शिक्षा और कृषि के तत्व
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शिक्षा और कृषि दो ऐसे उपक्रम हैं जो मनुष्य के सांस्कृतिक अस्तित्व की पहचान तय करते हैं।
जैसे कृषि के लिए हमें भूमि, जलवायु, परिस्थितियों और उपज की जानकारी होना ज़रूरी और उपयोगी है उसी प्रकार शिक्षा के लिए समाज, समाज के वातावरण, सामाजिक / राजनैतिक परिस्थितियों, और शिक्षा से हमें किस (हितग्राही) के लिए क्या उपलब्ध करना है, -अर्थात् शिक्षा का लक्ष्य और प्रयोजन जानना ज़रूरी है।
जैसे कृषि-कार्य में सबसे पहले भूमि को उपज / फसल की आवश्यकतानुसार तैयार किया जाना होता है, वैसे ही शिक्षा की बुनियाद जिन तत्वों पर सुनियोजित रीति से आधारित होना चाहिए उन विभिन्न तत्वों पर ध्यान देना ज़रूरी है। अभी तो स्थिति यह है कि हमारी शिक्षा-व्यवस्था केवल रोज़गार उपलब्ध कराने पर केंद्रित है। बढ़ती जनसंख्या में जिस प्रकार की शिक्षा से हर व्यक्ति को रोज़गार मिले यही चिंता हमारी शिक्षा-व्यवस्था की मूल प्रेरणा है और उसे हम सर्वाधिक महत्त्व देते हैं।
स्पष्ट है कि प्रकृति से सामंजस्य के साथ रहने के लिए बढ़ती जनसंख्या सबसे बड़ी वैश्विक चुनौती है, जिसका सामना हमें पूरे मनुष्य-समाज को ध्यान में रखते हुए करना होगा, और यही हमारे राजनैतिक नेतृत्व की परीक्षा भी है जिससे लगभग हर राष्ट्र के राजनेता शायद अनभिज्ञ हैं, या जिसकी ओर से लापरवाह हैं। यही राजनीति का चरित्र है जिसके मूल में सभी के अपने-अपने निजी स्वार्थ और भय भी हैं।
राजनैतिक अस्थिरता, चाहे वह आन्तरिक राजनीतिक स्थितियों से पैदा होती हो, या दुनिया के तमाम देशों के बीच की टकराहट का परिणाम हो, हमें इस मूल प्रश्न की ओर ध्यान ही नहीं देने देती। मनुष्यों की सतत बढ़ती हुई जनसंख्या और संसाधनों की निरंतर घटती उपलब्धता, संसाधनों के बेतहाशा अपव्यय, अपक्षय, और विनाश (degeneration and destruction) पर हमारा ध्यान ही कहाँ है?
यह भी महत्वपूर्ण है कि जैसे कृषि के लिए भूमि को तैयार करने में पहले हानिकारक खर-पतवार और अवांछित घातक कारकों को दूर करना आवश्यक रूप से ज़रूरी होता है, वैसे ही शिक्षा के संस्थानों को भी उन सभी क्षति-प्रद कारकों और तत्वों से मुक्त किया जाना ज़रूरी है, जो शिक्षा से प्राप्त किए जानेवाले हमारे अपेक्षित लक्ष्य में बाधक हैं, या जिनसे हमारी शिक्षा की गतिविधि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
यह एक आश्चर्यजनक संयोग मात्र नहीं है कि पूरे संसार में शिक्षा का जितना संबंध तथाकथित 'धर्म' से रहा है, उतना ही राजनीति से भी रहा है। मूलतः संस्कृत भाषा में जिसे 'धर्म' कहा जाता है उसके लिए किसी दूसरी भाषा में ऐसा कोई समानार्थी शब्द शायद है ही नहीं, जो इसके वैदिक तात्पर्य को ठीक-ठीक व्यक्त कर सके।
अंग्रेज़ी भाषा में प्रचलित शब्द 'religion' संस्कृत की 'लग्' धातु से बने अनेक शब्दों में से ही एक है। 'लग्' धातु (stem) इतनी सार्वत्रिक (ubiquitous) है कि इससे leg, legal, lug, log, logistic, log-in, ligature, legitimate / legitimacy, illegal, delegate, relegate, religion जैसे शब्द बने जिनमें से relegate (-to) का प्रयोग किसी तत्व, वस्तु, विधि या सिद्धांत का उसके मूल स्वरूप से विरूपण करने, बिगाड़ने, उसके गुण-क्षरण (dilution) के अर्थ में किया जाता है। इस प्रकार religion; - वास्तव में 'धर्म' से बहुत भिन्न और कभी-कभी बिलकुल विपरीत स्थापित और प्रचलित हुई उन परंपराओं, रूढ़ियों और मतों, धारणाओं, विश्वासों को दिया गया नाम है जिन्हें समाज के विभिन्न समुदायों ने अपनी अस्मिता की पहचान बना लिया। इसलिए यह अनुमान अवश्य किया जा सकता है कि उन तमाम परंपराओं, रूढ़ियों और मतों, धारणाओं, विश्वासों में 'धर्म' का कुछ अंश तो अवश्य हो सकता है, किन्तु इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनमें से कुछ वास्तविक 'धर्म' की न सिर्फ विरोधी ही, बल्कि अधर्म या विधर्म पर ही आधारित हैं। यद्यपि उनमें से प्रत्येक परंपरा, रूढ़ि, और मत, धारणा और विशवास / आस्था की संभवतः कोई आध्यात्म-परक व्याख्या भी की जा सकती है, इसलिए यह लगता है कि 'सब धर्म एक ही सत्य के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं,' लेकिन व्यावहारिक रूप में इस व्याख्या से उनके बीच विद्यमान वैमनस्य और विद्वेष, विरोध और पारस्परिक असहिष्णुता तथा अविश्वास दूर नहीं होता।
यह है धर्म का वह 'राजनीतिक' पक्ष जो लोभ-भय से प्रेरित होकर शिक्षा को भी अपने लाभ के लिए औज़ार के रूप में प्रयुक्त करता है। और यही हालत पूरे विश्व में है।
इसलिए रोज़गार-परक शिक्षा देना शिक्षा के प्रश्न का एक प्रमुख पहलू तो हो सकता है लेकिन वह इस चुनौती का सक्षम ज़वाब नहीं है कि सबको रोज़गार मिल जाना ही दूसरी अनेक समस्याओं का निदान और हल / समाधान है।
उन दूसरी अनेक समस्याओं में विभिन्न देशों की भौगौलिक-राजनीतिक और पारस्परिक मैत्री, शत्रुता, आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों की स्थितियाँ भी हैं, जिन पर हमारा ध्यान किसी वजह से निष्पक्ष, न्यायपूर्ण नहीं होता।
विकास के नाम पर भौतिक-उन्नति के आग्रह में हम उन तमाम स्थितियों को निरंतर पैदा कर रहे हैं जो अंततः मनुष्य-जाति का और पृथ्वी से 'जीवन' का ही विनाश करने जा रही हैं । शायद आज की स्थिति में वे हमें एकमात्र 'हल' या आवश्यकता भी दिखाई देतीं हों, किन्तु दीर्घ-काल में तो उनका यही परिणाम होना है।
विज्ञान, तकनीक और मुद्रा (अर्थशास्त्र) अपने-आपमें हमें किसी हद तक 'सुखी' बना सकते हैं किन्तु 'सुख' तथा 'दुःख' भी मानसिक प्रकार की वस्तुएँ हैं न कि विशुद्धतः 'भौतिक' वस्तुएँ। और जब तक मनुष्य का मन भय और लोभ से ग्रस्त रहता है ऐसा 'सुख' न तो स्थायी और न ही 'प्राप्य' भी है। विज्ञान, तकनीक और मुद्रा का परस्पर विनिमय (exchange) किया जा सकता है लेकिन 'सुख' तथा 'दुःख', लोभ तथा भय का ऐसा विनिमय संभव नहीं है। शिक्षा भी एक प्रकार का विनिमय है; - तकनीक, विचार, भावना, बुद्धि या विवेक (intelligence) का।
यदि और जब तक, शिक्षा हमारे सामूहिक-मन से भय और लोभ का उन्मूलन नहीं करती तब तक किसी भी प्रकार की तथाकथित 'धार्मिक'-शिक्षा हमारे लिए कोई अर्थ नहीं रखती। न तो वैयक्तिक और न सामूहिक सुख अथवा दुःख कहीं होते हैं। वे बस अमूर्त और अस्थिर धारणाएँ / मान्यताएँ (abstract notions) भर होते हैं, जो व्यक्ति-मन और समूह-मन के स्तर पर मनुष्य-मात्र की चिंता अर्थात् चुनौती हैं। और यह चुनौती आज की ही नहीं, हमेशा ही रहनेवाली चुनौती भी है।
एक अत्यंत रोचक तथ्य और विडम्बना यह भी है कि युद्ध की शिक्षा ही नहीं बल्कि उसका प्रशिक्षण भी हमारी शिक्षा-नीति और हमारे सामूहिक अस्तित्व का एक प्रबल पक्ष है। यह समझना कठिन है कि इस पर रोया या हँसा जाए !
जब तक हमारी मानसिकता इतनी विकसित और परिपक्व न हो जाए, कि इस चुनौती को ठीक से समझकर इसका सम्यक् प्रत्युत्तर दे सके, तब तक किसी प्रकार की दूसरी शिक्षा तात्कालिक उपयोग की दृष्टि से ज़रूरी भले ही हो, इस चुनौती से पलायन का ही केवल एक और प्रकार-मात्र है।
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शिक्षा एक चुनौती, शिक्षा-प्रसंग
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