आठ पंक्तियाँ
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हसरतों का हश्र ये होगा नहीं मालूम था,
क़सरतों की क़सर कहाँ कम पड़ गयी,
आरज़ूओं की देते रहे हम अर्ज़ियाँ,
ख़्वाहिशें सब ख़्वाब बनकर रह गईं।
मर्ज़ की इस तर्ज़ की तरज़ीह थी,
हर्ज़ का हर्ज़ाना भी हम देते रहे,
देना न देना था मगर मर्ज़ी उसकी,
रेत पर कुछ नाव यूँ खेते रहे।
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हसरतों का हश्र ये होगा नहीं मालूम था,
क़सरतों की क़सर कहाँ कम पड़ गयी,
आरज़ूओं की देते रहे हम अर्ज़ियाँ,
ख़्वाहिशें सब ख़्वाब बनकर रह गईं।
मर्ज़ की इस तर्ज़ की तरज़ीह थी,
हर्ज़ का हर्ज़ाना भी हम देते रहे,
देना न देना था मगर मर्ज़ी उसकी,
रेत पर कुछ नाव यूँ खेते रहे।
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