June 09, 2019

वज़ीर / फ़क़ीर

छोटी लकीर : बड़ी लकीर
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छोटी लकीरों के फ़क़ीर,
हमेशा ही, चलते रहते हैं
लकीर के इस सिरे से,
दूसरे सिरे तक ।
पेन्डुलम जैसे,
जैसे हुआ करती है,
मुल्ला की दौड़ मस्ज़िद तक,
बड़ी नज़ीरों के वज़ीर,
चलते हैं बिसात पर,
कभी छोटी या लम्बी,
सीधी या टेढ़ी चालें ।
कभी छोटी लकीरें,
बनकर के दायरा छोटा,
सिमटकर खो भी जाती हैं,
कभी मिल जाती हैं,
अपने से बड़े दायरे में,
जैसे कि कोई बड़ी मछली,
लील जाती है,
छोटी मछलियों को,
और कभी अकेली ही,
कर दिया करती हैं,
पूरा ही तालाब गन्दा ।
राजनीति, कभी तो राज-पाट है,
कभी घात-प्रतिघात है,
सृजन का उल्लास है,
या ध्वंस का उन्माद है ।
एक छिछला तालाब है,
या शतरंज की बिसात है ।
वज़ीर भी फ़क़ीर हुआ करते हैं,
फ़क़ीर भी वज़ीर हुआ करते हैं,
सवाल है सिर्फ़ उन लकीरों का,
जो दायरे या मिसाल हुआ करते हैं ।
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कविता आज की,
('आज तक' / 'भारत तक' पर श्वेता सिंह से श्री रविशंकर प्रसाद की बातचीत देखते-सुनते हुए .....)   

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