July 22, 2017

आज की कविता -- कुछ भी !

आज की कविता
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कुछ भी !
(न) नींद आयेगी न ख़्वाब आयेंगे,
न दर्द के ख़तों के जवाब आयेंगे ।
आँखें हो जायेंगी हालाँकि बोझिल,
फ़िर भी न चैन-ओ-सवाब आयेंगे ।
वक़्त बीत जायेगा यूँ ही तन्हाँ तन्हाँ,
दोस्त फिर भी नहीं जनाब आयेंगे,
रौशनी जब हो चुकी होगी बेनूर,
तब कहीं जाके रुख़े-शबाब आयेंगे ।
जाम रहने दे अभी मेरे खाली,
नज़र-ए-साक़ी से दौरे-शराब आयेंगे ।
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July 16, 2017

कविता : रेत पर ठहरी नाव,

आज की कविता
--©
सार्थकता
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रेत पर ठहरी नाव,
देखती है नदी को,
सतृष्ण नम आँखों से,
बस प्रतीक्षा नाविक की,
जो ले जाए उस पार,
फिर वहाँ पर और कोई,
दूसरा या फिर वही,
जो ले आये इस पार,
या कि बस डोलती रहे,
ठहरी रहे वह नदी में ही,
तैरती हो या कि ठहरी,
या डूब जाये मझधार!
या कि बरसे खूब बारिश,
लील ले सैलाब फैला,
और वह सैलाब में भी,
हो रहे बस नदी होकर,
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’प्रमाण’ ’pramāṇa’ क्या है?

’प्रमाण’ क्या है?
What is (Meant by) ’pramāṇa’?
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अथ योगानुशासनम् १
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः २
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ३
वृत्तिस्वरूप्यमितरत्र ४
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाःक्लिष्टाः ५
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ६
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ७
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमप्रतिष्ठम् ८
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ९
अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा १०
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पतञ्जलि के योग-सूत्रों में पहले तो ’योग’ से उनका तात्पर्य क्या है यह स्पष्ट किया गया है ।
यह हुआ ग्रन्थ का ’प्रयोजन’ ।
दूसरे सूत्र में इस प्रयोजन की सिद्धि कैसे होती है अर्थात् ’साधन’ क्या है इसे स्पष्ट किया गया है ।
तीसरे सूत्र में ’प्रयोजन’ से ’साधन’ का क्या संबंध है, अर्थात् ’वह साधन क्या है?’ -इसे स्पष्ट किया गया है ।
चौथे सूत्र में इस साधन का अभ्यास किये जाने के पूर्व जिसके लिए शिक्षा दी जा रही है उसकी स्थिति बतलाई गई है ।
पाँचवे सूत्र में, -जिन वृत्तियों से द्रष्टा अपनी वृत्ति से सारूप्य कर लेता है जिससे उसे उसका वास्तविक स्वरूप तात्कालिक रूप से दृष्टि से परे हुआ प्रतीत होता है, वे वृत्तियों के पाँच प्रकार की होती हैं यह कहा गया ।
छठे सूत्र में वृत्ति के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया गया ।
प्रत्यक्षज्ञान, अनुमान और आगम (जिस किसी ने जाना है उसकी वाणी) ये तीन ’प्रमाण’ कहे जाते हैं ।
ये तीनों भी लौकिक और पारमार्थिक दृष्टि से अलग-अलग तात्पर्य रखते हैं ।
लौकिक दृष्टि से ’द्रष्टा’ का वर्णन किया जाना असंभव है क्योंकि वर्णन स्वयं ही वृत्ति है अर्थात् दृष्टा के स्वरूप से विचलन ।
पारमार्थिक दृष्टि से दृष्टा स्वयं ही अपना प्रमाण है, जब वह ’मैं’ शब्द तक से अनभिज्ञ होता है तब भी हर कोई अनायास स्वयं को दृष्टामात्र की तरह जानता ही है । किंतु जब वह वृत्ति से सारूप्य हो जाने के कारण अपने इस स्वरूप से अनभिज्ञता अनुभव करता है या उसे व्यावहारिक वस्तु के रूप में देखना / अनुभव करना चाहता है तब यह अनुमान हुआ । तब वह अनुमान से अपने द्रष्टा होने की अकाट्य सच्चाई तक पहुँच सकता है । तीसरा प्रमाण है -आगम अर्थात् वेद और ऋषियों द्वारा दी गई शिक्षाएँ ।
इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम ये तीनों ’प्रमाण’ हैं ।  
इस प्रकार संपूर्ण भौतिक विज्ञान अनुमान मात्र है और दृष्टा के बारे में किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सकता ।
वह अन्ततः केवल ’दृष्टा ही दृष्ट है’ (observer is the observed) जैसे निष्कर्ष तक अवश्य पहुँच सकता है और तब बुद्धि का विलय उस दृष्टा में हो जाता है ।
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What is (Meant by)’pramāṇa’?
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pātañjala yoga-sūtra in the following aphorisms tells :
atha yogānuśāsanam 1
yogaścittavṛttinirodhaḥ 2
tadā draṣṭuḥ svarūpe:'vasthānam 3
vṛttisārūpyamitaratra 4
vṛttayaḥ pañcatayyaḥ kliṣṭāḥkliṣṭāḥ 5
pramāṇaviparyayavikalpanidrāsmṛtayaḥ 6
pratyakṣānumānāgamāḥ pramāṇāni 7
viparyayo mithyājñānamapratiṣṭham 8
śabdajñānānupātī vastuśūnyo vikalpaḥ 9
abhāvapratyayālambanā vṛttirnidrā 10
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In the aphorisms of पतञ्जलि योग-सूत्र, patañjali yoga-sūtra S
The first deals with the discipline of योग / Yoga.
That points out the purpose of practicing the योग / Yoga.
Yoga briefly means to arrest the modes वृत्ति / vṛtti of the mind.
In the second, how this purpose (प्रयोजन / prayojan) is fulfilled, that is, -about the ‘means’(साधन / sādhana).
In the third, about how the two, -the purpose (प्रयोजन / prayojan) and the means (साधन / sādhana) are related to one-another.
In the fourth about the present state of (the mind) that prevails before such a practice is taken up.
In the fifth it is said that the modes (वृत्ति / vṛtti) of this mind are of the five kinds, which are because of mistaken assumption about ‘I’ / oneself. ‘I’ the word that is a First-person pronoun, is not really what is wrongly assumed because of this assumed notion. The implied meaning of ‘I’ is the consciousness, which is not the same as the assumed meaning, -the person.
The consciousness is ever the ‘observer’ (dṛṣṭā) and never the ‘observed’ (dṛṣṭa).
Hence the observer (dṛṣṭā) is always the consciousness which knows the presence of various modes of the mind and not any of these modes (वृत्ति / vṛtti).
Though there is yet another mode of mind, namely the intellect that mistakenly superimposes the two perceptions (of the modes वृत्ति / vṛtti , दृष्टा / dṛṣṭa  and the observer / दृष्टा / dṛṣṭā) upon one-another.
The bare ‘knowing’ is  the essence of observer / दृष्टा / dṛṣṭā.
In the sixth the classification of these modes of mind has been done.
In the seventh प्रत्यक्षानुमानागमाः / pratyakṣānumānāgamāḥ are said to be the three approaches through which the Reality / Truth of the observer / दृष्टा / dṛṣṭā (consciousness) is ascertained.
These three are:
Direct  / Immediate perception / अपरोक्षानुभूतिः / aparokṣānubhūtiḥ.
Indirect / mediate perception / परोक्षानुभूतिः / parokṣānubhūtiḥ.
(Through senses, intellect and mind / memory)
Veda / āgamāḥ,  the realization of the seers.
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The word avoid / ‘evidence’ is a direct mutation / aberration अपभ्रम् च / apabhram ca / अपभ्रंश / apabhraṃśa of the संस्कृत / saṃskṛta word अववित् / avavit > meaning : to understand perfectly.
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Note : As the in the absence of the 'observer', the observed could not said to exist independently, and could not reveal itself, the observed is merely an extension of the observer. Thus the observer just dissolves into the observer when the Reality is attained.
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July 15, 2017

श्रीगणेश आख्यान

श्रीगणेश आख्यान
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नावघाटखेड़ी और खेड़ीघाट, इन्दौर-खंडवा रोड पर बड़वाह से २ किलोमीटर दूर नर्मदा पर बसे दो गाँव हैं जो पिछले सौ-पचास वर्षों से एक पुल से जुड़े हैं । उन दोनों तटों के बीच इससे भी पहले से नावघाटखेड़ी से खेड़ीघाट  के बीच नावें चलती थीं, -अभी भी चलती हैं । नावघाटखेड़ी में तट से कुछ ऊँचाई पर एक पुराना गणेश-मन्दिर है जहाँ भगवान श्रीगणेश की दर्शनीय, सुन्दर प्रस्तर-प्रतिमा  है । इसकी प्रतिष्ठा देवी अहिल्याबाई होलकर द्वारा की गई थी ।
कभी-कभी मैं वहाँ दो मिनट के लिए बैठ जाता था ।
ऐसे ही समय दो ग्रामीण चर्चा कर रहे थे ।
"गणेशजी ही सृष्टिकर्ता, सृष्टि के पालनकर्ता और संहारकर्ता हैं ।"
"और सृष्टि?"
"वह भी वही है, उनसे अभिन्न ।"
"वो कैसे?"
"वे ही प्राणीमात्र के मन में बुद्धि के रूप में व्यक्त होते हैं ।"
"फिर भिन्न-भिन्न लोगों की बुद्धि एक जैसी क्यों नहीं होती?"
"क्योंकि प्रत्येक मनुष्य में अहं के रूप में उसकी अहंकार की वृत्ति उसकी बुद्धि को भ्रमित किए रहती है ।"
"अहंकार की वृत्ति मतलब?"
"मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ, इस प्रकार की बुद्धि से मोहित हुआ वह अपने-आपको ठीक से जाने-समझे बिना ही स्वयं को अहंकार से बाँध लेता है ।"
"ठीक से जानना समझना क्या है?"
"बुद्धि के स्पष्ट, प्रखर, उत्साहपूर्ण और शुद्ध होने पर संसार और उसके भोगों की अनित्यता के प्रति मनुष्य में वैराग्य-बुद्धि जागृत होती है ।"
"जिनकी ऐसी बुद्धि नहीं है वे क्या करें?"
"वे बस भगवान श्रीगणेश के ही वास्तविक कर्ता, भोक्ता, संहर्ता होने के बारे में चिन्तन करें तो उनकी बुद्धि शुद्ध हो जाएगी ।"
किंतु कोई ऐसा करे इसके लिए उसे कहाँ से प्रेरणा मिलेगी?"
"भगवान श्रीगणेश प्रथम देवता हैं । वे ही हमारे मन में सर्वप्रथम बुद्धि के रूप में प्रकट होते हैं । वह बुद्धि ही संसार में असंख्य प्रकार के व्यक्तियों की अलग-अलग बुद्धि का रूप लेकर उन्हें किसी विशेष शुभ या अशुभ हितप्रद या क्षतिप्रद कार्य में प्रवृत्त करती है । इस प्रकार से मन के प्रवृत्त हो जाने के बाद ही संसार के विविध प्रकार उसे अनुभव होते हैं । किंतु जो व्यक्ति अपने भीतर ही इस बुद्धि का आगमन होते ही उसके दर्शन कर लेता है उसे उतना ही पुण्य मिलता है जितना श्रद्धायुक्त किसी मनुष्य को विभिन्न मन्दिरों में स्थापित श्रीगणेश के विभिन्न रूपों के दर्शन, पूजा आदि से मिलता है । भीतर प्रकट बुद्धि के रूप में गणेश ही विघ्न और विघ्नहर्ता भी हैं ।वे ही विज्ञ और विज्ञान हैं । चूँकि वे आत्मा अर्थात् परमात्मा ही हैं, इसलिए उस रूप में वे ही अध्यात्म भी हैं । चूँकि वे इस मृण्मय भौतिक देह में विद्यमान प्राण और चेतना के कार्य के एकमात्र और आदि-कारण हैं इसलिए वही उनका आधिभौतिक रूप है । चूँकि उनका उन्मेष होने के बाद ही सगुण ब्रह्म अर्थात् जगत की प्रतीति होती है इसलिए वे ही परब्रह्म हैं । चूँकि वे ही इस भौतिक जगत् का एकमात्र आधार और अधिष्ठान हैं इसलिए वे ही अधिभूत हैं । चूँकि वे ही जगत-रूपी कार्य-ब्रह्म और कारणब्रह्म हैं इसलिए वे ही अधियज्ञ हैं । और वे ही अधिदैव भी हैं क्योंकि समस्त अन्य देवता उनकी प्रसन्न होने पर ही दर्शन देते हैं और उनकी कृपा होती है ।
सुनो :
अध्याय 8, श्लोक 1,

अर्जुन उवाच :

किं तद्ब्रह्म तदध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥
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(किम् तत् ब्रह्म किम् अध्यात्मम् किम् कर्म पुरुषोत्तम ।
अधिभूतम् च किम् प्रोक्तम् अधिदैवम् किम् उच्यते ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न पूछा :
हे पुरुषोत्तम ! वह (तत् नाम से वेदों में जिसका वर्णन है) ब्रह्म क्या है? अध्यात्म जिसे कहते हैं, वह क्या है ? तथा कर्म जिसे कहते हैं वह क्या है ? अधिभूत किसे कहा गया है, तथा अधिदैव किसे कहा गया है?
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 8, श्लोक 1)
गीताजी तो विद्वानों और पंडितों के पढ़ने-समझने के लिए है।  हमारे जैसे लोगों के लिए वह सब बहुत कठिन है।  लेकिन अपने भीतर भगवान श्रीगणेश के दर्शन कर लें तो सब बहुत आसान हो जाता है।  वही गणेशजी यहाँ और सभी मंदिरों में या पूजा के लिए सुपारी के गणेश के रूप में, उस माध्यम से हमारा ध्यान हमारे भीतर विद्यमान उनके वास्तविक स्वरूप की ओर आकर्षित करते हैं।"
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"कितने का है मोबाईल?"
"साढ़े आठ हज़ार का ।"
"कमाल की चीज़ है ।"
"हाँ, है तो सही!"
उनमें से एक ने उसे देखते हुए ’स्क्रॉल’ किया और कानों में आला लगाकर कुछ सुनने लगा ।
मोबाईल के स्क्रीन पर कोई लड़की नृत्य करती हुई गा रही थी । वास्तव में ’रिज़ॉल्यूशन’ इतना  बढ़िया था कि हैरत हो रही थी ।        
"कमाल की चीज़ है ।"
"इसमें भजन भी हैं !"
"है न कमाल की चीज़?"
"हाँ, लेकिन बुढ़ापे के कारण मेरी तो आँखें भी खराब हो गई हैं और कानों से सुनाई भी कम पड़ता है ।"
दूसरा जो अभी नवयुवक ही था उसने मानों सुना ही नहीं । फिर बोला,
"हाँ, हम लोगों के लिए तो बहुत काम की कमाल की चीज़ है ।"
वह बाईक स्टॉर्ट करते हुए बोला ।
"बैठो, तुम्हें छोड़ देता हूँ थोड़ी दूर तक!"
"बेटा, तुम नौजवान हो, मैं बूढ़ा, तुम्हारे नाक, कान, आँखें, हाथ-पैर, सेहत, सब अच्छी कंडीशन में हैं इसलिए तुम कमाल की चीज़ों का, और ज़िन्दगी का भी मज़ा लूट सकते हो । मैं सोचता हूँ कि क्या नाक, कान, आँखें, हाथ-पैर, सेहत, उनसे और भी बहुत ज़्यादा कमाल की चीज़ नहीं हैं जिनसे ही तुम यह सब कर पाते हो?"
बूढ़ा उसकी बाईक पर बैठते-बैठते बोल रहा था ।
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July 14, 2017

प्रेम और समय -इटैलियन कविता

प्रेम और समय -इटैलियन कविता
लुइगी पिरन्देलो (इटैलियन नाटककार)
हिन्दी रूपान्तर
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प्रेम ने समय पर एक दृष्टि डाली और हँस पड़ा,
क्योंकि उसे पता था कि उसे उसकी ज़रूरत नहीं ।
प्रेम ने दिन भर के लिए मृत होने का नाटक किया,
और शाम होते-होते पुनः खिल (जी) उठने का ।
(विधाता के) विधान को न मानते हुए। .. ,
अपने हृदय के एक कोने में सोने लगा ।
उस समय तक, जिसका अस्तित्व ही नहीं था ।
और फिर भ्रमित न होते हुए, चल पड़ा ।
कहीं न जाते हुए भी वह लौट आया ।
समय मर चुका था, और वह (प्रेम) अक्षुण्ण रहा ।
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इटैलियन कविता (मूल रूप में)
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E l’amore guardò il tempo e rise,
perchè sapeva di non averne bisogno.
Finse di morire per un giorno,
e di rifiorire alla sera,
senza leggi da rispettare.
Si addormentò in un angolo di cuore
per un tempo che non esisteva.
Fuggì senza allontanarsi,
ritornò senza essere partito,
il tempo moriva e lui restava.
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- L. Pirandello
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July 12, 2017

वह

आज की कविता
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वह
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वह पुरुष थी,
वह स्त्री था,
दोनों ही रोक न सके,
खुद को,
एक-दूसरे के प्रति,
आकर्षित होने से ।  
क्योंकि दोनों सजातीय थे,
आकर्षण प्रीति थी,
प्रीति आकर्षण था,
और उनकी सन्तानें भी,
...  कोई पुरुष थी,
कोई स्त्री था,
पर काल-क्रम से,
लिंग-भेद महत्वपूर्ण हो गया,
अब वह पुरुष था,
और वह स्त्री थी,
आकर्षण पुरुष था,
प्रीति स्त्री थी,
सब-कुछ ठीक हो गया,
सब-कुछ अराजक !
--

©

जय बाबा अमरनाथ!

श्रावण-पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ !
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सावन के झूले पड़े,
झूला झूलें सखियाँ,
सावन की फ़ुहारें पड़ीं,
सावन सी भीगी अँखियाँ,
कावड़ उठाये कावड़हार,
चले गंगा तट हरद्वार,
गंगा कावड़ में उठाये,
भोले के मन्दिर को धाये,
गंगा से भोले का मिलना,
सिरजता आनंद अपार !
भोले तो बैठे अचल-अटल,
बैठे हुए ध्यानमग्न,
गंगा तरल चञ्चल,
बूझे न कोई भी पथ,
सावन दिलाये याद,
भोले को गंगा की,
सावन दिलाये याद,
गंगा को भोले की,
सावन दिलाये याद,
सखियों को झूले की,
झूला दिलाये याद,
कावड़ की, भोले की,
कावड़ उठाये कावड़हार,
चले गंगातट हरद्वार,
सावन के झूले पड़े ...
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July 11, 2017

पगडंडियाँ और मंज़िल

पगडंडियाँ और मंज़िल
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किसी धर्मशास्त्र के एक या एकाधिक अंशों को उद्धृत कर शास्त्रचर्चा प्रारंभ कर उस बहाने से अपनी विद्वता की धाक जमाना और उस या उन उद्धृत अंशों पर लोगों से प्रतिक्रियाएँ पाना अंधकार में तीर चलाने जैसा है । धर्मशास्त्र, -विशेष रूप से सनातन धर्म के वेदमूलक तथा पुराण आदि भी न केवल इस पर बल देते हैं कि अश्रद्धावान से इनकी चर्चा न की जाए, बल्कि इन्हें गुह्य तक कहते हैं । चाहे गीता हो या अन्य ग्रन्थ, उपनिषद् आदि ...
यह हो सकता है कि इन चर्चाओं से कुछ लोगों की रुचि इस ओर आकर्षित हो सकती हो और वे और अधिक जानने-समझने के लिए उत्सुक हो उठें किंतु वे तो वैसे भी कहीं न कहीं अपने लिए अनुकूल प्रतीत होनेवाले माध्यमों से उनके अपने ध्येय को पूरा कर ही लेंगे । जबकि दूसरे कुछ ऐसे भी हैं जो बुद्धि-विलास के ही अभ्यस्त होते हैं और इस प्रकार जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे भी, प्रायः वे न केवल स्वयं के लिए, बल्कि इन उद्धृत अंशों के 'उद्धारक' के लिए भी आध्यात्मिक क्षति का ही कारण बन जाते हैं, क्योंकि उन्हें यह तक नहीं दिखाई देता कि यह सारी गतिविधि उसकी मानसिक अशान्ति को दूर नहीं करती बल्कि बढ़ाती ही अधिक है । मानसिक अशान्ति के कई दूसरे कारण भी हो सकते हैं जिन पर ध्यान दिये जाने से उसे अपेक्षाकृत सरलता से और शीघ्र भी दूर किया जा सकता है । ’प्रभु-प्राप्ति’ भी शायद उसका एक तरीका हो सकता है लेकिन जब तक उन दूसरे कारणों का अस्तित्व है, मनुष्य का मन ’प्रभु’ में कितना और कहाँ तक लगेगा कहा नहीं जा सकता । और जिसे ’प्रभु’ को जानने और पाने की अभिलाषा ही नहीं उसे ’प्रभु’ के बारे में रुचि तक भला कैसे होगी? यहाँ तक कि वह तो ’प्रभु’ के अस्तित्व तक पर संदेह करता है, और जो ’प्रभु’ को किसी भी अपने स्वकल्पित रूप में मानता है, वह भी ’प्रभु’ के बारे में उसकी अपनी मान्यता से मोहित होने के ही कारण ऐसी अभिलाषा करता है । या फिर वह भी किसी बहाने समाज में अपनी स्थिति को सुदृढ और सुरक्षित बनाए रखने के लिए ’प्रभु’ को एक साधन की तरह प्रयोग करता है । यदि उसे समाज में अपनी इस स्थिति को सुदृढ और सुरक्षित बनाए रखने के लिए दूसरा कोई विकल्प मिल जाए तो उसे लपकने में देर नहीं करता ।
इसलिए धर्मशास्त्र (इसमें आप राजनीतिक विचारधारा / राजनीति-शास्त्र को भी शामिल कर सकते हैं, क्योंकि राजनीति भी एक सरल, कुटिल या जटिल धर्म ही तो है!) की चर्चा करना शायद किसी को भी, अन्ततः किसी ऐसे लक्ष्य तक नहीं पहुँचाता जिससे मन को सच्चा संतोष और शान्ति मिल सके ।
हाँ इस चर्चा से कोई उच्च कोटि का लब्धप्रतिष्ठ और लुब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार, विचारक, धर्मगुरु आदि अवश्य बन सकता है, सामाजिक और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठा भी पा सकता है  ... और उसके अपने लाभ तो हैं ।
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July 10, 2017

The Self and the ego / अहम् और अहं-मति

आज की संस्कृत रचना
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कर्ताभोक्ता तु कर्तृत्वे,
कर्तृत्वमपि अहंमतेः ।
अहंमतिस्तु अहम्येव,
भूत्वा भूत्वा विलीयते ॥
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अर्थ :
कर्तृत्व और भोक्तृत्व कर्ता होने की (भ्रमपूर्ण) भावना से ही उपजते हैं । यह कर्ता होने की (भ्रमपूर्ण) भावना भी अहं-मति में, अहं-मति से ही उपजती है । किंतु इस अहं-मति का उद्गम और विलय अहम् ( अविकारी आत्मा / परब्रह्म) से और अहम् ( अविकारी आत्मा / परब्रह्म) में ही पुनः पुनः हुआ करता है ।
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A संस्कृत / saṃskṛta stanza composed today. 
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English transliteration :
kartābhoktā tu kartṛtve,
kartṛtvamapi ahaṃmateḥ |
ahaṃmatistu ahamyeva,
bhūtvā bhūtvā vilīyate ||
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Meaning :
The sense of oneself as a doer or as the one who experiences the fruits of action, emerge from and dissolve into the I-sense only. But this I-sense, -again and again, emerges from or dissolves into the Self only. 
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July 08, 2017

कविता की उम्र

प्रेरणा : एक मराठी कविता
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मन की उलझनें, या उलझनों भरा मन,
कहना है कठिन, पर कहूँ भी तो किससे ?
हरसिंगार की वर्षा, फूलों की भीनी गंध,
महसूस तो होती है, दिखलाऊँ तो किसे?
शब्दों की लड़ी, लड़ी में पिरोये गीत,
सुरीले तो हैं, पर सुनाएगा कौन मुझे ?
पावस के धारे हैं, धारों में फुहारें हैं,
भिगोते तो हैं, पर भीगेगा साथ कौन?
तुम्हारा वो जो साथ था, साथ थी जो प्रीति,
यूँ याद तो नहीं रहती, भूलेगा लेकिन कौन?
--
पुनः
एक उलझन यह भी,
कि इस उम्र में ऐसी कविता रचना लिखना कितना ठीक है?
कविता की उम्र??
कविता की कोई उम्र कहाँ होती है!
कभी-कभी तो कोख में ही मिटा दी जाती है,
कभी-कभी जन्म भी लेती है,
तो होती है किसी की लाड़ली,
किशोरी, नवयौवना, या प्रौढ़ भी !
वृद्धा लाठी टेकती, झुक कर चलती हुई,
पोपले मुँह से कुछ कहती हुई,
बच्चों की तुतलाहट जैसी बोली में,
विदा भी हो जाती है अतीत में,
और फिर उमग आती है,
हृदय की झील में कमल सी ...!
कविता की कोई उम्र कहाँ होती है!
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July 07, 2017

जर्जर : एक छोटी कविता

©
जुलाई ७, २०११ को लिखी,
मेरी एक छोटी कविता
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रूढ़ियाँ
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परंपराएँ,
चढ़ती-उतरती हैं,
-सीढ़ियाँ,

होते हुए जर्जर मगर,

परंपराएँ,
चढ़ती-उतरती हैं,
पीढ़ियाँ !
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Evolution of Languages / भाषा-उद्गम

भाषावैभवम् / bhāṣāvaibhavam
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भाषाओं की उत्पत्ति
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ते देवा अब्रुवन् :
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥८
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ॥१०
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव ।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ॥१३
(देव्यथर्वशीर्षम् से)
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अर्थ :
उन देवों (प्राण, स्वर आदि चेतन-सत्ताओं) ने अपनी जननी जगज्जननी की स्तुति की और देवी के उस रूप की सृष्टि की जिसका समस्त पशु आदि भाषा की तरह व्यवहार करते हैं । यह भाषा असंस्कृत, अपरिमार्जित थी । तब देवों ने उसे संस्कारित और परिमार्जित किया और वही देवी अमृततुल्य दुग्ध देनेवाली गौ के रूप में भाषा के रूप में उनके लिए प्रकट हुई । इस प्रकार देवों (वर्ण-समुच्चय, वर्ण अर्थात् स्वर तथा व्यञ्जन ही देवता हैं) ने उन्हीं देवी को नया जन्म दिया । तत्पश्चात् (हे दक्ष तुम्हारी पुत्री अदिति, उन्हीं) देवी ने पुनः वर्ण आदि को अपना तेज प्रदान कर उन्हें नया जन्म दिया । इन्हीं देवताओं को तब मन्त्रों के रूप में नया जन्म प्राप्त हुआ ।
चूँकि देवता और जगज्जननी नित्य, सनातन और शाश्वत हैं । इसलिये यह प्रसंग काल से नितान्त स्वतन्त्र सत्यता है । काल स्वयं भी देवता होने से इस प्रसंग का अंशमात्र है ।
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सर्वत्र विभाषा गोः - अष्टाध्यायी ६/१/१२२ से भी इसकी पुष्टि होती है ।      
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Evolution of Languages :
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te devā abruvan :
namo devyai mahādevyai śivāyai satataṃ namaḥ |
namaḥ prakṛtyai bhadrāyai niyatāḥ praṇatāḥ sma tām ||
devīṃ vācamajanayanta devāstāṃ viśvarūpāḥ paśavo vadanti |
sā no mandreṣamūrjaṃ duhānā dhenurvāgasmānupa suṣṭutaitu ||
adirhyajaniṣṭa dakṣa yā duhitā tava |
tāṃ devā anvajāyanta bhadrā amṛtabandhavaḥ ||
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Meaning :
The devā (the sounds, the consonants and the vowels in their primitive form which are essentially word / vibration, prāṇa - the aspect of consciousness associated with energy, and thus the collective form of all such sounds) constituted the language that is spoken by various creatures and animals.
This language, being primitive was impure, unrefined, uncultured.  
They approached and hailed their own Mother, and praised Her.
They then created / discovered Her in a pure, pristine, new, refined, cultured form which gave them immense joy and great strength. In a form like a cow that gives sweet nectar-like milk.
In such way devā (plural of 'deva') gave Her a new birth.
She was thus named  'aditi' - their daughter, though dakṣa the prajāpati, the ancient-most father-figure of man, was Her father on the earth. As she was born of Him on one hand, though devā created Her soul, she was daughter of them as well.
They (devā)  approached Her and said unto  dakṣa the prajāpati :
"O dakṣa !
Your daughter delivered a baby for us, whose voice is pure and like the sweet fresh milk of a cow, energizing and rejuvenating us (devā / prāṇa), and as such She is our Mother. We are now cleansed, refined, pure, full of vigor and strength in our this new संस्कृत / saṃskṛta form.
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This is the narration as described in  देव्यथर्वशीर्षम् /devī-atharvaśīrṣam which is a text comprising of various ऋचा / ṛcā (any sacred verse) from Veda.
As the word / sound is immortal, imperishable this narration is a truth independent of 'Time'. This is also true because 'Time' itself as काल / kāla / यम / yama, is a 'deva' only in Veda.
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July 05, 2017

लोपामुद्रा

आज की कविता
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अवसर !
लोपामुद्रा वह विलुप्त सी,
वह जो शुद्ध कमाई थी !
लेकिन किसने जाना था,
अपनी नहीं पराई थी !
उसे छिपाकर रक्खा था,
मैंने जिस लॉकर में बन्द,
उसे खोल ना पाया लेकिन,
मन में मेरे समाई थी !
लोपामुद्रा! तुम्हें देखकर,
कितना मेरा मन हर्षाया,
और तुम्हें वापस करने में,
घबराया सा मैं शरमाया !
एक मिलेगा फिर से अवसर,
इस बार नहीं घबराऊँगा,
लोपामुद्रा! तुम्हें छोड़कर
लोपामुद्रा! लो पा लूँगा !
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