February 13, 2025

Renunciation.

पारंपरिक संन्यास

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वर्ष 1991 के फरवरी माह में मैं ओंकारेश्वर में नर्मदा के तट पर एक आश्रम में रहने लगा था। उस आश्रम के स्वामी और संचालक यद्यपि गेरुएवस्त्रधारी महात्मा थे किन्तु उनसे भी अधिक वयोवृद्ध एक अन्य महात्मा भी वहाँ रहते थे जो कि वैसे ही सफेद वस्त्र पहना करते थे,  जैसा कि प्रायः कुछ साधु पहना करते हैं।

जब मैं वहाँ पहुँचा तो देखा कि सफेद वस्त्रधारी महात्मा तो ऊपर ऊँचाई पर स्थित तखत पर और गेरूएवस्त्रधारी उनसे कुछ नीचे फर्श पर दूसरे लोगों के साथ बैठा करते थे। शाम को प्रायः 5 से 6 तक सत्संग हुआ करता था।

हम लोग तो बस सुनते थे और वे दोनों गुरुजन ही प्रायः एक दूसरे से बातें करते थे। 

एक दिन सफेदवस्त्रधारी महात्मा ने मेरी ओर देखते हुए कुछ व्यंग्यात्मक लहजे में बोले -

"विनय सोच रहा है कि किस तरह से उसे भी जल्दी से जल्दी गेरुए वस्त्र पहनने को मिल जाएँ!"

मैंने या उन गेरुएवस्त्रधारी महात्मा ने उनके वक्तव्य पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की। मैं तो सपने में भी गेरुआ वस्त्र धारण करने के पक्ष में नहीं था।

कुछ दिनों बाद वहाँ आए एक और स्वामीजी ने भी इसी विचार को व्यक्त किया -

"तुम संन्यास दीक्षा क्यों नहीं ले लेते?"

उन्होंने मुझसे पूछा। 

"मैं सोचता हूँ कि अभी मुझे इसकी पात्रता प्राप्त नहीं हुई है।"

"क्यों?"

"मुझे लगता है कि अध्यात्म के मार्ग पर चलने से पहले मनुष्य को विवेक, वैराग्य, जिज्ञासा तथा फिर मुमुक्षा की प्राप्ति कर लेना उचित है, और अभी मुझे अपने आपमें इस सबका पर्याप्त विकास हुआ प्रतीत नहीं होता है।"

"अगर तुम किसी महापुरुष से दीक्षा ले लोगे तो यह भी हो जाएगा।"

वे स्वामीजी जिन्होंने स्वयं भी किसी महात्मा से संन्यास दीक्षा ली थी, गेरुए वस्त्र धारण करते थे और दूसरों को  आध्यात्मिक प्रवचन आदि देते थे।

बहुत दिनों बाद पता चला कि उन्होंने गेरुए वस्त्र त्याग दिए हैं और अब वे भी मेरी तरह ही सामान्य सफेद कुर्ता धोती आदि पहनने लगे थे। यहाँ तक कि उन्होंने विवाह भी कर लिया था और इस तरह गृहस्थ आश्रम में लौट आए थे।

यद्यपि उनसे मेरी मुलाकात फिर कभी नहीं हुई किन्तु दूसरों से मुझे यह पता चला कि वे अब तो किसी भी आध्यात्मिक या धार्मिक संस्था से दूर ही रहते हैं। पूरे 34 वर्ष बाद पुनः किसी ने अधिकारपूर्वक मुझसे गेरुए वस्त्र धारण करने का आग्रह किया तो मुझे यह घटना स्मरण हो आई।

अब भी मुझे यही लगता है कि जब तक मनुष्य के मन में विवेक, वैराग्य, जिज्ञासा और मुमुक्षा इत्यादि जागृत नहीं हो जाते तब तक गेरुए वस्त्र धारण करने या न करने का कोई विशेष महत्व नहीं है।

और यदि मनुष्य को यह सब प्राप्त हो जाएँ तो भी उसने कौन से वस्त्र पहने हैं इसका भी कोई विशेष महत्व नहीं है। विडम्बना तो यह है कि प्रायः अपात्र व्यक्ति जब गेरुए वस्त्र पहनने लगता है तो न सिर्फ अपना बल्कि समाज के दूसरे लोगों का भी जाने अनजाने ही अहित ही करने लगता है।

अधिकार प्राप्त न होने पर भी वह दूसरों को उपदेश देने लगता है और सीधे सादे मनुष्य स्वयं भी उससे प्रभावित होकर किन्हीं दबावों के चलते अध्यात्म को तो भूल ही जाते हैं।

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