and ever-abiding Reality. Though later on he or she formulates the same in certain words which then become a concept.
The mere Intellectual believes that the concepts are the Final, Ultimate Reality.
What could be said about those average ordinary uneducated layman who are driven by only the verbal beliefs which they might be practicing only because of the tradition and social conditioning?
There is yet another the X Factor, The Unknown.
In human perception it is what is said The Time and The Space.
The Indian Astrology that is based upon Astronomy treats this Reality aspect of Time and Space figuratively as the node and the anti-node of Time and Space or the Dragon's head and tail or the rahu and ketu respectively.
This is how though one single unit, the two are the head and the trunk of the Dragon.
Common sense also tells that these two are but aspects of one whole Reality.
The two exists together always every where and at all times. The place had a time associated with it and all time is somewhere whuch we call a place.
As the two pervade each other, and all, every individual too is in their domain.
That is how individual life of a person is subject to the influence of the two, - either as the two heavenly points in the Zodiac or in the form of the tamoguNa / तमोगुण and the rajoguNa / रजोगुण .
Accordingly everyone behaves under the influence of these two heavenly bodies which are kind of the static and the dynamic aspects of the body-mind-complex or the person. Inherently one but the head keeps thinking only while the trunk can move on only without a direction whatsoever.
Still the combined effect results in the talent and intuition of the individual.
Though occasionally sometimes arises in the form of the insight as well.
That is the basis of success and failure.
सिद्धि / सफलता साधनों के अनुसार होती है, परिणाम वैचारिक / बौद्धिक सिद्धान्त के अनुरूप होता है, बुद्धि जानकारी (सूचना / Information) तक ही सीमित होती है ओर उस सीमा के भीतर ही बद्ध / बंधी हुई कार्य करती है। जबकि फल सदैव कर्म के अनुरूप होता है।
तीन प्रकार के तीन गुणों से युक्त श्रद्धा / प्रकृति ही वह सीमा है जिसमें मनुष्य की बुद्धि बद्ध होती है और सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर ही उसे यह स्पष्ट हो सकता है।
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