स्वर्ग से निष्कासित
वे दोनों जहाँ रह रहे थे वहाँ अभी तक ज्ञान का आगमन नहीं हो सका था। वहाँ पर जन्म, जीवन और मृत्यु भी थे किन्तु दुःख नहीं था। क्योंकि चेतना अभी स्मृति नामक विकार से दूषित नहीं हुई थी। क्योंकि वे अभी किसी भी शाब्दिक भाषा से नितान्त अनभिज्ञ थे। भाषा के अभाव में जो स्मृति थी वह अत्यन्त क्षीण और क्षणजीवी थी। न तो स्मृतियों की कोई छोटी या लंबी श्रँखलाएँ थी न समय का वह कल्पित आयाम ही वहाँ था, जिसमें तथाकथित अतीत और भविष्य एक ठोस यथार्थ की तरह मन पर हावी होकर उसे उद्वेलित किए रहते हैं। न वहाँ पर मन से अलग मन का कोई स्वामी ही था और न उस स्वामी से शासित कोई मन। बस वहाँ बस परिपूर्ण "अ-मन" का ही यत्र तत्र और सर्वत्र साम्राज्य था। इसलिए न तो कोई शासक था, और न ही कोई शासित ही था।
सहज स्वाभाविक सार्वत्रिक धर्म ही अस्तित्व स्वयं की तरह स्वयं अपने आपमें ही व्याप्त था, और यह निरंकुश या अराजक हो ऐसा भी संभव न था।
उस शब्द और बुद्धि से रहित धर्म में 'अर्थ' का आगमन होते ही वस्तुओं को अलग अलग शाब्दिक नाम प्राप्त हो गए और उनकी परस्पर तुलना की जाने लगी। वे छोटी, बड़ी, प्रिय, अप्रिय, आकर्षक और भयावह प्रतीत होने लगी। तब वे शब्दों के सार्थक प्रयोग से वाक्य-रचना भी करने लगे थे। यह एक रोचक अनुभव था जिसके द्वारा वे न केवल निर्जीव वस्तुओं को, बल्कि सजीव पशु पक्षियों, प्राणियों और चेतन, जीवन से परिपूर्ण संवेदनशील पेड़-पौधों पौधों आदि को नाम देने लगे और तब अकस्मात् ही उनका ऐसे एक सत्य से साक्षात्कार हुआ जिसे कि वे जीवन के उस अद्भुत् तत्व की तरह देख सकते थे जो कि सबमें नित्य व्याप्त होते हुए भी चेतना की तरह से अपने आपमें भी दिखाई देता था और यद्यपि व्यावहारिक रूप से वे जिसे अहं, इदं, त्वम् और तत् इत्यादि सर्वनामों से भी जानते और व्यक्त किया करते थे। उनमें से शायद ही किसी का ध्यान इस रोचक और आश्चर्यजनक सत्य पर जा सका कि एक और एकमेव जीवन से परिपूर्ण सजीव, निर्जीव, जड और चेतन वस्तुओं, मनुष्यों, पेड़-पौधों और विभिन्न पशु पक्षियों आदि अनगिनत प्रकारों में होते हुए भी वह जीवन सबके अस्तित्व का एकमात्र आधार और अधिष्ठान ही था। इस प्रकार उस प्रत्येक प्रकार में व्यक्त हो रहे प्रत्येक आभासी आकृति में अपने आपके स्वयं के अन्य शेष सभी आकृतियों से भिन्न, स्वतंत्र और पृथक् होने की भावना का जन्म हुआ। और यह भावना ही उस प्रत्येक आकृति के व्यक्तित्व में निरूपित और अभिव्यक्त हुई।
यह सब बिलकुल स्वाभाविक था किन्तु जैसा अभी अभी कहा गया, उनमें से शायद ही किसी का ध्यान इस रोचक और आश्चर्यजनक सत्य पर जा सका कि एक और ... ।
तब देवता आकाश / स्वर्ग से भूमि पर उतरे, और ईश्वर भी जो कि समस्त जड चेतन जगत् का स्वामी था, जो देवताओं पर भी शासन करता था, मनुष्यों, वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं आदि की तरह धरा पर अवतरित हुआ। यद्यपि वह इस सत्य से अनभिज्ञ भी नहीं था फिर भी उस उस आकृति विशेष की तरह से अवतरित होने पर वह भी अन्य सब की दृष्टि में, उन्हें उनके जैसा ही अल्पज्ञ और सामान्य सा प्रतीत होने लगा। हाँ, जब ईश्वर का उस उस अवतार में उसके द्वारा किया जानेवाला पूर्व निर्धारित कर्तव्य पूर्ण हो चुका तो वह भी अपने उस धाम को लौट गया यद्गत्वा न निवर्तन्ते...
अर्थात् वह धाम उस स्वर्ग से बिल्कुल और पूरी तरह से अलग कोई स्थान था जहाँ पर ये लोग और उनका संसार हुआ करते थे।
धर्म के क्षेत्र में अर्थ का आगमन होने तुरन्त ही बाद कर्म का प्रवेश हुआ जो धर्म के अनुकूल, प्रतिकूल या दोनों से मिश्रित था। उस धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र को ही बहुत बाद में किसी एक धार्मिक आध्यात्मिक ग्रन्थ में धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र का नाम दे दिया गया।
यह था ज्ञान का फल!
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि धर्म में अर्थ का प्रवेश होने के बाद तत्क्षण ही काम का भी उसके पीछे पीछे छाया की तरह धर्म में प्रवेश हो गया। और जैसा कि सभी जानते ही हैं :
...And the rest is history.
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