राजभाषा का राज़
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मेरे इस ब्लॉग के पाठकों ने अनुभव किया होगा कि हिन्दी से मुझे प्यार है। सच्चाई तो यह है कि ब्लॉग पर लिखने की शुरुआत मैंने इसी ब्लॉग से की थी और इसका शीर्षक भी यही दर्शाता है। मैं नहीं कह सकता कि विभिन्न भाषाओं का मेरा ज्ञान कितना है लेकिन यह ज़रूर अनुभव करता हूँ कि केवल हिन्दी ही वह भाषा है जिसे मैं ओढ़ता-बिछाता हूँ और जिसमें प्रायः सोचता भी हूँ। हाँ कभी-कभी मराठी भाषा में इसी तरह सोचता हूँ क्योंकि 'सोचना' तो नितांत व्यक्तिगत मामला है। वैसे मराठी मेरी मातृभाषा भी है। मेरी स्कूल की शिक्षा हिन्दी माध्यम से हुई लेकिन कॉलेज में प्रवेश लेते समय मैंने अंग्रेज़ी का महत्व महसूस किया इसलिए विज्ञान और गणित विषयों में ग्रेजुएशन तथा पोस्ट-ग्रेजुएशन किया।
यदि विज्ञान और गणित में मेरी अभिरुचि (aptitude) न होती तो आजीविका की दृष्टि से शायद मैं कॉमर्स विषयों में स्कूल की शिक्षा लेता लेकिन कला-संकाय में इसलिए नहीं जाता कि मैं कला-क्षेत्र की विद्याओं को स्कूल और कॉलेज से बाहर भी सीख सकता था।
साथ ही, केवल कला-क्षेत्र के ज्ञान से संतोषजनक आजीविका (नौकरी) मिल पाना भी संदिग्ध या मुश्किल प्रतीत होता था। दूसरी ओर, मैं विज्ञान, गणित और अंग्रेज़ी को छोड़ना भी नहीं चाहता था।
जैसा कि प्यार (infatuation) में होता है, बुद्धि के मोहित हो जाने पर मनुष्य यह भी भूल जाता है कि किस बात (कारण / वज़ह) से वह इतना मोहित हुआ, वैसे ही मैं संस्कृत और लगभग किसी भी भाषा से प्यार करने लगा।
1969-1970 के मेरे स्कूल के दिनों में आकाशवाणी से विभिन्न भाषाएँ सिखाने के कार्यक्रम प्रसारित हुआ करते थे। मेरे छोटे भाई ने तमिल, मैंने मलयालम और मेरी एक बहन ने तेलुगु सीखना तय किया, क्योंकि सीखने के लिए हमें ये ही भाषाएँ उपलब्ध थीं। इन्हीं दिनों मेरी माताजी का किन्हीं मलयालम-भाषी नर्सेज़ से परिचय हुआ तो मलयालम में मेरी उत्सुकता के कारण मैं उनके पास यह भाषा सीखने के लिए जाने लगा। एक कारण यह भी था की मैं रेडियो से मलयालम की लिपि नहीं सीख सकता था। मुझे यह नहीं पता था कि उनमें से केवल दो ही मलयाली थीं, जबकि तीसरी बांग्लाभाषी थी। तीनों उम्र में मुझसे बड़ी थीं, शायद इसलिए भी मुझे उनसे झिझक या शर्म नहीं थी। मैंने उनसे कुछ सरल बोल-चाल में प्रयुक्त होनेवाले वाक्य और शब्द सीखे।
कुछ समय बाद कादम्बिनी पत्रिका में 'तमिल' सीखने के लेख मिले तो तमिल सीखने का प्रयास किया लेकिन फिर वह अधूरा ही रह गया।
मराठी में मेरे लिए सीखने जैसा कुछ नहीं था और मुझे हमेशा लगा कि मराठी लिखने (के अभ्यास) से मेरा हिन्दी भाषा का ज्ञान तथा प्रयोग गड़बड़ाता है, इसलिए भी मैं मराठी लिखने से बचता रहा क्योंकि मैं अपनी हिन्दी को बिगाड़ना नहीं चाहता था।
यद्यपि मैंने दासबोध का अध्ययन किया किन्तु उसे केवल उसकी शिक्षा के लिए किया, न कि उसके मराठी होने के कारण। वैसे ही जैसे मैंने अंग्रेज़ी माध्यम से विज्ञान और गणित का तथा संस्कृत माध्यम से वेदांत या अध्यात्म का अध्ययन किया।
इस प्रकार विभिन्न भाषाएँ मेरे लिए वह शाक-भाजी थीं जिन्हें मुख्य भोजन के लिए सहायक साधन की तरह इस्तेमाल किया जाता है। मुख्य भोजन (रोटी या चांवल) तो ज्ञान था।
शायद इसीलिए जैसे दाल या शाक-भाजी के बदलने से मुख्य भोजन नहीं बदलता और फिर भी आपको भिन्न-भिन्न शाक-भाजी या दाल पसंद होते हैं, वैसे ही विभिन्न भाषाओं से मुझे लगाव हुआ। मुझे यही समझ में आया कि सभी भाषाएँ इस दृष्टि से समान हैं कि उनका उपयोग है। किसी दूसरी दृष्टि से उन्हें इस प्रकार से देखना कि उनका धर्म या जाति या वर्ग-विशेष से संबंध है वास्तव में एक संकुचित दृष्टिकोण है। सच्चाई तो यह है कि सभी भाषाएँ एक-दूसरे को समृद्ध ही करती हैं, और कोई भी मनुष्य जितनी अधिक भाषाएँ जानता है, वह उतना ही अधिक सहिष्णु और उदार होगा। अगर आपको धरती और मनुष्यों से प्यार है तो आपका किसी भी भाषा से सामंजस्य बैठने लगेगा।
भारत की भाषाओं, समुदायों / सम्प्रदायों, संस्कृतियों आदि के आधार पर भारतीयों में वैर पैदा करना अंग्रेज़ी शासन की सोची-समझी रणनीति थी और इसके पीछे लक्ष्य था भारत को ईसाई बनाना। वह इसी प्रकार से और तभी संभव था जब यहाँ के विभिन्न भाषाओं, समुदायों / सम्प्रदायों, संस्कृतियों, परंपराओं की घोर निंदा की जाए और पूरा भारतीय समाज अपने-अपने जीवन-दर्शन को त्याग दे, हीनता-ग्रंथि से ग्रस्त हो जाए।
वास्तव में विरोध तो अंग्रेज़ी का होना चाहिए जिसने हमारी समृद्धि और विरासत को न सिर्फ लूटा और विखंडित किया, बल्कि बुरी तरह से नष्ट भी कर दिया।
किन्तु चूँकि अंग्रेज़ी भी व्यवहार का माध्यम है, एक भाषा के रूप में उसका भी यथोचित सम्मान अवश्य किया जा सकता है। अंग्रेज़ी फिर भी हमारी अपनी माता का स्थान तो नहीं ले सकती।
जैसे आज अंग्रेज़ी एक तरह से पूरे विश्व में इस्तेमाल की जाती है उसी तरह आनेवाले कुछ वर्षों में हिन्दी भी की जाने लगेगी, यह उम्मीद ज़रूर की जानी चाहिए।
संक्षेप में स्कूली शिक्षा में केवल दो ही भाषाएँ अनिवार्य होनी चाहिए :
एक मातृभाषा, दूसरी बच्चे की जिसमें रुचि हो वह दूसरी भाषा।
तीसरी, चौथी भाषा के रूप में किसी भाषा को ऐच्छिक विषय के रूप में पढ़ा / पढ़ाया जा सकता है।
इन ऐच्छिक भाषाओं में प्राप्त अंकों / श्रेणी आदि को शिक्षा के मूल-प्रमाण-पत्रों से अलग रखा जा सकता है।
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मेरे इस ब्लॉग के पाठकों ने अनुभव किया होगा कि हिन्दी से मुझे प्यार है। सच्चाई तो यह है कि ब्लॉग पर लिखने की शुरुआत मैंने इसी ब्लॉग से की थी और इसका शीर्षक भी यही दर्शाता है। मैं नहीं कह सकता कि विभिन्न भाषाओं का मेरा ज्ञान कितना है लेकिन यह ज़रूर अनुभव करता हूँ कि केवल हिन्दी ही वह भाषा है जिसे मैं ओढ़ता-बिछाता हूँ और जिसमें प्रायः सोचता भी हूँ। हाँ कभी-कभी मराठी भाषा में इसी तरह सोचता हूँ क्योंकि 'सोचना' तो नितांत व्यक्तिगत मामला है। वैसे मराठी मेरी मातृभाषा भी है। मेरी स्कूल की शिक्षा हिन्दी माध्यम से हुई लेकिन कॉलेज में प्रवेश लेते समय मैंने अंग्रेज़ी का महत्व महसूस किया इसलिए विज्ञान और गणित विषयों में ग्रेजुएशन तथा पोस्ट-ग्रेजुएशन किया।
यदि विज्ञान और गणित में मेरी अभिरुचि (aptitude) न होती तो आजीविका की दृष्टि से शायद मैं कॉमर्स विषयों में स्कूल की शिक्षा लेता लेकिन कला-संकाय में इसलिए नहीं जाता कि मैं कला-क्षेत्र की विद्याओं को स्कूल और कॉलेज से बाहर भी सीख सकता था।
साथ ही, केवल कला-क्षेत्र के ज्ञान से संतोषजनक आजीविका (नौकरी) मिल पाना भी संदिग्ध या मुश्किल प्रतीत होता था। दूसरी ओर, मैं विज्ञान, गणित और अंग्रेज़ी को छोड़ना भी नहीं चाहता था।
जैसा कि प्यार (infatuation) में होता है, बुद्धि के मोहित हो जाने पर मनुष्य यह भी भूल जाता है कि किस बात (कारण / वज़ह) से वह इतना मोहित हुआ, वैसे ही मैं संस्कृत और लगभग किसी भी भाषा से प्यार करने लगा।
1969-1970 के मेरे स्कूल के दिनों में आकाशवाणी से विभिन्न भाषाएँ सिखाने के कार्यक्रम प्रसारित हुआ करते थे। मेरे छोटे भाई ने तमिल, मैंने मलयालम और मेरी एक बहन ने तेलुगु सीखना तय किया, क्योंकि सीखने के लिए हमें ये ही भाषाएँ उपलब्ध थीं। इन्हीं दिनों मेरी माताजी का किन्हीं मलयालम-भाषी नर्सेज़ से परिचय हुआ तो मलयालम में मेरी उत्सुकता के कारण मैं उनके पास यह भाषा सीखने के लिए जाने लगा। एक कारण यह भी था की मैं रेडियो से मलयालम की लिपि नहीं सीख सकता था। मुझे यह नहीं पता था कि उनमें से केवल दो ही मलयाली थीं, जबकि तीसरी बांग्लाभाषी थी। तीनों उम्र में मुझसे बड़ी थीं, शायद इसलिए भी मुझे उनसे झिझक या शर्म नहीं थी। मैंने उनसे कुछ सरल बोल-चाल में प्रयुक्त होनेवाले वाक्य और शब्द सीखे।
कुछ समय बाद कादम्बिनी पत्रिका में 'तमिल' सीखने के लेख मिले तो तमिल सीखने का प्रयास किया लेकिन फिर वह अधूरा ही रह गया।
मराठी में मेरे लिए सीखने जैसा कुछ नहीं था और मुझे हमेशा लगा कि मराठी लिखने (के अभ्यास) से मेरा हिन्दी भाषा का ज्ञान तथा प्रयोग गड़बड़ाता है, इसलिए भी मैं मराठी लिखने से बचता रहा क्योंकि मैं अपनी हिन्दी को बिगाड़ना नहीं चाहता था।
यद्यपि मैंने दासबोध का अध्ययन किया किन्तु उसे केवल उसकी शिक्षा के लिए किया, न कि उसके मराठी होने के कारण। वैसे ही जैसे मैंने अंग्रेज़ी माध्यम से विज्ञान और गणित का तथा संस्कृत माध्यम से वेदांत या अध्यात्म का अध्ययन किया।
इस प्रकार विभिन्न भाषाएँ मेरे लिए वह शाक-भाजी थीं जिन्हें मुख्य भोजन के लिए सहायक साधन की तरह इस्तेमाल किया जाता है। मुख्य भोजन (रोटी या चांवल) तो ज्ञान था।
शायद इसीलिए जैसे दाल या शाक-भाजी के बदलने से मुख्य भोजन नहीं बदलता और फिर भी आपको भिन्न-भिन्न शाक-भाजी या दाल पसंद होते हैं, वैसे ही विभिन्न भाषाओं से मुझे लगाव हुआ। मुझे यही समझ में आया कि सभी भाषाएँ इस दृष्टि से समान हैं कि उनका उपयोग है। किसी दूसरी दृष्टि से उन्हें इस प्रकार से देखना कि उनका धर्म या जाति या वर्ग-विशेष से संबंध है वास्तव में एक संकुचित दृष्टिकोण है। सच्चाई तो यह है कि सभी भाषाएँ एक-दूसरे को समृद्ध ही करती हैं, और कोई भी मनुष्य जितनी अधिक भाषाएँ जानता है, वह उतना ही अधिक सहिष्णु और उदार होगा। अगर आपको धरती और मनुष्यों से प्यार है तो आपका किसी भी भाषा से सामंजस्य बैठने लगेगा।
भारत की भाषाओं, समुदायों / सम्प्रदायों, संस्कृतियों आदि के आधार पर भारतीयों में वैर पैदा करना अंग्रेज़ी शासन की सोची-समझी रणनीति थी और इसके पीछे लक्ष्य था भारत को ईसाई बनाना। वह इसी प्रकार से और तभी संभव था जब यहाँ के विभिन्न भाषाओं, समुदायों / सम्प्रदायों, संस्कृतियों, परंपराओं की घोर निंदा की जाए और पूरा भारतीय समाज अपने-अपने जीवन-दर्शन को त्याग दे, हीनता-ग्रंथि से ग्रस्त हो जाए।
वास्तव में विरोध तो अंग्रेज़ी का होना चाहिए जिसने हमारी समृद्धि और विरासत को न सिर्फ लूटा और विखंडित किया, बल्कि बुरी तरह से नष्ट भी कर दिया।
किन्तु चूँकि अंग्रेज़ी भी व्यवहार का माध्यम है, एक भाषा के रूप में उसका भी यथोचित सम्मान अवश्य किया जा सकता है। अंग्रेज़ी फिर भी हमारी अपनी माता का स्थान तो नहीं ले सकती।
जैसे आज अंग्रेज़ी एक तरह से पूरे विश्व में इस्तेमाल की जाती है उसी तरह आनेवाले कुछ वर्षों में हिन्दी भी की जाने लगेगी, यह उम्मीद ज़रूर की जानी चाहिए।
संक्षेप में स्कूली शिक्षा में केवल दो ही भाषाएँ अनिवार्य होनी चाहिए :
एक मातृभाषा, दूसरी बच्चे की जिसमें रुचि हो वह दूसरी भाषा।
तीसरी, चौथी भाषा के रूप में किसी भाषा को ऐच्छिक विषय के रूप में पढ़ा / पढ़ाया जा सकता है।
इन ऐच्छिक भाषाओं में प्राप्त अंकों / श्रेणी आदि को शिक्षा के मूल-प्रमाण-पत्रों से अलग रखा जा सकता है।
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