February 14, 2025

Natural and Artificial

प्रागाकृतिक और प्राकृतिक और कृत्रिम ज्ञान

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जिस इन्द्रिय ज्ञान को वे जानते थे वहाँ अभी अर्थ नामक 'प्रत्यय' प्रकट नहीं हुआ था। तात्पर्य यह कि उनका यह ज्ञान विशुद्ध प्रागाकृतिक (प्राक् +आकृतिक) बोध का ही संवेदन था और यद्यपि उनके इस ज्ञान और संप्रेषण के इसके तरीके में वस्तु के लिए प्रयुक्त किसी ध्वन्यात्मक बोले जानेवाले शब्द का वस्तु से साहचर्य तो होता था किन्तु स्मृति में उस साहचर्य को चित्र या आकृति से संबद्ध नहीं किया जाता था और इसलिए तब चित्रलिपि का प्रारंभ ही हुआ था। बस वस्तु, जीव, स्थान, घटना का वर्णन इंगितमात्र से ही किया जाता था, न कि भिन्न भिन्न शब्दों के एक साथ प्रयोग में। तब शब्द तो थे किन्तु अभी भी वाक्य का जन्म नहीं हुआ था और न ही इसकी उन्हें कोई जरूरत ही महसूस होती थी। वे अतीत और भविष्य की पकड़ से परे बस वर्तमान को ही सत्य की तरह ग्रहण कर उसके अनुरूप ही कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया किया करते थे।

जब चित्रों के माध्यम से जड और चेतन वस्तुओं, अतीत की घटनाओं का चित्रण करना उसने शुरू किया था, तब स्मृति का न तो कोई प्रयोजन ही था और न ही संभावना थी। वह रेत और चट्टानों के अलावा गुफा की दीवारों पर भी चित्र बनाया करते थी जिन्हें पुरातत्वविद म्यूराल्स या फ्रेस्को या भित्तिचित्र भी कहते हैं। और फिर उसने हर एक वस्तु की आकृति के लिए कोई छोटा सा सांकेतिक चिह्न तय कर लिया।  जैसे चिड़िया के लिए < या > का संकेत जो शायद चिड़िया की चोंच का द्योतक रहा होगा। वह' विभिन्न वनस्पतियों, मिट्टी आदि से रंग बनाया करते थी जो जल्दी ही धुँधले होकर मिट जाया करते थे।

जब उसका मित्र वहाँ आया तो उसे पता चला कि जिन मूल ध्वनियों को वह बोल सकती थी, उनके लिए उसने पहले से ही कुछ संकेत तय कर रखे थे। ये बहुत आसान थे।  जैसे अ संकेत दो होंठों का और उनसे निकलनेवाली ध्वनि का प्रतीक था। आ, इ, उ, ए और ओ इत्यादि का भी संकेत इसी प्रकार उसने तय किया। और बहुत बाद में उसे दीर्घ स्वरों को व्यक्त करने की आवश्यकता हुई तो वे भी इसी प्रकार तय हुए। फिर उसे स्वरों और व्यञ्जनों को व्यक्त करने के लिए संकेत तय करने थे तो पहले तो उसने क ख ग तथा घ के द्योतक के लिए एक ही चिह्न का प्रयोग किया जैसा कि  தமிழ்  भाषा में होता है। इससे यही समझा जा सकता है कि  தமிழ்  भाषा को  क्यों आदिम या प्राचीनतम भी कहा जा सकता है।

बहुत बाद उन संकेतों को अपर्याप्त अनुभव करने पर उसने उनका रूपान्तरण कर विस्तार किया। अब उसके पास एक विकसित आदिम लिपि तो थी और फिर उस पर पुनः पुनः ध्यान देकर उसके द्वारा इंगित ध्वनियों के क्रम को और भी व्यवस्थित करते हुए आद्य संस्कृत मूल वर्णों का स्वरूप तय किया।  தமிழ்  से इस प्रकार से परिष्कृत वर्णों को देवनागरी और संस्कृत कहा गया। 

किन्तु चूँकि संस्कृत भाषा अधिक वैज्ञानिक है इसलिए  தமிழ்  से ही उसकी ग्रन्थलिपि अस्तित्व में आई।  यह भी कह सकते हैं कि चूँकि संस्कृत के मंत्रात्मक होने से ही  తెలుగు,  ಕನ್ನಡ, മലയാളം  और यहाँ तक कि  ඬංභඉ जैसी लिपियाँ भी अस्तित्व में आईं। किन्तु अब यदि इसे पूरे पृथ्वी की सभी भाषाओं के सन्दर्भ में देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि तिब्बती, थाई, बर्मीज़ और लाओ आदि भाषाओं की लिपि का उद्गम जिस लिपि से हुआ वह तो ब्राह्मी, शारदा, श्री / ऋषि ही थी, और इसी श्रीलिपि से ऋषि / Русский  का उद्गम हुआ जिसका सज्ञात / सजात / cognate  है  Cyril. 

प्रत्यक्षं तु किं प्रमाणमितरम्!

और Cyril से ही दूसरी तमाम यूरोपीय लिपियों का उद्गम हुआ। इसे और भी विस्तार दिया जा सकता है, तब यह स्पष्ट हो जाएगा कि संस्कृत भाषा न तो प्राचीनतम है और न ही  தமிழ்  की तुलना में नवीन है। यह प्रश्न ही असंगत है,  क्योंकि संस्कृत सनातन है और इसलिए इसे अमर भी कहा जाता है। यहाँ से हम हिब्रू / अरबी और फारसी आदि भाषाओं की ओर भी जा सकते हैं और केवल उन भाषाओं की संरचना से ही ऐतिहासिक रूप से वे जिन परिवर्तनों से गुजरीं उनका अनुमान लगाकर इसकी पुष्टि भी कर सकते हैं। اردو / उर्दू  भाषा की संरचना पर ध्यान देना इसका सबसे सुन्दर तरीका हो सकता है। 

यहाँ से हम अक्षरसमाम्नाय को समझ सकते हैं कि किस प्रकार अ ई उ ण् ऋ लृ क् इसका प्रथम सूत्र हुआ।  कैसे  ये सभी स्वर परस्पर रूपान्तरित हो जाते हैं।  अरबी या उर्दू का अ कैसे अमर से उमर / उम्र हो जाता है। 

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि पाणिनीकृत अष्टाध्यायी में उणादि प्रत्ययों के लिए भी प्रावधान है

इति अलम्। 

इस अल् प्रत्यय से ही इल्  all, Alles,  el आदि का जन्म हुआ।

रही बात ग्रीक की तो इसे भी संस्कृत भाषा की "ग्रृ" गीर्यते से व्युत्पन्न किया जा सकता है। वैसे ग्रीक को तो बहुत अच्छी तरह से संस्कृत का ही एक प्रकार विशेष कह सकते हैं। 

उन दोनों को तो अभी ध्वनि और अर्थ के साहचर्य का पता तक कहाँ था। वे तो बस प्रकृति से प्राप्त इन्द्रिय ज्ञान में ही तृप्त थे। किन्तु जैसे ही उन्होंने भावनाओं को शब्द प्रदान करना शुरू किया संज्ञा और सर्वनाम, करण और संप्रदान, अपादान और संबंध तथा अधिकरण और संबोधन  (nominative, accusative, instrumental, dative, ablative, conjunctive, locative  और  interjective) स्वयं ही उनके सम्मुख अनायास ही अनावरित हो उठे।

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