उस शहर में
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वह शहर मैंने 19 मार्च 2016 को छोड़ा था।
18 मार्च को एकाएक तय किया / हुआ।
19 मार्च की शाम को वहाँ से चला और उसी रात साढ़े नौ बजे केवटग्राम पहुँचा।
5 अगस्त 2016 की सुबह 10:30 पर केवटग्राम छोड़ा और दोपहर 1:00 बजे यहाँ (देवास) आ गया।
उस शहर में मेरे निवास-स्थल (महाशक्तिनगर) के पीछे स्थित एक कॉलोनी में वे रहते हैं।
किसी सरकारी विभाग में कार्यरत थे और किन्हीं परिस्थितियों में उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी।
मैंने कभी उनसे पूछा नहीं। पूछना ठीक नहीं लगा।
बहरहाल वे मधुबन कॉलोनी के उस मकान में रहते हैं जहाँ उन्होंने पिछले बीस वर्षों में खून-पसीने से सींचकर दुर्लभ आयर्वेदिक वनस्पतियों का एक उपवन निर्मित किया। स्वाभाविक है कि वह उन्हें प्राणों से भी ज़्यादा प्रिय था। लेकिन दुष्टों की नज़र उस भूमि पर पड़ गयी और अनेक षड्यंत्र रचे जाने के बाद कुछ माह पहले उन लोगों की जीत हुई। वन-विभाग, पर्यावरण-विभाग, दूसरे सरकारी विभागों में की गयी उनकी प्रार्थनाओं का कोई असर नहीं पड़ा। जे.सी.बी. मशीन लाकर उनके उस उपवन को जमींदोज़ कर दिया गया तो वहाँ सौ-पचास कारें पार्क करने की जगह निकल आई। और वह भी शहर के बीच के उस महँगे location पर।
चार दिन पहले एकाएक उनका फ़ोन आया तो भूल से मैंने उनके उपवन के बारे में पूछ लिया।
उनकी आवाज़ बदल गयी। आवाज़ में उनका दर्द छलक आया। संक्षेप में पूरी कहानी सुनाई।
बहुत पहले मेरा उनसे परिचय तब हुआ था जब वे मेरी किताब (अहं ब्रह्मास्मि) लेने के लिए मेरे पास आए थे। चूँकि वे मुझे बहुत मानते हैं इसलिए कभी-कभी उनसे आध्यात्मिक महत्त्व की बातें करने का साहस मैं कर बैठता हूँ । मैंने उनकी पूरी कहानी शांतिपूर्वक सुनने के बाद पूछा :
"चतुर्वेदी जी ! आप इतने दुःखी क्यों हैं?"
"अब वह उपवन नहीं रहा, इसलिए।"
उन्होंनें लगभग रोते-रोते कहा।
लगभग दस सेकंड हम दोनों ही मौन रहे।
"बुरा न समझें तो एक बात पूछ सकता हूँ?"
मैंने उनसे कहा।
"जी पूछिए !"
"क्या बीस साल पहले वह उपवन था?"
"नहीं जी, तब तो वहाँ खाली जमीन पड़ी थी, जो इस कॉलोनी के बनते समय से ही वैसी ही पडी थी, इसीलिए मेरे मन में वहाँ उपवन लगाने का विचार आया था, क्योंकि बचपन से ही मुझे पेड़-पौधों से बहुत लगाव था।"
"तो तब वहाँ उपवन भी नहीं रहा होगा।"
"ज़ाहिर है कि तब वहाँ उपवन कहाँ था ?"
"क्या तब उपवन के न होने का दुःख था?"
वे रोते-रोते अचानक हँसने भी लगे।
"फिर जब आज वह नहीं है तो उसके न होने का दुःख क्यों?"
"यह सही है, लेकिन मन जुड़ जाता है न !"
"हाँ, मुझे भी अफ़सोस है, लेकिन जीवन ऐसा ही है। क्या आपको मेरी बात बुरी लगी?"
वे जानते थे कि मैं उपदेश देने से क़तराता हूँ, और बावजूद तमाम संकोच के बस उनका दुःख बाँटना भर चाहता था।
"नहीं, आप ठीक कहते हैं, इसीलिए तो मैंने फोन किया था कि मेरा दुःख हल्का हो जाए। आपने तो मेरे सभी दुःख दूर कर दिए ! धन्यवाद !"
मैं नहीं सोचता कि उन्होंने व्यंग्य या कटुता से ऐसा कहा होगा।
"सॉरी ! मैंने आपको ठेस पहुँचाई !"
"नो सर ! आपने तो मेरी इतनी बड़ी सहायता की है, जिसकी मुझे कल्पना तक न थी।"
जब वे बहुत आत्मीयता से बातें करते, तो मुझे सर कहने लगते थे।
उनकी आवाज़ में एक चमक थी। शायद यही चमक उनके आँसुओं में, और उनके चेहरे पर भी उस समय रही होगी। उनकी आवाज़ में एक महक थी जो शायद उन फूलों की थी, जो कभी उनके उपवन में खिले होंगे, और उपवन के रहने पर आगे भी खिल सकते थे।
- या ऐसा मुझे लगा।
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वह शहर मैंने 19 मार्च 2016 को छोड़ा था।
18 मार्च को एकाएक तय किया / हुआ।
19 मार्च की शाम को वहाँ से चला और उसी रात साढ़े नौ बजे केवटग्राम पहुँचा।
5 अगस्त 2016 की सुबह 10:30 पर केवटग्राम छोड़ा और दोपहर 1:00 बजे यहाँ (देवास) आ गया।
उस शहर में मेरे निवास-स्थल (महाशक्तिनगर) के पीछे स्थित एक कॉलोनी में वे रहते हैं।
किसी सरकारी विभाग में कार्यरत थे और किन्हीं परिस्थितियों में उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी।
मैंने कभी उनसे पूछा नहीं। पूछना ठीक नहीं लगा।
बहरहाल वे मधुबन कॉलोनी के उस मकान में रहते हैं जहाँ उन्होंने पिछले बीस वर्षों में खून-पसीने से सींचकर दुर्लभ आयर्वेदिक वनस्पतियों का एक उपवन निर्मित किया। स्वाभाविक है कि वह उन्हें प्राणों से भी ज़्यादा प्रिय था। लेकिन दुष्टों की नज़र उस भूमि पर पड़ गयी और अनेक षड्यंत्र रचे जाने के बाद कुछ माह पहले उन लोगों की जीत हुई। वन-विभाग, पर्यावरण-विभाग, दूसरे सरकारी विभागों में की गयी उनकी प्रार्थनाओं का कोई असर नहीं पड़ा। जे.सी.बी. मशीन लाकर उनके उस उपवन को जमींदोज़ कर दिया गया तो वहाँ सौ-पचास कारें पार्क करने की जगह निकल आई। और वह भी शहर के बीच के उस महँगे location पर।
चार दिन पहले एकाएक उनका फ़ोन आया तो भूल से मैंने उनके उपवन के बारे में पूछ लिया।
उनकी आवाज़ बदल गयी। आवाज़ में उनका दर्द छलक आया। संक्षेप में पूरी कहानी सुनाई।
बहुत पहले मेरा उनसे परिचय तब हुआ था जब वे मेरी किताब (अहं ब्रह्मास्मि) लेने के लिए मेरे पास आए थे। चूँकि वे मुझे बहुत मानते हैं इसलिए कभी-कभी उनसे आध्यात्मिक महत्त्व की बातें करने का साहस मैं कर बैठता हूँ । मैंने उनकी पूरी कहानी शांतिपूर्वक सुनने के बाद पूछा :
"चतुर्वेदी जी ! आप इतने दुःखी क्यों हैं?"
"अब वह उपवन नहीं रहा, इसलिए।"
उन्होंनें लगभग रोते-रोते कहा।
लगभग दस सेकंड हम दोनों ही मौन रहे।
"बुरा न समझें तो एक बात पूछ सकता हूँ?"
मैंने उनसे कहा।
"जी पूछिए !"
"क्या बीस साल पहले वह उपवन था?"
"नहीं जी, तब तो वहाँ खाली जमीन पड़ी थी, जो इस कॉलोनी के बनते समय से ही वैसी ही पडी थी, इसीलिए मेरे मन में वहाँ उपवन लगाने का विचार आया था, क्योंकि बचपन से ही मुझे पेड़-पौधों से बहुत लगाव था।"
"तो तब वहाँ उपवन भी नहीं रहा होगा।"
"ज़ाहिर है कि तब वहाँ उपवन कहाँ था ?"
"क्या तब उपवन के न होने का दुःख था?"
वे रोते-रोते अचानक हँसने भी लगे।
"फिर जब आज वह नहीं है तो उसके न होने का दुःख क्यों?"
"यह सही है, लेकिन मन जुड़ जाता है न !"
"हाँ, मुझे भी अफ़सोस है, लेकिन जीवन ऐसा ही है। क्या आपको मेरी बात बुरी लगी?"
वे जानते थे कि मैं उपदेश देने से क़तराता हूँ, और बावजूद तमाम संकोच के बस उनका दुःख बाँटना भर चाहता था।
"नहीं, आप ठीक कहते हैं, इसीलिए तो मैंने फोन किया था कि मेरा दुःख हल्का हो जाए। आपने तो मेरे सभी दुःख दूर कर दिए ! धन्यवाद !"
मैं नहीं सोचता कि उन्होंने व्यंग्य या कटुता से ऐसा कहा होगा।
"सॉरी ! मैंने आपको ठेस पहुँचाई !"
"नो सर ! आपने तो मेरी इतनी बड़ी सहायता की है, जिसकी मुझे कल्पना तक न थी।"
जब वे बहुत आत्मीयता से बातें करते, तो मुझे सर कहने लगते थे।
उनकी आवाज़ में एक चमक थी। शायद यही चमक उनके आँसुओं में, और उनके चेहरे पर भी उस समय रही होगी। उनकी आवाज़ में एक महक थी जो शायद उन फूलों की थी, जो कभी उनके उपवन में खिले होंगे, और उपवन के रहने पर आगे भी खिल सकते थे।
- या ऐसा मुझे लगा।
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