महाकुंभ 2025
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चाहे जनसामान्य मनुष्य हो या कोई बहुत विद्वान हो, वह कर्म करने के लिए किसी न किसी रूप में बाध्य होता ही है। केवल कोई असाधारण प्रेरणा ही उसके मन में यह प्रश्न या जिज्ञासा जागृत कर सकती है कि वस्तुतः कर्म करने के लिए वह बाध्य है या स्वतंत्र है? बिरले ही किसी मनुष्य के मन में शायद ही कभी यह असाधारण प्रेरणा होती होगी। अपने बारे में तो मैं अवश्य ही कह सकता हूँ कि मेरी अपनी स्मृति में, मेरे मन में इस प्रश्न ने प्रथम बार तब सिर उठाया, जब 1982-83 में मैं श्री रमण महर्षि और श्री जे. कृष्णमूर्ति की पुस्तकों का अध्ययन कर रहा था और,
"मुझे क्या करना चाहिए?"
इस प्रश्न से बहुत ही व्याकुल और त्रस्त भी था।
शायद ही संसार में कोई भी ऐसा होता हो जिसे जीवन में ऐसी ही स्थिति का सामना कभी न कभी न करना पड़ता हो और वह अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिए बाध्य न होता हो, हाँ इच्छा के साथ साथ उसकी बुद्धि भी कर्म करने के लिए उसे प्रेरित कर रही होती है, यह भी सत्य ही है। यह तो कर्म के हो जाने के बाद या न हो पाने पर, और कर्म का परिणाम प्राप्त होने पर ही पता चल पाता है कि कर्म के परिणाम से उसने कैसा अनुभव किया। संभवतः वह प्रसन्न या दुःखी, निराश या उत्साहित, क्षुब्ध उद्विग्न या उल्लसित हुआ हो या शायद उसमें पश्चात्ताप की भावना पैदा हुई हो। और यह भी हो सकता है कि उस कर्म के पूर्ण होते होते वह किसी बहुत बड़ी मुश्किल में फँस गया हो। कर्म प्रारंभ करने के समय उस कर्म के संभावित परिणाम को जान पाना भी यद्यपि उसके लिए कठिन ही रहा हो, फिर भी उन परिस्थितियों में उसने जो कुछ भी किया होता है वह अनेक कारणों या कारणों का कुल और समेकित परिणाम ही तो होता है।
गीता अध्याय १८ के श्लोक के अनुसार :
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१५।।
इस प्रकार से, मनुष्य इन पाँच हेतुओं से प्रेरित या बाध्य होकर कर्म में प्रवृत्त और संलग्न होता है और उसके द्वारा घटित होनेवाला कर्म स्वयं के द्वारा किया जा रहा है इस कल्पना से अभिभूत होकर यह भी नहीं देख पाता है कि सभी और प्रत्येक ही कर्म प्रकृति की प्रेरणा के अनुसार अनायास अकल्पित रूप से घटित होते हैं और किसी भी कर्म को करनेवाला कोई "कर्ता" वस्तुतः कहीं नहीं होता। गीता के ही अध्याय ३ के अनुसार :
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।
और अध्याय ४ के अनुसार :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।
तात्पर्य यह हुआ कि यद्यपि प्रकृति, ईश्वर या स्वयं अपने आपको ही कर्म का "कर्ता" मान लिया जाता है, इनमें से कोई भी वस्तुतः "कर्ता" है, यह कहना एक भूल है।
प्रकृतेः - प्रकृति - पञ्चमी और षष्ठी विभक्ति, एकवचन,
गुणैः - तृतीया बहुवचन
से स्पष्ट है कि उनमें से किसी को कितना - एकवचन की तरह ग्रहण नहीं किया जा सकता है।
अकर्तारमव्ययम् - द्वितीया एकवचन में भी ईश्वर या अव्यय अविनाशी के अकर्ता होने की ही पुष्टि की गई है और
अहंकारविमूढात्मा - में जिस आत्मा का निरूपण किया गया है उसे अहंकार बुद्धि से विमूढ / विमोहित / भ्रमित कहा गया है अर्थात् वह भी "कर्ता" नहीं है। वास्तव में "कर्म" अनित्य होने से अवधारणा मात्र हैं न कि सत्य। इसे ही महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र / समाधिपाद में -
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।
और,
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।
से इंगित किया है।
पुनः "महाकुंभ" पर लौटें।
यदि मनुष्य, ईश्वर या प्रकृति "कर्ता" नहीं हो सकते और "कर्म" स्वयं ही एक अवधारणा भर है तो "महाकुंभ" में जाना, न जाना, जा पाना या न जा पाना इसे कौन तय कर सकता है? फिर यह इच्छा या जिद होना कि "मुझे" महाकुंभ जाना या नहीं जाना है क्या अपने आप में एक कल्पनात्मक भावना, विचार या संकल्प ही नहीं है?
यह तो इस इच्छा या जिद के पूर्ण होने या न होने पर ही पता चलेगा कि क्या हुआ!
इसलिए, क्या मनुष्य इसका निर्णय करने तक के लिए भी स्वतंत्र हो सकता है?
उपसंहार :
गीता के ही अध्याय ५ के अनुसार :
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न च कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।
नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।
तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।
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