February 09, 2025

The Unichord

इकतारा

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यहाँ आते ही उन्होंने काम शुरू कर दिया था। वे आदिम तो थे लेकिन अंतिम नहीं सनातन थे। जब वह आया था तो उसके हाथों में एक इकतारा था जिसमें बकरी या भेड़ की त्वचा से बने ताँत की एक डोरी थी, जो दो सिरों पर दो खूँटियों पर कुछ कस कर बँधी हुई थी। बस वैसा ही एक वाद्ययंत्र था वह जिसे बहुत बदलने के बाद तानपूरा या सितार के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। सुघड़ लौकी या ऐसे ही दूसरे किसी फल जैसी वनस्पति की बेल पर लगे फल के पककर सूख जाने पर उसे साफकर उस पर यह ताँत की डोर बाँकी जाती थी। इसी फल को दूसरे तरीके से काटकर कमंडल भी बनाया जाता था जिसमें पीने का जल भी संचित कर लिया जाता था।

जब वह यहाँ आया था तो उसके कंधे पर यही वाद्ययंत्र टँगा हुआ था। और भी बहुत सारा सामान बाद में यहाँ वे लोग धीरे धीरे ले आए थे। तब उन दोनों के बीच परिचय और प्रेम हुआ था जो फिर अंतरंग और घनिष्ठ होता चला गया था।

कभी कभी जब वह बहुत प्रसन्न होता तो उस वाद्ययंत्र को हाथों में लेकर ताँत की उस डोरी को उंगली से कंपित कर उससे ध्वनि उत्पन्न करता। धीरे धीरे सतत अभ्यास और अन्वेषण, प्रयोग और अनुसंधान से उसने ध्वनि को इस प्रकार सिद्ध और शुद्ध कर लिया कि उस पर संगीत की कोई धुन अर्थात् सात सुरों के विशेष और व्यवस्थित  क्रम में बजाता रहता था। इस क्रम का आविष्कार उसने ही किया था। वह बस मंत्रमुग्ध होकर उसे सुनी रहती थी और उसे याद आता रहता था कि कैसे यद्यपि वह स्वयं अपने अकेलेपन में उन स्वरों को गुनगुनाती भी रहती थी, किन्तु उनके क्रम से बनी धुन उसे विस्मृत भी हो जाया करती रहती थी। जब वह एक दिन उसे बतलाए बिना ही अचानक ही कहीं चला गया था तो वह उस वाद्ययंत्र को लेकर उसे बजाने का प्रयास करने लगी थी, किन्तु उससे अभी कोई ऐसे सुर नहीं निकाल पाती थी जैसा कि वह निकाला करता था।

यह विशुद्ध स्वर थे। नाद जहाँ केवल प्रयोजन था, कोई  शाब्दिक अर्थ नहीं हुआ करता था। शब्दों का वस्तुओं से साहचर्य होने पर ही अर्थ का अविष्कार हुआ था और वे दोनों ही इस तथ्य के साक्षी थे। जब सर्वप्रथम उसने स्वयं ही 'अहं' पद का प्रयोग करते हुए स्वयं को इंगित कर उसे इस अर्थ से परिचित कराया था। इस प्रकार 'अहं' पद का अर्थ और प्रयोजन मूलतः एक होते हुए भी एक दूसरे से भिन्न और पृथक् हो गए। यह संयोगवश हुई एक दुर्घटना ही थी, क्योंकि जब तक उन्हें इस दुर्घटना का पता चलता तब तक तक बहुत देर हो चुकी थी। और आज भी उनके वंशजों का न केवल इस पर कभी ध्यान जा सका और न वे इसके दुष्परिणामों को जान सके।















इसे पेठा कहते हैं "पेठा" वैसे तो आगरा का प्रसिद्ध है, किन्तु आगरा और पेठा की व्युत्पत्ति कैसे हुई यह जानना रोचक है। आगरा तो संस्कृत भाषा के "अग्र" से व्युत्पन्न हुआ और क्रमशः "अगर" तथा  augur  में परिणत हो गया। उपनिषद् का एक वचन / सूत्र है :

सदेव सोम्येदमग्रमासीत्।।

या, 

सत् एव सोम्य / सौम्य इदं अग्रं आसीत्।।

वही अद्वैत श्रेष्ठ सद्वस्तु जब जगत् के रूप में अभिव्यक्त होती है और अपने आपको पुनः आभासी और दृग्दृश्य के रूप में द्वैत रूप में स्वयं ही जानती है तो जिस प्रकार से यह "जानना" होता और संप्रेषित किया जाता है, उसे ही "प्रेष्ठ" कहा जाता है। और इसी "प्रेष्ठ" का तद्भव रूप है "पेठा"। जिसे पुनः और भी परिष्कृत कर जिस मिठाई का रूप प्रदान किया जाता है उसे भी पर्याय से "पेठा" कहा जाने लगता है।

यह हुआ भाषा का इतिहास और इतिहास की भाषा।

आगे और पढ़ते रहिए!

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