May 29, 2025

T. F. O. C. D.

Touch -Feet

Obsessive Compulsive Disorder.

I didn't know that I didn't know!

From the childhood, I was always told to touch the feet of elders like Parents the guests and the Guru who would come to my home. I also had never tried to see its significance any. However, sometimes I would obey this order or the suggestion given to me and sometimes I ignored too though unintentionall. I couldn't see that my such behavior might have annoyed my parents and those elders who felt offended by my this attitude and possibly might have thought about me that I was kind of an arrogant, disobedient and a impolite boy.

Sometimes I would touch their feet but I  never thought if it was just a custom  or there was some deeper significance in doing this. In this way for so many years, even before 2 days ago I never realized - "I didn't know  that  I didn't Know!"

I'm not unnecessarily complicating the matter but would like to explain that a couple of days ago a stranger insisted for touching my feet. I politely told him that I don't like this practice of touching feet of any true or so-called spiritual great or any such saintly, religious person. Still he didn't even budge a bit.

Then I told him -

See, I don't think I am such a respectable, such a great person who deserves to be given this honor.

He didn't care my words, and said -

You can't stop me from letting me touch your feet!

I was quite disgusted.

Aghast and in a quandary.

The next day I told someone who could help me, listen to me and let this matter be solved.

But so far, I have been trying to avoid him all the time.

But really I was terribly frightened.

I was also furiously angered.

I could see, deeply feel, how this practice is being kept, maintained, strengthened and glorified, by the so-called spiritual and / or religious people, and how it has become such a powerful tool in their hands to exploit emotionally the meek and the gullible people in this way and for so long.

But now I have no hesitatation any and I frankly tell to all those who want to keep in touch with me that I'm totally against this practice. If someone wants to see me, to keep in touch with me, he or she  can just say "hello!", maybe with folded hands, and I too will reciprocate in the same manner with saying "Namaste" or "PraNAma".

But so far, I couldn't have been able to reconcile with and understand this idea!

I can happily pay obeisance to an image of some God in a temple and prostrate at His feet too, but not before any human who I'm not sure of if he really deserves this treatment!

(The ignorance of ) - 

Not knowing of 

The Not knowing! 

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May 26, 2025

26-05-2025 / POETRY

व्यथा-कथा, कथा-व्यथा!

कुछ भी!! 

कथा कह कह कर थका वाचक, 

तथा कह कह कर कथावाचक!

पुनः पुनः मांग कर यथा याचक,

व्यथा सह सह कर तथा याचक!

दौड़ दौड़ कर थका यथा धावक,

हाँफता हुआ रुका यथा धावक! 

कथा कह कह कर यथा श्रावक, 

अग्नि सा जलता रहा यथा पावक!

तान भरता रहा यूँ यथा गायक,

अभिनय करता रहा यथा नायक!

सतत सुख देता रहा सुखदायक,

सतत दुःख देता रहा दुःखदायक!

जिसने जो चाहा, उसे वो मिल गया,

जो कभी भी बन पाया इस लायक! 

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May 22, 2025

THE VISA

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।

हृदय राखि कोसलपुर राजा।।

प्रश्न उत्तम है। कार्य शुभ है, सफलता प्राप्त होगी। 

यह चौपाई गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस में उनकी एक रचना "रामशलाका प्रश्नावलि" के साथ पाई जाती है। प्रसंग हनुमानजी के द्वारा माता सीता की खोज करने के लिए लंका में प्रवेश करने के संबंध में है।

अंग्रेजी भाषा के ऐसे हजारों शब्द हैं जो मूलतः संस्कृत भाषा के किसी शब्द का अपभ्रंश हैं। हमें यह नहीं सिद्ध करना है कि विभिन्न भाषाएँ संस्कृत से ही निकली हैं या नहीं बल्कि यहाँ पर केवल संस्कृत और अंग्रेजी भाषा के बीच किसी संभावित साम्य के आधार पर कोई निष्कर्ष प्राप्त करना ही हमारा प्रमुख ध्येय है।

ऐसा ही एक शब्द है  VISA

यह शब्द संस्कृत की विश् - विशति धातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है प्रवेश करना। एक देश से दूसरे देश में अल्पकाल या कुछ काल के लिए प्रवास करने के लिए प्रायः दो दस्तावेज चाहिए होते हैं - एक होता है - पासपोर्ट -

जिसकी विवेचना और व्युत्पत्ति भी संस्कृत मूल शब्द से की जा सकती है, किन्तु यहाँ अनावश्यक प्रतीत होने से ऐसा नहीं किया जा रहा है, क्योंकि ऐसा करना विषय से भटकना है।

पासपोर्ट जो उस देश की सरकार से प्राप्त दिया जाता है, जहाँ का कोई नागरिक किसी कार्य के लिए विदेश जाना चाहता है। दूसरा उस दूसरे देश से प्राप्त करना होता है, जहाँ यह व्यक्ति किसी कार्य के लिए जाना चाहता है, इसे "वीसा" कहते हैं।

ऐसा ही एक शब्द हैं - funeral, जो अरबी के 'दफ़न' का अपभ्रंश है। "दफ़न" शब्द स्वयं ही संस्कृत भाषा के "दहन" का अपभ्रंश है। सनातन वैदिक ज्ञान की परंपरा के अनुसार जब तक पञ्चतत्वों से बने इस शरीर का विधिपूर्वक दहन नहीं कर दिया जाता है, तब तक इस शरीर को "अपना" समझनेवाले "जीव" की अंतिम और पूर्ण मुक्ति संभव नहीं होती है, क्योंकि पृथ्वी, वायु और जल तो जीव की मृत्यु होते ही अपने अपने महाभूतों में मिल जाते हैं, आकाश कहीं आता जाता नहीं, इसलिए उसकी मुक्ति होने का प्रश्न ही नहीं है, शेष बचा अग्नि, जो पञ्चप्राणों की शक्ति के रूप में जीव-चेतना के साथ बँधा होता है। सनातन धर्म, वैश्विक होने से यह सर्वत्र ही सदा से प्रचलित रहा है। जिन स्थानों पर जल की कमी या अत्यधिक शीत होने के कारण अग्नि प्रज्वलित करना कठिन होता है, जहाँ पर शव का दहन परिस्थितियों के कारण संभव नहीं हो पाता है, वहाँ दाह-संस्कार न कर उसे भूमि में समाधि (bury)  दे दी जाती है, और तब प्रकृति की अपनी प्रक्रिया के अनुसार समय के साथ अग्नि भी धीरे धीरे अग्नि महाभूत में मिल जाता है और जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। अंग्रेजी भाषा का शब्द bury भी मूलतः संस्कृत भाषा के पृ - पूर्ति / पूरयति का अपभ्रंश है। तात्पर्य यह है कि "funeral",  जो  "दफ़न" का, और "दफ़न", जो कि "दहन" का पर्याय है, तात्कालिक रूप से अंत्येष्टि का औपचारिक विधान है, ताकि प्राकृतिक प्रक्रिया के माध्यम से, या विधि-विधान से बाद में "अस्थियों" को किसी नदी या जल के किसी अन्य प्राकृतिक स्रोत में प्रवाहित कर दिया जा सके। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि तथाकथित "महाप्रलय" के समय महा-जलप्लावन के समय सभी कुछ स्वयं ही जल में विलीन हो जाता है।

मृत्यु, काम और मुमुक्षा

जिन दिनों भारत में सरकार द्वारा "आपात्काल" लगाया गया था, तत्कालीन साप्ताहिक पत्रिका "दिनमान" या "रविवार" में एक लेख प्रकाशित हुआ था जो उस समय के आनन्द-मार्ग नामक संगठन के संबंध में था। उस लेख को लिखने और प्रकाशित करने के पीछे किसके या कौन से प्रयोजन थे इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है, किन्तु उसमें जिस प्रकार से मनुष्य और प्राणिमात्र में भी विद्यमान "मृत्यु-कामना" / Death-wish  को आधार बनाया गया यह जानना रोचक है।

उपरोक्त रेखांकित तीन शब्द ईश्वरीय संकल्पना के प्रकृति में अभिव्यक्त प्रकार मात्र हैं। 

स अकामयत

ईश्वर के रूप में जो स्रष्टा है उसमें ही कामना उत्पन्न हुई - सृजै  कि (मैं) सृष्टि करूँ।

ऐतरेय उपनिषद् में इसका अद्भुत् विवरण है।

यह कामना ही "जीव" के रूप में अभिव्यक्त हुई और जब तक यह अपूर्ण रहती है, "जीव" उस कामना को पूर्ण करने का प्रयास करता ही रहता है। इसी कामना से बाध्य या प्रेरित होकर वह प्राकृतिक रीति से प्रजनन के लिए प्रवृत्त होता है और इसीलिए इस कार्य में संलग्न होने पर उसे क्षण भर के लिए मुक्ति की प्रतीति होती है। स्खलन (Sexual Discharge) के समय यही तो होता है। इसलिए प्रजनन की क्रिया में भी क्षणिक मुक्ति तो (प्रतीत) होती ही है और यही कुंठित और विकृत हो जाने पर समलैंगिकता का रूप भी ले सकती है। और यही विकृत, वीभत्स और कुत्सित होकर एक दुष्चक्र का रूप भी ले लेती है, किन्तु वह अवश्य ही अंतहीन दुर्भाग्य और चरम विनाश का ही रास्ता होता है। क्योंकि फिर यह आगे चलकर संतति में भी गुणसूत्रीय उत्परिवर्तन / (Genetic Mutation)  का कारण बन जाता है। अभी शायद इसे "अनुमान" कहा जा सकता है, किन्तु आज के समय के वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक शोधों की मर्यादा यहीं तक है। मनुष्य में यही मुक्ति-कामना, जो कि मृत्यु-भय और मृत्यु के आकर्षण की रोमांचकता के चरम तक पहुँच जाती है वस्तुतः तो मुमुक्षा के ही भिन्न भिन्न प्रकार मात्र होते हैं, यह सोचना गलत नहीं हो सकता।

***




May 19, 2025

Transit of Planets.

पृथ्वीधराचार्य

वर्ष 1970 में मैंने देवास के के पी कॉलेज में बी.एस-सी. प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया। बाद में मुझे यह पता चला कि यह वही "पृथ्वीधराचार्य" हैं जो कि इन्दौर से प्रकाशित होनेवाले "नई दुनिया" नामक अखबार में दैनिक भविष्य का कॉलम लिखते हैं। मुझे नहीं लगता था कि क्या एक ही साथ बारह राशियों के लोगों के भविष्य के बारे में जो कुछ लिखा जाता है, उसे कितना सच माना जाए। बस कौतूहलवश कभी कभी देख लेता था। 1973 तक वहाँ रहने के बाद मैं उज्जैन आ गया जहाँ बी एस-सी अंतिम वर्ष की परीक्षा दी। उसके बाद नौकरी की तलाश करने लगा जिसका कोई मतलब नहीं था। फिर भी ज्योतिष शास्त्र के बारे में मेरा कौतूहल बना रहा। बी एस-सी के अंतिम वर्ष में मुझे विक्रम विश्वविद्यालय के माधव विज्ञान महाविद्यालय पढ़ते हुए विश्वविद्यालय के जीवाजीराव पुस्तकालय से जुड़ने का सौभाग्य मिला जहाँ से मुझे दो पुस्तकें मिल सकती थीं। उन दिनों कोई विशेष रोक टोक नहीं थी, और मैं वहाँ से बहुत सी वे मनचाही पुस्तकें भी ले लिया करता था जिनका मेरे कॉलेज के मेरे पाठ्यक्रम से कोई संबंध नहीं होता था। पुस्तकालय में वाचनालय भी था जहाँ कुछ पत्र पत्रिकाएँ भी पढ़ी जा सकती थीं। ऐसी ही एक पत्रिका थी -

Astrological Magazine  या  A. M.,

जो बैंगलोर से प्रकाशित होती थी और जिसके संपादक और प्रकाशक थे -

Bangalore Venkata Ramana -

(B V Ramana) नामक व्यक्ति।

देवास जैसी छोटी जगह की तुलना में उज्जैन एक काफी बड़ा शहर है। एक सिरे पर मैं वहाँ इंजीनियरिंग कॉलेज के परिसर में रहता था, तो दूसरे सिरे पर है छत्री चौक या गोपाल मन्दिर। गोपाल मन्दिर के एक ओर पटनी बाजार से होकर महाकालेश्वर मन्दिर जाने का मार्ग है, तो दूसरी तरफ ढाबा रोड, कालिदास मॉन्टेसरी, कैलाश टाकीज़ आदि। उस रोड पर एक दुकान धार्मिक किताबों की भी थी जहाँ से मैंने स्वामी विवेकानन्द के पुस्तक "राजयोग" खरीदी थी। तब शायद उसका मूल्य ₹2/- था।

बाद में देवास गेट की दुकान से नारायणदत्त श्रीमाली की कुछ पुस्तकें "दशफल दर्पण", "भारतीय अंक शास्त्र" और "ज्योतिष योग" आदि खरीदी थीं।

इस सब अध्ययन के बाद यह प्रश्न मेरे मन में आया कि इ सबका सार क्या है, उसे कैसे सीखा और प्रयोग में लाया जाए?

A. M. से मुझे बहुत सहायता मिली और यह समझ में आया कि पहले तो विंशोत्तरी, अष्टोत्तरी और योगिनी इन तीन मुख्य दशाओं का निर्धारण करना चाहिए, बाद में जातक की जन्म पत्रिका में दिखलाई देनेवाले विभिन्न महत्वपूर्ण ज्योतिषीय योगों को देखना होगा और इसके बाद उन योगों के फलित होने के समय का निर्धारण, उन सभी ग्रहों की महादशा, अन्तर्दशा और प्रत्यन्तरदशा के अनुसार तय करना होगा। इसके अतिरिक्त प्रश्न कुंडली का अध्ययन भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्रश्न कुंडली के अध्ययन से भी बहुत कुछ सीखा और जाना जा सकता है। उन्हीं दिनों मालीपुरा स्थित पुस्तकों की एक दुकान से मैंने "वर्षफल दर्पण" नामक बहुत अच्छी किताब खरीदी थी, जिसमें "मुन्था" की अवधारणा का उल्लेख पहली बार मुझे दिखलाई पड़ा। बहुत बाद में मुझे पता चला कि यह अवधारणा अरबी / फारसी ज्योतिष-शास्त्र की देन है, क्योंकि चन्द्र के 12 महीनों के 12 राशियों के भ्रमण पर आधारित अरबी / फारसी कैलेन्डर में उस "अधिक मास" की गणना उस तरह से नहीं की जाती, जैसी कि वैदिक भारतीय पञ्चाङ्ग में की जाती है। और इसलिए "माह" संस्कृत "मास" का अपभ्रंश है, जो चन्द्रमा का ही द्योतक है। शायद इसी आधार पर "मुन्था" (अंग्रेजी - month) की परिकल्पना या अवधारणा प्रस्तुत की गई, और तदनुसार इस आधार पर "वर्षफल" को समायोजित किया गया। यह सब मेरा व्यक्तिगत विचार है, हो सकता है कि यह सही हो या न भी हो। यह सही है भी या नहीं, इस बारे में मेरा कोई दावा नहीं है।

व्यक्ति के जीवन के बारे में इन दो या तीन बिन्दुओं के आधार पर कोई अनुमान किया जा सकता है, विभिन्न घटनाओं के समय का भी, वहीं इससे पहले की पोस्ट में जैसा मैंने इंगित किया, विभिन्न ग्रहों के राशिचक्र में होने वाले भ्रमण के समय-अन्तराल के आधार पर, और उनके राशि परिवर्तन के आधार पर भी इन घटनाओं का महत्व तय किया जा सकता है। सूर्य, बुध और शुक्र तीव्रगामी ग्रह हैं जो कि पृथ्वी की कक्षा के भीतर रहते हुए लगभग एक माह के समय में एक से दूसरी राशि में चले जाते हैं, चन्द्रमा लगभग 27 दिनों में पूरे राशिचक्र का परिभ्रमण कर लेता है और नक्षत्रों में उसके अपने चलने में व्यतीत किए गए समय के अनुसार चान्द्र मास की तीस तिथियाँ, सौर मास की तुलना में वृद्धि या ह्रास को प्राप्त होती हैं। दूसरी ओर, पृथ्वी की कक्षा से बाहर के ग्रह जैसे मंगल, बृहस्पति और शनि जो पृथ्वी की कक्षा से बाहर रहकर राशिचक्र में भ्रमण करते हैं। स्पष्ट है कि जो ग्रह सूर्य से जितना कम या अधिक दूर होगा उसके द्वारा राशिचक्र में परिभ्रमण करने के लिए लगनेवाला समय उसी अनुपात में कम या अधिक होगा। बृहस्पति लगभग बारह वर्षों में और शनि तीस वर्षों में राशिचक्र का एक पूरा परिभ्रमण करते हैं। और हमारे सौर मण्डल से सर्वाधिक दूर के दो छायाग्रह राहु (तथा केतु) 18 वर्ष के समय में यह पूरा परिभ्रमण करते हैं। और इतना ही नहीं वे सदैव वक्री रहते हैं अर्थात् विलोम गति से चलते हैं जिसे अंग्रेजी में Retrograde  कहते हैं। और इसीलिए इन सभी ग्रहों के प्रभाव भी भिन्न भिन्न और विलक्षण तथा विचित्र होते हैं। वैश्विक प्रभाव एक अलग तरह के, स्थानों की और समुदायों तथा मनुष्य विशेष के अनुसार भी भिन्न भिन्न होते हैं। यहाँ तक कि किसी स्थान विशेष के मौसम के बारे में भी इस अध्ययन का उपयोग हो सकता है।

(Meteorite / Astrological Meteorology)

इसी आधार पर मैंने अपना अध्ययन किया और अनुभव किया कि ज्योतिष शास्त्र घटनाओं का पूर्वानुमान करने और भविष्य का आकलन करने के लिए एक अच्छा और उपयोगी साधन (instrument) अवश्य हो सकता है, किन्तु इसके लिए लगन से उचित और पर्याप्त श्रम किया जाना भी अपेक्षित है। धैर्यपूर्वक श्रम करने पर भविष्य के बारे में अवश्य बहुत कुछ सुनिश्चित कहा और जाना जा सकता है।

***



Someone There!

कोई कोई!

कविता / Poetry 

نظم

--

कोई तिनका, कोई चारा,

कोई मछली, मछुआरा कोई,

कोई नदिया, कोई तट पर,

बैठा हुआ, देखे धारा!

कोई खेता नाव, कोई,

उस पार उतरनेवाला,

कोई अनाड़ी डूब जाता,

मझधार में बहनेवाला!

कोई भँवर, कोई लहर, 

कोई पानी, कोई नहर,

कोई नदिया, कोई तट पर,

बैठा हुआ देखे धारा!

शाम कोई, सुबह कोई, 

धूप कोई,  छाँव कोई, 

खेत या खलिहान कोई, 

बंजर कोई, मैदान कोई, 

कोई बेईमान, ईमान कोई, 

कोई दानिश, नादान कोई! 

कोई सुखी, आराम कोई, 

बेचैन कोई, चैन कोई!

रंग कोई, रिवाज कोई, 

कोई मौन आवाज कोई!

साज कोई अंदाज कोई,

कोई अंधेरा, रौशनी कोई!

इंतिहा कोई, आगाज कोई!

***

آغاز

انتہا,

دانش

نظم

--


May 18, 2025

I just don't know!

कितना सत्य है ज्योतिषीय आकलन!

केवल उत्सुकतावश ज्योतिष-शास्त्र का अध्ययन करने के प्रति कभी मेरी रुचि जागृत हुई थी। यह वह समय था जब मैंने म. प्र. बोर्ड की ग्यारहवीं की परीक्षा दी थी और देवसर से भागकर देवास आ गया था। 1970 के अप्रैल माह का कोई दिन था वह।

नानाजी छोटी पाती के आनंदपुरा मोहल्ले में एक मन्दिर में रहते और वहीं पूजा पाठ और पुरोहिती से आजीविका चलाते थे। नानीजी बहुत पहले, शायद मेरे जन्म से भी पहले गुजर चुकी थीं। नानाजी के छोटे भाई और उनका परिवार भी वहीं रहता था। मंदिर तल-मंजिल पर स्थित था और सामने के बड़े फाटकनुमा द्वार से दाएँ बाएँ एक एक सीढ़ी ऊपरी मंजिल पर जाती थी। उन्हीं गर्मियों में वहाँ दोपहर भर "पृथ्वीधराचार्य" की ज्योतिष पर लिखी एक किताब पढ़ता रहता था। और तब से ही सैद्धान्तिक ज्योतिष के बारे में कुछ जानकारी मिली। वहीं हस्तरेखा पर लिखी एक किताब भी मिली और उसके भी पन्ने यूँ ही पलटता रहता था। कुछ बुनियादी सिद्धान्तों का पता वहीं से चलने लगा। उदाहरण के लिए, हमारी पृथ्वी भी वैसा ही एक ग्रह / आकाशीय पिण्ड है जैसे कि ज्योतिष शास्त्र में सूर्य, चन्द्र, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु (या बृहस्पति), और शनि हैं।

केवल दृश्य ज्योतिष में सापेक्ष दृष्टि से, दृष्टा नित्य चेतन और सभी दृश्य पदार्थ या पिण्ड जड कहे जाते हैं। जिस चेतना में चेतन और जड साथ-साथ व्यक्त और अव्यक्त होते हैं वह आधारभूत चेतना उन दोनों से विलक्षण है,  जिसे उसके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं जान सकता है। क्योंकि वही एकमेव अद्वितीय सत्य है।

दृश्य ज्योतिष में यही सूर्य है और सभी अन्य छोटे-बड़े पिण्ड इसके ही अंश हैं।

वाल्मीकि रामायण में रघुकल में उत्पन्न हुए राजा त्रिशंकु की कथा है जो सशरीर स्वर्ग अर्थात् देवताओं के लोक में जाना चाहते थे। उनके गुरु और पुरोहित ऋषि विश्वामित्र ने उनकी इस इच्छा को वैदिक ज्ञान और यज्ञ के माध्यम से पूर्ण करने की चेष्टा की। इस प्रकार जब वे सशरीर ही स्वर्गारोहण कर रहे थे तो इन्द्र कुपित हो उठे क्योंकि यह विधि के विधान का उल्लंघन था। किन्तु उन देवताओं का यह सामर्थ्य नहीं था कि ऋषि विश्वामित्र के तपोबल और ज्ञान का सामना कर सकें और राजा त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग में प्रवेश करने से रोक सकें। तब वे ऋषि नारद के पास इस समस्या के समाधान के लिए पहुँचे। नारद ऋषि ने उन्हें इसका एक उपाय बतलाते हुए कहा कि देवलोक जिस तल पर स्थित है उससे तिर्यक् और कोणीय अन्तर पर राजा त्रिशंकु को अन्तरिक्ष में अधर में स्थान प्रदान किया जा सकता है। और तब से राजा त्रिशंकु अन्तरिक्ष में उस स्थिति में दिखाई देते हैं।

ध्रुव और सप्तर्षि की कथा भी हम जानते ही है। हमारे सामूहिक पापों के फलस्वरूप इस नाम का एक और भी ध्रुव (राठी) आजकल वायरल है यह भी हमें अच्छी तरह से पता है। यहाँ उसकी चर्चा करना समय का अव्यय ही होगा इसलिए वह फिर कभी। 

वाल्मीकि रामायण की इस कथा में यह तो स्पष्ट ही है कि पृथ्वी सहित सभी ग्रह एक ही तल (plane) में स्थित हैं - दूसरे शब्दों में -

पृथ्वी और पृथ्वी लोक एक समतल है। और यह भी,  कि अन्तरिक्ष की बड़ी बड़ी दूरियों की तुलना में इस समतल की मोटाई नगण्यप्राय है। और दुनिया गोल नहीं बल्कि चपटी है।

यहाँ इस विवाद के बारे में कुछ नहीं कहा जा रहा, यह बस याद आ गया।

इन ग्रहों का अन्तरिक्ष में विचरण जैसा पृथ्वी पर स्थित किसी दर्शक को दिखाई देता है उसमें उसे यही लगता है कि सूर्य प्रतिदिन सुबह उदित होता है और रात्रि होते ही अस्त हो जाता है। इसे दूसरे ढंग से यूँ भी कह सकते हैं कि जिस समय सूर्य उदित होता है उसे सुबह कहते हैं ओर जिस समय सूर्य अस्त होता है, उसे संध्या या शाम कहा जाता है -

यस्मिन् शम्यते / शाम्यते सूर्यो स शामः इत्यभिधीयते।।

इस प्रकार "काल" या समय की उत्पत्ति या उत्पत्ति होने की प्रतीति कल्पना है न कि कोई वास्तविकता है।

यस्मात् भूयते कालो न कस्मात् अकस्मात् वा।

स अक्षरो अव्ययोऽपि नित्यो यत्र चानुभूयते।।

शिव अथर्वशीर्ष में इसे इन शब्दों में कहा जाता है -

अक्षरात्सञ्जायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते।

इसलिए आभासी रूप से काल और स्थान दोनों ही सूर्य पर आश्रित जगत् है।

एक ही समतल में स्थित जो सात ग्रह सूर्य के चतुर्दिक् उसकी परिक्रमा करते दिखाई देते हैं, उनमें चन्द्र भी एक है जो राशिचक्र (Zodiac) में एक से दूसरी अगली राशि में प्रविष्ट होकर पूरे राशिचक्र में एक वृत्त में भ्रमण करता है। इन राशियों को बारह रूपों में चित्रित किया जाता है,  जिन्हें मेष, वृषभ आदि नाम दिए गए हैं। प्रत्येक राशि में सवा-दो नक्षत्र (constellations) होते हैं और प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। इस प्रकार से कुल सत्ताईस नक्षत्रों के बारह राशियों में एक सौ आठ बिन्दु होते हैं। और सभी नौ ग्रह मूलतः तो इस प्रकार पूरे राशिचक्र में भ्रमण करते हुए एक सौ आठ पड़ावों पर अनवरत चलते रहते हैं। अब आप इस रहस्य से अवगत हो गए होंगे कि  जप-माला में एक सौ आठ मनके क्यों होते हैं।

अब सवाल यह रह जाता है कि यदि सूर्य और चन्द्र को भी ग्रह मान लिया जाए तो ऐसे दृश्य ग्रह तो सात ही हैं। संपूर्ण राशिचक्र जिस गोलाकार (sphere) पर चित्रित है, आभासी पृष्ठभूमि के रूप में चित्रित उस गोलाकार (sphere) पर ही स्वयं पूरा देवलोक या नक्षत्रलोक ही किसी अक्ष पर घूम रहा है। यह भौतिक अक्ष है। इसकी तुलना में दो आकाशीय बिन्दु ऐसे भी हैं जो एक अक्ष पर अनंत दूरी पर स्थित हैं। ओर इन्हें क्रमशः राहु और केतु की नाम दिया गया है। एक सूर्य तो प्रकाशमंडित हमारा सूर्य या भानु है जबकि दूसरा एक और सूर्य है जिसे स्वरों से मंडित स्वरभानु कहा जाता है। स्वरभानु ही वह असुर है जो समुद्र मंथन के समय छिपकर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया था और सूर्य और चन्द्र ने मोहिनी का ध्यान जिसकी ओर आकर्षित किया था।

इसलिए यद्यपि मोहिनीरूप में विद्यमान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया था, किन्तु इससे पहले ही वह अमृत चख कर अमर हो चुका था। और अब भी वह ज्योतिषीय गणना के अनुसार सुनिश्चित समय पर सूर्य और चन्द्र को अपना ग्रास बनाने की असफल चेष्टा किया करता है। यह सब वैज्ञानिक तथ्य हैं।

1970 से मेरे ज्योतिष-शास्त्र के अपने अध्ययन में इसी निष्कर्ष पर मैं पहुँचा कि यह सब पूर्णतः विश्वसनीय और व्यावहारिक, वैज्ञानिक सत्य भी है।

इसे ही मैंने इस रूप में पुनः संसार की विविध घटनाओं से समायोजित (relate) करने पर पाया कि इस ज्ञान के आधार पर पूरे संसार के भावी का आकलन भी किया जा सकता है। इसे मेदिनी ज्योतिष भी कहते हैं जिसके आधार पर आजकल तमाम विद्वान संभावित भविष्य का पूर्वानुमान लगाते हैं।

उदाहरण के लिए राहु लगभग अठारह सौर वर्षों में सूर्य (या राशिचक्र) की एक परिक्रमा करता है। राहु की ऐसी तीन परिक्रमाओं में चौवन वर्ष व्यतीत होते हैं।

वर्ष 1971 के  चौवन वर्षों के बाद पुनः भारत पाक युद्ध हुआ और वही परिणाम होता हुआ दिखलाई दे रहा है जो कि उस समय हुआ था। अर्थात् पाकिस्तान के टुकड़े होना। इसी प्रकार शनि तथा गुरु के राशिचक्र में भ्रमण का समय क्रमशः तीस और बारह सौर वर्ष का होता है। ये सभी ग्रह पृथ्वी की कक्षा से बाहर भ्रमण करते हैं और इसी प्रकार मंगल भी है,  जबकि बुध और शुक्र पृथ्वी की कक्षा से भीतर भ्रमण करते हैं। और इनके साथ चन्द्र को भी रखा जा सकता है। इस पूरे घटनाक्रम की इस आधार पर कोई सुनिश्चित विवेचना की जा सकती है और भारत के इतिहास नामक रामायण और महाभारत जैसे प्रमुख ग्रन्थों में वर्णित उल्लेखों के परिप्रेक्ष्य में हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन का, राष्ट्रों और मानव सभ्यता के भविष्य का भी पूर्वानुमान किया जा सकता है।

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May 15, 2025

Though and However!

Forever! 

हर वक़्त की जरूरत!

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आजकल मौसम है बहुत खुशनुमा,

हालातो-मजहब नहीं, यूँ खूबसूरत!

हो सके अगर तो कोशिश कर देखिए!

सिर्फ बस खुद तक ही रहें महदूद, 

हाँ बहुत बड़ा देश है और दुनिया भी, 

जितना भी सोचो, उतना ही कम है, 

हर घड़ी बहुत सी नई नई फिक्रें हैं,

हर घड़ी नए रंजो-ग़मो-मातम हैं,

फिर भी कुदरत के नायाब तोहफ़े भी हैं,

क्या वो दिल के सुकूँ के लिए कम हैं!

आजकल मौसम है खुशनुमा लेकिन,

हालातो मंजर नहीं हैं यूँ खूबसूरत!

मजहबे हिज्ब है वह मजहबे मंजर 

कि जैसे कलेजे में घुसा हुआ खंजर,

हो सके अगर तो कोशिश कर देखिए 

कलेजे से ये खंजर निकाल फेंकिए!

आजकल मौसम है बदनुमा लेकिन,

हालातो-मंजर हैं बहुत बदसूरत!

हो सके तो खुद को बदल कर देखिए! 

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May 10, 2025

बस दो पंक्तियाँ

कौन किसके हाथों में खेल रहा है, और कौन इसके नतीजे झेल रहा है, वे अलग अलग हैं भी या नहीं! 

***

 

Where-from Comes The Thought?

"विचार" कहाँ से आता है?

सूर सूर तुलसी ससी उडुगन केसवदास।

अब के कवि खद्योत सम जहँ तहँ करैं प्रकास।।

हिन्दी कविता की परम्परा में यह उक्ति प्रसिद्ध है। सरल सा अर्थ यह कि सूरदास जी हिन्दी कविता के आकाश में सूर्य की तरह हैं, गोस्वामी तुलसीदास चन्द्रमा की तरह हैं, और शेष दूसरे सभी अब तक के कवि मानों आकाश में चमकते नक्षत्र और तारे आदि हैं, जबकि आज के समय के कवि जुगनुओं की तरह कविता की ज्योति यहाँ वहाँ फैलाते रहते हैं।

अध्यात्म के क्षेत्र में भी शायद यही कहा जा सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता मानों सूर्य है, रामायण, श्रीमद्भभागवत्  मानों चन्द्रमा हैं और दूसरे ग्रन्थ मानों विविध नक्षत्र और तारे हैं, जबकि आज के समय के आध्यात्मिक विद्वान मानों जुगनूओं की तरह यहाँ वहाँ, सर्वत्र आध्यात्मिक प्रकाश फैलाते हैं।

ऐसे ही एक आधुनिक आध्यात्मिक मार्गदर्शक विचारक का उल्लेख करते हुए उस व्यक्ति ने यह जिज्ञासा मुझसे की और यह भी कहा कि उस आधुनिक आध्यात्मिक मार्गदर्शक विचारक ने इस बारे में क्या कहा।

समस्त आध्यात्मिक ज्ञान मूलतः इन रूपों में हो सकता है -

1 परंपरा से प्राप्त किया गया मान्यता रूपी कामचलाऊ ज्ञान जो सामाजिक आचरण और व्यवहार की मर्यादा के रूप में होता है और अलग अलग स्थानों, रीति रिवाजों, संस्कृतियों के अनुसार तय किया जाता है। 

2 बौद्धिक और वैचारिक ज्ञान जो किसी न किसी प्रकार का कोई दार्शनिक सिद्धांत होता है और ऊहापोहपरक होता है, जिसमें एक विचार को छोड़कर दूसरे विचार को महत्व दिया जाता है। इस ऊहापोहपरक और अंतहीन क्रम को "चिन्तन-मनन" कहा जाता है। किन्तु फिर भी कभी कभी किसी अज्ञात कारण से जब यह "चिन्तन-मनन" सही दिशा में प्रवृत्त हो जाता है तो ध्यान इस प्रश्न और जिज्ञासा पर आ सकता है कि "नित्य" क्या है, और "अनित्य" क्या है? दूसरे शब्दों में तब जो अन्वेषण किया जाता है वह अस्तित्व के आभासी / परिवर्तनशील और उसके अपरिवर्तनशील आधारभूत स्वरूप के संबंध में होने लगता है। 

चित्त, मन, संसार, और चेतना

Intellect, Mind, World and

The Consciousness

चित्त विचार है, विचार की बुद्धि से प्रेरित गतिविधि मन है और संसार, इस गतिविधि में अनुभव होनेवाली वस्तु है।

इस पूरे घटनाक्रम की आधारभूत अचल अपरिवर्तनशील पृष्ठभूमि है चेतना।

(यहाँ पर -चित्त, मन, संसार और चेतना इन चारों शब्दों का तात्पर्य उनके लिए प्रयुक्त और ऊपर दिए गए अंग्रेजी शब्दों के पर्याय की तरह है।)

3 जिस आध्यात्मिक ज्ञान में "नित्य" और "अनित्य" के स्वरूप के बारे में अन्वेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि चेतना सबमें विद्यमान और उन सबसे विलक्षण, अछूती, और सबसे अप्रभावित रहनेवाली वास्तविकता है, और चित्त, मन और संसार आभास की तरह प्रतीत भर होते हैं और इसलिए समस्त आभासी अस्तित्व का निरसन कर दिया जाता है तो यह वृत्तिमात्र के "निरोध" की दशा होती है, जिसका उल्लेख पातञ्जल योगसूत्र के समाधिपाद में दूसरे सूत्र 

"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।"

में पाया जाता है।

जब यह अन्वेषण एकाग्रतापूर्वक किया जाता है तो इसे ही "निदिध्यासन" कहा जाता है।

यदि "नित्य" क्या है और "अनित्य" क्या है इस बारे में पर्याप्त अन्वेषण किया जाता है तो स्पष्ट हो जाता है कि समस्त आभासी / परिवर्तनशील और आधारभूत तथा अपरिवर्तनशील वास्तविकता का बोध "जिसे" होता है, वही सत्ता शुद्ध चिन्मात्र चेतना है जिसमें विषयमात्र का निरसन हो जाता है और इसलिए विषयमात्र के ही साथ उसके पूरक विषयी का भी विलय हो जाता है।

अनुभव और अनुभवकर्ता युगपत्, साथ साथ ही प्रकट और विलीन होते हैं। किन्तु स्मृति के द्वारा आरोपित किए जानेवाले सातत्य के फलस्वरूप ही, और उसी एकमात्र कारण से "अनुभव" के "अनित्य" किन्तु "अनुभवकर्ता" के "नित्य" होने का भ्रम पैदा होता है।

और इसीलिए समस्त अनुभवपरक ज्ञान भी एक तरह का "आध्यात्मिक" ज्ञान हो सकता है, जिसमें "अनुभव" के क्रम पर आधारित "अनुभवकर्ता" के रूप में भूल से, अपने आपको "नित्य" मान लिया जाता है।

इसी पृष्ठभूमि में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ के प्रथम कुछ श्लोक उल्लेखनीय हैं

श्रीभगवानुवाच 

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। 

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एव अयं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। 

भक्तोऽसि सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच -

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच -

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। 

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।६।।

4 आधारभूत अधिष्ठान के रूप में यह अपरिवर्तनशील आत्मा ही यह शुद्ध चेतना है। और यद्यपि "व्यक्ति" के अनेक जन्म होते हैं और साक्षीमात्र की तरह से आत्मा के भी ऐसे ही असंख्य जन्म होते हैं ऐसा कह सकते हैं, किन्तु इन सभी जन्मों को साक्षी ही जानता है न कि "व्यक्ति"।

इस प्रकार का ज्ञान भी आध्यात्मिक ज्ञान ही है और सर्वाधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय भी है।

किन्तु अब हम अपने उस प्रारंभिक प्रश्न पर लौटें -

"विचार कहाँ से आता है?"

श्रीमद्भगवद्गीता में इस जिज्ञासा का समाधान निम्न रूप में प्राप्त होता है -

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। 

सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोपजायते।। 

क्रोधात्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

पुरुष ही "व्यक्ति" है जिसके अनेक जन्म होते हैं जिनमें व्यतीत समय में वह असंख्य अनुभवों का भोग करता है। इस प्रकार से एक काल्पनिक "अनुभवकर्ता" क्षण क्षण ही अस्तित्व में आता और विलीन होता रहता है और उसे ही चित्त में अपनी आत्मा की पहचान की तरह सत्य मान लिया जाता है।  

उस पुरुष में विद्यमान चेतना / प्रकृति ही वह मूल प्रकृति / स्वभाव है, जिसमें पुरुष का ध्यान किसी विषय की ओर आकर्षित होता है और वह उस विषय से लिप्त हो जाता है। इसे ही पुरुष और प्रकृति का संयोग कहते हैं। किन्तु उत्तम पुरुष कभी इस प्रकार से किसी विषय से संलिप्त नहीं होता और प्रकृति ही उसके सान्निध्य से गुणों और कर्मों से सब प्रकार से कार्यरत प्रतीत होती है।

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।

इस प्रकार

"विचार कहीं से न तो आता है और न ही कहीं जाता है, किसी भी विषय से चित्त (पुरुष) का संसर्ग होते ही और पुरुष के द्वारा उस पर ध्यान दिए जाने पर ही वह व्यक्त रूप में अनुभव होता है।"

अपेक्षा है कि कुछ श्लोकों के अध्याय और स्थान पाठक स्वयं ही खोज लेंगे। 

 ***

 


May 09, 2025

Jungle-house Scrolls.

অরণ্যের দিবস রাত্রি 

इससे पहले इस ब्लॉग में मैंने सिर्फ एक ही  বাংলা  पोस्ट लिखा था।

यह हिन्दी पोस्ट भी केवल इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि "जंगल-हाउस" से मुझे  বাংলা के विश्व-प्रसिद्ध लेखक, फिल्म निर्माता, निर्देशक सत्यजित रे की फिल्म :

 অরণ্যের দিবস রাত্রি

की याद आई।

सत्यजित रे

की इस नाम की फिल्म देखने का सौभाग्य तो मुझे नहीं मिला किन्तु ऊपर दी गई लिंक पर मुझे इस बारे में

विख्यात अभिनेत्री सिमि ग्रेवाल

और सत्यजित रे की इस फिल्म के निर्माण के समय के बारे में रोचक जानकारी मिली।

मैं दोनों का ही प्रशंसक हूँ। 

बहुत पहले मैंने उनकी एक पुस्तक :

"फेलू दा और अन्य कहानियाँ"

भी पढ़ी थी।

इसी तरह  বাংলা  भाषा के अनेक लेखक जैसे कि :

बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, शरत्-चन्द्र चट्टोपाध्याय, विमल मित्र, समरेश बसु, सुनील गंगोपाध्याय (प्रेम नहीं स्नेह) आदि भी मेरे प्रिय लेखक रहे हैं।

निश्चित ही   বাংলা  भाषा, संगीत और फिल्मों में भी कला, साहित्य, गल्प और नाटक के अनेक तत्व हैं जो जीवन और विशेष रूप से सामाजिक जीवन के अनेक रंगों को कुशलता से चित्रित करते हैं। और भावनाओं की जो गहराई उनमें है वह भी उतनी ही आवेगपूर्ण है, किन्तु यह सब किसी मर्यादा में बद्ध होता है।

इस पोस्ट को लिखने से जरा पहले तक भी मुझे खयाल नहीं था कि एक बार फिर मेरा ध्यान বাংলা संस्कृति की ओर आकर्षित होगा।

भद्रलोक से पुनः जुड़ना चाहूँगा!

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May 08, 2025

Death and Dare!

मृत्यु-बोध और मृत्यु-भय

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क वि ता 

कुछ लोग डर रहे हैं, 

कुछ लोग मर रहें हैं।

जो मरने से डर रहे हैं, 

वो डरने से मर रहे हैं!

जिन्हें मृत्यु-बोध नहीं, 

उन्हें मृत्यु-भय है, 

जिन्हें डर लगता है,

उन्हें मृत्यु-बोध नही!

और यह भी हैरत,

हर कोई नादान है, 

कोई भी अबोध नहीं! 

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May 06, 2025

History Repeated?!

केवटग्राम : 2016

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क्या जीवन की घटनाएँ किसी तय चक्र में अपने आपको पुनः पुनः दुहराती हैं! शायद किसी हद तक व्यक्ति विशेष के संदर्भ में ऐसा होता होगा!

17 मार्च 2016 जब मैं  L/161, महाशक्तिनगर में रहा करता था। आज भी मेरे पुराने पोस्ट्स में वह पता देखा जा सकता है। वहीं 2009 में इस ब्लॉग से ब्लॉग लिखना शुरू किया था।

तय हुआ कि अब यह स्थान छोड़ना है। अपने एक मित्र से निवेदन किया कि मैं नर्मदा तट पर जाकर कहीं रहने का इच्छुक हूँ। और 19 मार्च 2016 के दिन उपरोक्त पते पर उन्होंने एक 407 वाहन भेज दिया। जगह थी उसमें कि मेरा लगभग पूरा सामान उस पर चढ़ा दिया गया। और उसी रात्रि लगभग साढे़ नौ बजे मैं केवटग्राम स्थित अपने नए आवास पर पहुँचा। इन्दौर से खंडवा मार्ग पर स्थित उस स्थान पर, जहाँ मैं 5 अगस्त 2016 तक रहा। 5 अगस्त 2016 की शाम मैं देवास पहुँचा। पूरे तीन वर्ष और 3 माह तक मैं वहीं रहा।

2019 के अंत से 2023 के आरंभ तक कहीं और! 

फिर कुछ समय बाद नर्मदा तट पर रहने की तीव्र इच्छा हुई तो यहाँ 5 अगस्त 2024 की सुबह पहुँचा। और याद आया यहाँ सब वैसा ही है जैसा केवटग्राम में था!

क्या यह संयोग है या जीवन स्वयं ही अपने आपको इस तरह समय समय पर दुहराता है और हमारा ध्यान शायद ही कभी इस सच्चाई पर जाता है! 

विशेष यह कि जैसी स्थितियाँ और वातावरण केवटग्राम में और आसपास था, बिल्कुल वैसी ही स्थितियाँ और वातावरण आजकल यहाँ इस जंगल हाउस में अनुभव हो रहा है। नर्मदा नदी के तट से एक दो मिनट की दूरी पर स्थित यह आवास, आसपास की शान्ति, निःस्तब्धता। सब कुछ वैसा ही। कोई सुनिश्चित दिनचर्या नहीं। जब जो मन हो कर सकते हैं। जब चाहो आराम करो, जब चाहे उठो या सो जाओ, नहाओ या मत नहाओ। किसी से शायद ही कभी मिलना होता है। नदी की ओर जानेवाले मार्ग पर स्थित दुकानों से सभी आवश्यक वस्तुएँ मिल जाती हैं। सुबह चार बजे नींद खुल जाती है। आज भी रोज की तरह जल्दी उठ गया।

मोबाइल पर यू-ट्यूब पर भारत और पाकिस्तान के बीच होनेवाले संभावित युद्ध के बारे में लोगों के अनुमान और भयों के बारे में सुनता रहा। 

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May 04, 2025

Jay Jagannatha!

ममता बनर्जी

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प्रथमदृष्ट्या मन में यही विचार आया कि -

भगवान् श्री हरि की असीम और अहैतुकी कृपा सुश्री ममता बनर्जी पर हुई है इसलिए उनके मन में जीवन के इस विकट समय में यह शुभ संकल्प जागृत हुआ। 

यह वीडियो देखते हुए -


श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक याद आया -

अपि चेत् सुदुराचारो भजतो मामनन्यभाक्।

साधुरेव स मन्तव्यो सम्यग्व्यवसितो हि सः।।

बस यही प्रार्थना है कि -

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। 

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।।

जय जगन्नाथ!! 

।। ॐ हरि ॐ तत् सत्।। 

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May 03, 2025

May 19, 2025

तू चल, मैं आया!

पतञ्जलि कृत योगसूत्र समाधिपाद के अनुसार :

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

और,

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।१०।।

वृत्ति अर्थात् मनोदशा, जो उपरोक्त पाँच प्रकारों की या उनसे मिली-जुली कोई स्थिति होती है। जैसे संगीतबद्ध किसी गीत में स्थायी और अन्तरा होते हैं और किसी भी शास्त्रीय राग में एक श्रुति आधारभूत होती है, उसी तरह किसी भी मनोदशा में सब कुछ यद्यपि सतत ही बदलता रहता है, किन्तु उस सब परिवर्तन के बीच 'अपने होने' की भावना अप्रकट और अविच्छिन्न रूप से विद्यमान होती ही है। 'सब कुछ' मुझे या मेरे इर्द-गिर्द होता है, यह तो निर्विवाद और असंदिग्ध रूप से स्पष्ट होता है किन्तु जो कुछ भी होता है उसे किसी न किसी 'वृत्ति' के सहारे से ही 'जाना' जाता है। जैसे - मुझे डर लग रहा है, मुझे यह कार्य करना है या कि नहीं करना है, करना या नहीं करना चाहिए, मेरा 'मन' शान्त, उद्विग्न, प्रसन्न, चिन्तित, व्याकुल, भयभीत, आदि है, मुझे भूख, प्यास, गर्मी, शीत या घबराहट हो रही है, मैं जानता हूँ, नहीं जानता, मेरी बुद्धि काम कर रही है या नहीं कर रही, मैं समझ पा रहा हूँ या नहीं समझ पा रहा ... इन सभी अनुभवों में जिस वस्तु का उल्लेख "मैं" की तरह से किया जाता है वह यूँ तो असंदिग्ध रूप से निर्विवाद एक तथ्य होता है और प्रत्येक ही मनुष्य स्वयं को अनायास ही "मैं" के अर्थ में उस अनुभव का भोक्ता होते हुए भी ऐसे समस्त अनुभवों के बीच अपरिवर्तनशील "अनुभवकर्ता" के रूप में अपने आपको पहचानता भी है, और उसकी अभिव्यक्ति करना उसकी व्यावहारिक आवश्यकता भी हो सकती है, फिर भी इस विषय में सुनिश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकता। केवल स्मृति नामक वृत्ति के सहारे ही वह उस समय की कल्पना कर सकता है, जिसे वह 'अतीत' का नाम देता है और 'अनुमान' नामक वृत्ति के सहारे ही 'भविष्य' नामक किसी स्थिति की कल्पना कर सकता है। और जिसे वह 'वर्तमान' कहता है उसे यद्यपि वस्तुतः "जी रहा" होता है, किन्तु उसकी 'पहचान' कर पाना उसके लिए असंभव ही होता है। और ऐसी कोई भी 'पहचान' बनाने के लिए उसे "मैं" नामक कल्पना का आधार लेना आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार, कल्पना, अनुमान, पहचान, स्मृति, अतीत और भविष्य केवल 'मन' की सतत बदलती स्थितियों के ही भिन्न भिन्न रूप होते हैं और जिसे "मैं" नामक वस्तु या व्यक्ति के रूप में स्वयं की तरह स्वीकार कर लिया जाता है, वैसे किसी वस्तु या व्यक्ति की सत्यता संदिग्ध ही है।

जो कुछ होता हुआ प्रतीत होता है, वह सब घटनाक्रम या "अनुभव" यद्यपि निरन्तर ही बनता और बदलता रहता है किन्तु इस सबके बीच "मैं" या "स्वयं" नामक कल्पित "भोक्ता", "अनुभवकर्ता", और उस या किसी भी दूसरे अनुभव को "जाननेवाला" न तो बनता है और न मिटता ही है, किन्तु उसका ही उल्लेख "अपने आप" की तरह करना औपचारिक रूप से आवश्यक होने पर भी तथ्य की तरह सत्य नहीं हो सकता है।

जैसा कि "मैं" के विषय में ऊपर कहा गया, ठीक वैसा ही तथाकथित "संसार" के बारे में भी अक्षरशः सत्य है।

इसलिए न तो "मेरा" और न ही "संसार" का ऐसा कोई अतीत या भविष्य हो सकता है जिसे परिभाषित किया जा सके, तो फिर उसका आकलन करना तो और भी दूर की बात है।

किन्तु जिस भौतिक संसार की पहचान अतीत में संचित स्मृति के अंतर्गत की जाती है, उसके भविष्य की सत्यता भी "भौतिक विज्ञान" के माध्यम से तात्कालिक तौर पर स्वीकार की जा सकती है। इसका सरल सा उदाहरण है सूरज का उगना और डूब जाना। यह शुद्धतः वैज्ञानिक अकाट्य और निर्विवाद सत्य है। इसी प्रकार से विभिन्न "ग्रहों" और आकाशीय पिण्डों के पुनरावृत्तिपरक गति के अवलोकन से और उससे घनिष्ठतः संबद्ध प्रकृति के कार्य से "संसार" की विभिन्न गतिविधियों और घटनाक्रमों के बीच किसी क्रम (pattern) के होने का अनुमान किया जा सकता है। यद्यपि ऋषियों के मतानुसार यह समस्त प्रकृति, मनुष्य और संसार भी एकमेव "चेतन" अस्तित्व है, किन्तु यह भी सत्य है कि यह अस्तित्व फिर भी किसी भी घटनाक्रम से अप्रभावित रहता है और वस्तुतः न तो किसी जगत्, संसार, मनुष्य या मनुष्य की तरह अपनी विभिन्न "चेतन" अभिव्यक्तियों को प्रभावित करता है न उनसे प्रभावित ही होता है।

समस्त भौतिक विज्ञान और ज्योतिष-शास्त्र के अंतर्गत की जानेवाली सभी व्याख्याएँ "विपर्यय" और "विकल्प" के ही उदाहरण मात्र हैं और उनकी सत्यता सदैव संदिग्ध ही है।

***


 

May 01, 2025

GUIDE!

आज की बात!

गाईड, रहीम और ग़ालिब 

भोपाल के किसी मित्र ने व्हॉट्स ऐप पर हिन्दी फिल्म "गाईड" के -

"वहाँ कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहाँ ..."

इस गीत का वीडियो शेयर किया  -

और जैसा अकसर होता है, जब उसने 

"कहते हैं ज्ञानी,

दुनिया है फ़ानी,

पानी पे लिक्खी है,

कुछ तेरा न मेरा,"

इस टुकड़े में "फ़ानी" को "पानी" समझ लिया, तो 

मुझसे रहा नहीं गया, और मैंने उसका ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि "फ़ानी" का मतलब होता है "फ़ना" होनेवाला अर्थात् नश्वर या नाशवान - perishable.

Consumer goods are perishable items that can't be kept pure for much long, and are useful for a short time only.

फिर ग़ालिब के कुछ शे'र प्रमाण के लिए प्रस्तुत किए -

इशरते-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।

बस कि मुश्किल है हर काम का आसां होना, 

आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना।

की मेरे क़त्ल के बाद जफ़ा से तौबा। 

हाय उस ज़ूद पशेमाँ का पशेमाँ होना! 

इशरत  मतलब मुक्ति,

क़तरा मतलब टुकड़ा / बून्द,

दरिया मतलब समुद्र,

फ़ना मतलब विलीन,

आसां मतलब आसान, 

इंसा  मतलब इंसान,

आदमी मतलब मनुष्य, 

मयस्सर मतलब उपलब्ध,

जफ़ा मतलब क्रुद्ध या क्रोध, 

ज़ूद का मतलब - ज्यादा - extreme,

पशेमाँ का मतलब लज्जित, शर्मिन्दा होना, 

फिर उसने पाकिस्तान के वर्तमान हालात के बारे में एक मीम / शॉर्ट वीडियो पेश किया जिसमें यू एस के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प "water, water" कहते हुए पानी की बॉटल उठाकर पानी पी रहे होते हैं और खाली बॉटल को उछाल कर दूर फेंक देते हैं।

फिर मुझे रहीम का यह दोहा याद आया :

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून। 

पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून।।

यहाँ पर पानी का मतलब आँखों की शर्म, शर्मो-हया, लज्जा, मोती की चमक, और पान के साथ खाया जाने वाला चूना हो सकता है, जिसमें पानी सूख जाने पर वह किसी काम का नहीं रह जाता। 

उसने कहा :

क्या 'चून' शब्द का एक अर्थ "आटा" नहीं होता?

मैंने कहा -

'चून' शब्द संस्कृत के 'चूर्ण' शब्द का अपभ्रंश है, और पर्याय से,  imperatively  आटा या चूना दोनों अर्थों में प्रयुक्त होने लगा। फिर यह संस्कृत के ही 'च्यवन' शब्द का भी अपभ्रंश हो सकता है। जैसे बरसात में छत से पानी टपकना या चूना।

फिर मैंने कहा -

अजीब बात है कि आप भोपाल के हो और मैं भोपाल से बाहर का, फिर भी आपको उर्दू पढ़ा रहा हूँ!

वे बोले -

भई, पाकिस्तान की आँखों का पानी तो उसी दिन मर चुका था जिस दिन कुछ मुसलमानों ने मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग क़ौम घोषित कर कह दिया था कि ये दोनों क़ौमें साथ साथ नहीं रह सकती हैं, और इसलिए इस आधार पर अपने लिए भारत को विभाजित करने की और अपने लिए अलग मुल्क की माँग कर दी थी।

अब भारत ने पाकिस्तान का पानी क्या रोक दिया तो उपद्रव कर रहा है। एक दिन अवश्य ही पाकिस्तान के टुकड़े टुकड़े होंगे और सब टुकड़ों की मुक्ति / इशरत हिन्दुस्तान रूपी दरिया में फ़ना होने से ही होगी।

अखंड भारत हिन्दू राष्ट्र ही इस समस्या का एकमात्र और स्वाभाविक विकल्प है।

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