वेद, निर्वेद और निर्वाण
(निब्बाणसुत्त)
उन्हें एक दूसरे से मिलने के बाद इसका आभास हुआ कि शायद जो भी "है" वह तो यद्यपि अचल अटल और अविकारी है, किन्तु जो "होता हुआ" प्रतीत होता है और जिसे भी यह स्वयं से अन्य की तरह प्रतीत होता है, दोनों ही सतत परिवर्तित होती रहनेवाली प्रतीतियाँ मात्र होती हैं और उस अद्भुत् रूप में अनिर्वचनीय ही होती हैं।
दोनों साथ रहते थे और वह अपने इकतारे को बजाने में मग्न रहता था और वह अपनी अनुकृतियों के चित्रण के कार्य में इसी तरह डूबी रहती।
अभी तक उनके बीच बौद्धिक तो दूर, किसी भी तरह की शाब्दिक बातचीत भी यद्यपि नहीं होती थी, किन्तु वर्णों और स्वरों के आविष्कार और उनके वर्गीकरण कर देने के बाद कुछ सार्थक शब्दों का प्रयोग वे अनायास और सहज रूप से करने लगे थे। उन्हें उस भेद-रेखा का भान था जो इन्द्रियानुभूति पर आधारित ज्ञान को उस भान से पृथक् किसी ज्ञान में रूपांतरित नहीं करती थी। संक्षेप में, अभी उनमें उस तर्कक्षमता का उद्भव नहीं हो पाया था जिससे कि भौतिक वस्तुओं के परोक्ष ज्ञान को वे भावनात्मक वस्तुओं के परोक्ष ज्ञान से पृथक् कर पाते।
और इसकी तो उन्हें कोई कल्पना तक कदापि नहीं थी, कि जो "चेतन" इन्द्रिय-ज्ञान से इन्द्रियगम्य जगत् को अपने आपसे पृथक् और भिन्न अन्य की तरह "जानता" है, वह उन ज्ञेय वस्तुओं से किस प्रकार समान या भिन्न हो सकता है। संक्षेप में, इस भेद-रेखा से भी वे अनभिज्ञ थे। यद्यपि इन्द्रियानुभूति में जानी जानेवाली वस्तुओं को और इसी प्रकार से अपने आप और दूसरों के लिए "मैं", "तुम" और "वह" शब्दों का प्रयोग करना वे सीख चुके थे, किन्तु ज्ञाता और ज्ञेय के स्वरूप के बारे में उनके मन' में अभी तक कोई शंका या जिज्ञासा उत्पन्न नहीं हो पाई थी। ऐसी अद्भुत् मनोदशा उन दोनों की ही थी जिसमें वे दोनों परस्पर प्रेम में निमग्न और प्रसन्न थे। उनके बीच यह प्रेम एक विस्मयकारी, प्रगाढ़, घनिष्ठ और अंतरंग, मौन और मुखर रूप में अभिव्यक्त और अनभिव्यक्त भी होता रहा। अभी न तो उसके चित्रण में और न ही उसके संगीत में भाषा या या अर्थ का प्रवेश हुआ था। उसकी चित्रात्मक स्मृति और उसका रागात्मक संगीत सरिता के प्रवाह की तरह शुद्ध और पावन थे, जिनमें प्रवाह और सौन्दर्य तो थे किन्तु कोई प्रयोजन या भविष्य वहाँ नहीं थे। धर्म से परिचालित उनका जीवन एक स्वर्ग ही था। अर्थ के प्रवेश के साथ काम का आगमन हुआ। काम की पूर्णता हो जाने पर मोक्ष की आकांक्षा उठी और इसके बाद तत्काल ही फिर मोक्ष को आना ही था।
तब शाब्दिक और बौद्धिक स्मृति ने उस पावन सरिता में प्रवेश किया जिससे उसका वह पावन जल यत्किञ्चित मलिन सा प्रतीत होने लगा।
यह पौराणिक सरस्वती, गंगा और यमुना की त्रिवेणी का एक प्रकार था जहाँ सरस्वती वेदवाणी और वैदिक ज्ञान की तरह नेपथ्य में अदृश्य थी, यमुना भौतिक जगत् की नियामक होकर समस्त जड-चेतन के सारे घटनाक्रम को नियंत्रित और नियत करती थी जबकि गंगा समस्त पाप और पुण्य को धोकर निर्मल कर देती थी।
और एक और अद्भुत् यह भी था कि दोनों ही फिर भी अपना अपना जीवन व्यक्ति की तरह भी जी रहे थे।
तब किसी अप्रत्याशित क्षण में एक दुर्घटना तब घटित हुई जब कविता का जन्म हुआ। कविता में शब्द थे तो राग भी था, जिससे रस की उत्पत्ति हुई और विराग की भी। यह भाव था जिससे ३३ कोटियों के देवता अव्यक्त से व्यक्त होकर प्रकट हुए। यह वेद था।
वेद की पराकाष्ठा 'निर्वेद' में और 'निर्वेद' की पराकाष्ठा 'निर्वाण' में हुई।
इस नियति नटी के नाटक और नृत्य का न आदि है, और न ही अन्त है।
इस कथा के बहुत से सूत्र अभी खोले जाने हैं, आशा है कि उन्हें आगामी पोस्ट्स में खोल सकूँगा।
यदा ते मोहकलिलं
बुद्धिं व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं
श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ
नैनां प्राप्य विमुह्यति।।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि
ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।७२।।
(गीता, अध्याय २)
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