’प्रमाण’ क्या है?
What is (Meant by) ’pramāṇa’?
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अथ योगानुशासनम् १
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः २
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ३
वृत्तिस्वरूप्यमितरत्र ४
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाःक्लिष्टाः ५
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ६
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ७
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमप्रतिष्ठम् ८
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ९
अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा १०
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पतञ्जलि के योग-सूत्रों में पहले तो ’योग’ से उनका तात्पर्य क्या है यह स्पष्ट किया गया है ।
यह हुआ ग्रन्थ का ’प्रयोजन’ ।
दूसरे सूत्र में इस प्रयोजन की सिद्धि कैसे होती है अर्थात् ’साधन’ क्या है इसे स्पष्ट किया गया है ।
तीसरे सूत्र में ’प्रयोजन’ से ’साधन’ का क्या संबंध है, अर्थात् ’वह साधन क्या है?’ -इसे स्पष्ट किया गया है ।
चौथे सूत्र में इस साधन का अभ्यास किये जाने के पूर्व जिसके लिए शिक्षा दी जा रही है उसकी स्थिति बतलाई गई है ।
पाँचवे सूत्र में, -जिन वृत्तियों से द्रष्टा अपनी वृत्ति से सारूप्य कर लेता है जिससे उसे उसका वास्तविक स्वरूप तात्कालिक रूप से दृष्टि से परे हुआ प्रतीत होता है, वे वृत्तियों के पाँच प्रकार की होती हैं यह कहा गया ।
छठे सूत्र में वृत्ति के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया गया ।
प्रत्यक्षज्ञान, अनुमान और आगम (जिस किसी ने जाना है उसकी वाणी) ये तीन ’प्रमाण’ कहे जाते हैं ।
ये तीनों भी लौकिक और पारमार्थिक दृष्टि से अलग-अलग तात्पर्य रखते हैं ।
लौकिक दृष्टि से ’द्रष्टा’ का वर्णन किया जाना असंभव है क्योंकि वर्णन स्वयं ही वृत्ति है अर्थात् दृष्टा के स्वरूप से विचलन ।
पारमार्थिक दृष्टि से दृष्टा स्वयं ही अपना प्रमाण है, जब वह ’मैं’ शब्द तक से अनभिज्ञ होता है तब भी हर कोई अनायास स्वयं को दृष्टामात्र की तरह जानता ही है । किंतु जब वह वृत्ति से सारूप्य हो जाने के कारण अपने इस स्वरूप से अनभिज्ञता अनुभव करता है या उसे व्यावहारिक वस्तु के रूप में देखना / अनुभव करना चाहता है तब यह अनुमान हुआ । तब वह अनुमान से अपने द्रष्टा होने की अकाट्य सच्चाई तक पहुँच सकता है । तीसरा प्रमाण है -आगम अर्थात् वेद और ऋषियों द्वारा दी गई शिक्षाएँ ।
इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम ये तीनों ’प्रमाण’ हैं ।
इस प्रकार संपूर्ण भौतिक विज्ञान अनुमान मात्र है और दृष्टा के बारे में किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सकता ।
वह अन्ततः केवल ’दृष्टा ही दृष्ट है’ (observer is the observed) जैसे निष्कर्ष तक अवश्य पहुँच सकता है और तब बुद्धि का विलय उस दृष्टा में हो जाता है ।
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What is (Meant by)’pramāṇa’?
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pātañjala yoga-sūtra in the following aphorisms tells :
atha yogānuśāsanam 1
yogaścittavṛttinirodhaḥ 2
tadā draṣṭuḥ svarūpe:'vasthānam 3
vṛttisārūpyamitaratra 4
vṛttayaḥ pañcatayyaḥ kliṣṭāḥkliṣṭāḥ 5
pramāṇaviparyayavikalpanidrāsmṛtayaḥ 6
pratyakṣānumānāgamāḥ pramāṇāni 7
viparyayo mithyājñānamapratiṣṭham 8
śabdajñānānupātī vastuśūnyo vikalpaḥ 9
abhāvapratyayālambanā vṛttirnidrā 10
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In the aphorisms of पतञ्जलि योग-सूत्र, patañjali yoga-sūtra S
The first deals with the discipline of योग / Yoga.
That points out the purpose of practicing the योग / Yoga.
Yoga briefly means to arrest the modes वृत्ति / vṛtti of the mind.
In the second, how this purpose (प्रयोजन / prayojan) is fulfilled, that is, -about the ‘means’(साधन / sādhana).
In the third, about how the two, -the purpose (प्रयोजन / prayojan) and the means (साधन / sādhana) are related to one-another.
In the fourth about the present state of (the mind) that prevails before such a practice is taken up.
In the fifth it is said that the modes (वृत्ति / vṛtti) of this mind are of the five kinds, which are because of mistaken assumption about ‘I’ / oneself. ‘I’ the word that is a First-person pronoun, is not really what is wrongly assumed because of this assumed notion. The implied meaning of ‘I’ is the consciousness, which is not the same as the assumed meaning, -the person.
The consciousness is ever the ‘observer’ (dṛṣṭā) and never the ‘observed’ (dṛṣṭa).
Hence the observer (dṛṣṭā) is always the consciousness which knows the presence of various modes of the mind and not any of these modes (वृत्ति / vṛtti).
Though there is yet another mode of mind, namely the intellect that mistakenly superimposes the two perceptions (of the modes वृत्ति / vṛtti , दृष्टा / dṛṣṭa and the observer / दृष्टा / dṛṣṭā) upon one-another.
The bare ‘knowing’ is the essence of observer / दृष्टा / dṛṣṭā.
In the sixth the classification of these modes of mind has been done.
In the seventh प्रत्यक्षानुमानागमाः / pratyakṣānumānāgamāḥ are said to be the three approaches through which the Reality / Truth of the observer / दृष्टा / dṛṣṭā (consciousness) is ascertained.
These three are:
Direct / Immediate perception / अपरोक्षानुभूतिः / aparokṣānubhūtiḥ.
Indirect / mediate perception / परोक्षानुभूतिः / parokṣānubhūtiḥ.
(Through senses, intellect and mind / memory)
Veda / āgamāḥ, the realization of the seers.
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The word avoid / ‘evidence’ is a direct mutation / aberration अपभ्रम् च / apabhram ca / अपभ्रंश / apabhraṃśa of the संस्कृत / saṃskṛta word अववित् / avavit > meaning : to understand perfectly.
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Note : As the in the absence of the 'observer', the observed could not said to exist independently, and could not reveal itself, the observed is merely an extension of the observer. Thus the observer just dissolves into the observer when the Reality is attained.
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