स्मृति कल्पना और संसार
तब समय नहीं था, क्योंकि न तो समय अतीत की स्मृति की तरह और न भविष्य की कल्पना की तरह अनुभव हो सकता था। वहाँ निपट वर्तमान था जो न आया था और न ही कभी आनेवाला था। क्योंकि उनके पास मन में न तो अतीत की कोई स्मृति थी और न ही भविष्य का कोई अनुमान या कल्पना ही थी। हाँ, वह प्रत्यक्ष और आसन्न वर्तमान अवश्य होता था जो भावी की संभावना के रूप में उनके मनःचक्षुओं के सामने उनके समक्ष चित्र के रूप में होता था। किन्तु ऐसा अनायास, बहुत ही कम अवसरों पर होता था जो न तो अतीत में घटित किसी घटना की स्मृति का दोहराव होता था और न ही भविष्य की किसी संभावना पूर्वानुमान या कल्पना हो सकता था। इसलिए वे उस "समय" से अनभिज्ञ थे जो हमें शीघ्रता से या धीरे धीरे बीतता हुआ प्रतीत होता रहता है। किन्तु जब उनमें वस्तुओं और घटनाओं की चित्रात्मक और ध्वन्यात्मक स्मृति बनना शुरू हुआ तो उसके फलस्वरूप वही उस काल्पनिक जगत से उनका प्रथम परिचय था जो क्रमशः दृश्यश्रव्य स्मृति के रूप में उनके मन में बसने लगा। जब वह भाषा नामक उस माध्यम / interface से अनभिज्ञ थी, जिसे कि उसके अतिथि मित्र के आगमन के बाद उन दोनों ने मिलकर बनाया था, और जो कि ऐसी नई खोज / discovery नहीं, बल्कि बस संयोगवश ही बन गई प्रणाली / system, स्मृति और कल्पना से उत्पन्न और "जानकारी" के रूप में प्राप्त तथाकथित वह "ज्ञान" था, जिसका वर्गीकरण उन्होंने प्रमादवश, अनवधानता और बस लापरवाही से ही तथाकथित अतीत और भविष्य में कर लिया था। और इस तरह से वे वर्तमान वास्तविकता (This Moment of Now) से पूरी तरह से विच्छिन्न हो चुके थे। उन्हें कभी यह पता तक न चल सका कि इस प्रकार जिस स्वर्ग में वे अब तक आनन्दपूर्वक जी रहे थे, उससे कैसे अचानक बहिष्कृत हो गए थे और फिर ऐसा भी नहीं कि किसी और ईश्वर या परमात्मा या ऐसी किसी शक्ति ने उन्हें उस स्वर्ग से धकेलकर बाहर कर दिया था।
यह ज्ञान का फल था जिसके आस्वाद, स्पर्श, स्वर, रंग-रूप और गंध से वे मोहित और अभिभूत थे।
कल्पना और स्मृति के संयोग से भाषा की निर्मिति कर लेने के बाद इस माध्यम (interface) से वे कल्पनाओं को और अधिक विकसित, परिवर्धित और समृद्ध करने लगे थे और जिस समय की अवधारणा ने उनकी स्मृति में जन्म लिया उसका विस्तार अतीत में और भविष्य में दूर तक था जिसे कि उन्होंने क्रमशः अनादि और अनन्त का नाम दिया था।
यह ज्ञान, भान या बोध नहीं, उसका विकल्प था जिसे
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।
से परिभाषित किया जा सकता है और इस तरह एक प्रकार की वृत्ति ही था।
यह ज्ञान उस सहज भान से अत्यन्त भिन्न था जो इससे पहले उनके पास सहज जीवन की तरह उनका स्वर्ग था।
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