February 15, 2025

God, Guru and self / Self.

एक आध्यात्मिक प्रश्न

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आध्यात्मिक खोज में

"ईश्वर, गुरु और स्वयं की भूमिका क्या है?"

प्रायः हर मनुष्य ही इस प्रश्न से अनभिज्ञ होता है और इस प्रश्न से अनभिज्ञता के कारण ही इसका उत्तर खोजने की अपरिहार्य आवश्यकता तक के प्रति पूर्णतः उदासीन भी होता है। इनमें से किसी एक से भी अनभिज्ञ होने का कारण और परिणाम होता है कल्पित असुरक्षा का भय, अनिश्चित और अज्ञात भविष्य की चिन्ता और संभव हो तो उसे जान पाने की भी छटपटाहट, जिसमें वह निरन्तर आशाओं और आशंकाओं के बीच डोलता रहता है। यदि अपने अतीत पर कोई दृष्टि डाले तो उसे स्पष्ट हो सकता है कि जिसे वह "अतीत" या "भूतकाल" का रूप देकर मान्य करता है, ऐसा समय समय पर घटित होनेवाली असंख्य घटनाओं के रूप में वर्गीकृत करने और उसके केन्द्र में स्वयं अपने आपको रखकर ही कर सकता है।

ये सभी घटनाएँ कभी संभवतः घटित हुई भी हों तो भी उसकी स्मृति में वे जिस रूप में होती हैं उनका उस रूप में न तो कोई निश्चित आकार प्रकार या अस्तित्व और न ही उस समय विशेष का ही अस्तित्व हो सकता है। वह समय विशेष भी उसकी स्मृति का ही एक अंशमात्र होता है, और वही समय असंख्य लोगों के लिए उनकी अपनी अपनी स्मृति पर आश्रित पूर्णतः काल्पनिक किसी एक स्थिति का चित्र भर होता है। किन्तु स्मृतियों को सातत्य देकर उनमें एक कल्पित क्रम की रचना भी स्मृति की ही सहायता से कर ली जाती है और अनेक बार मनुष्य को यह सन्देह भी हो जाता है कि कौन सी घटना पहले और कौन सी घटना बाद में घटित हुई थी। हाँ, कुछ बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में उसे ऐसा सन्देह कभी नहीं उठता, यह भी सच है। बड़ी हों या छोटी, सभी घटनाएँ उनके घट जाने के बाद तुरन्त नहीं तो कुछ समय के बाद तो अवश्य ही अर्थहीन हो जाती हैं, यहाँ तक कि वे पूरी तरह से विस्मृत भी हो सकती हैं। यह सब समझ सकना उतना कठिन नहीं है, जितना कि कल्पित भविष्य की अनन्त संभावनाओं में से किसी एक या अनेक के घटित होने की कल्पना से मुग्ध हो जाना और उसे पूर्ण करने के लिए यथासंभव प्रयास करते रहने में जुट जाना। अतीत कितना भी सुखद या दुःखद कैसा भी हो, बीत ही चुका होता है, जबकि भविष्य, चाहे वह कितना ही काल्पनिक प्रिय और संभव भी क्यों न हो, अवश्य ही अनिश्चितप्राय होता है, इससे कोई भी इनकार भी नहीं कर सकता।

अतीत में ईश्वर, गुरु और / या स्वयं की ही क्या भूमिका थी, इसे भी न तो तय किया जा सकता है, और न जाना जा सकता है, ठीक इसी प्रकार वर्तमान का भी अपनी ही दृष्टि में कोई तय रंग रूप, नहीं हो सकता है क्योंकि यह इस पर निर्भर होता है कि वर्तमान को कोई किस सन्दर्भ विशेष में देखता है।

और सबसे मजेदार किन्तु उतना ही यह रोचक तथ्य भी अकाट्य सत्य है कि जिसे 'स्वयं' कहा जाता है वह किस चिड़िया का नाम हो सकता है? क्या यह कोई समय या घटना, परिस्थिति या मनुष्य-विशेष होता है? अपने एक व्यक्ति-विशेष होने का विचार मन पर इस बुरी तरह से हावी हो जाता है, मन' को इस बुरी तरह जकड़ लेता है कि उस विचार से निर्दिष्ट वस्तु पर कोई सन्देह तक मन में उठ पाना असंभव सा हो जाता है। किन्तु फिर भी इस बारे में मनुष्य इतना आश्वस्त होता है कि इस प्रकार का प्रश्न उठाना ही उसे नितान्त ही निरर्थक, हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण लग सकता है।

इस प्रकार, ईश्वर, गुरु और एक मनुष्य विशेष के रूप में स्वयं के अस्तित्व को सिद्ध कर पाना शायद अत्यन्त ही दुष्कर एक कार्य है। यद्यपि अपने अस्तित्व की सत्यता पर कोई प्रश्न ही नहीं उठाया जा सकता क्योंकि यह एक स्वतःस्फूर्त और स्वप्रमाणित वास्तविकता है, किन्तु स्वयं के एक मनुष्य-विशेष होने (के निश्चय) की सत्यता पर तो अवश्य ही सन्देह किया ही जा सकता है।

न तो कोई ईश्वर, न कोई तथाकथित या वास्तविक गुरु, न तो कोई सिद्धान्त या तत्वदर्शन आपमें उत्पन्न हुए और आपके द्वारा स्वयं के एक व्यक्ति-विशेष होने की आपमें विद्यमान धारणा को दूर कर सकता है, न इसे दूर करने में आपकी कोई सहायता ही कर सकता है। यह सरल  या कठिन, रोचक या नीरस किन्तु शायद सबसे अधिक आश्चर्यजनक  कार्य अपने लिए आपको स्वयं ही करना होगा क्योंकि यह तो अत्यन्त ही सुनिश्चित और अकाट्य सत्य ही है कि आपको अपने आपसे निःसन्देह सर्वाधिक प्रेम है। शेष सब कुछ सदैव संदिग्ध है।

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