July 11, 2017

पगडंडियाँ और मंज़िल

पगडंडियाँ और मंज़िल
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किसी धर्मशास्त्र के एक या एकाधिक अंशों को उद्धृत कर शास्त्रचर्चा प्रारंभ कर उस बहाने से अपनी विद्वता की धाक जमाना और उस या उन उद्धृत अंशों पर लोगों से प्रतिक्रियाएँ पाना अंधकार में तीर चलाने जैसा है । धर्मशास्त्र, -विशेष रूप से सनातन धर्म के वेदमूलक तथा पुराण आदि भी न केवल इस पर बल देते हैं कि अश्रद्धावान से इनकी चर्चा न की जाए, बल्कि इन्हें गुह्य तक कहते हैं । चाहे गीता हो या अन्य ग्रन्थ, उपनिषद् आदि ...
यह हो सकता है कि इन चर्चाओं से कुछ लोगों की रुचि इस ओर आकर्षित हो सकती हो और वे और अधिक जानने-समझने के लिए उत्सुक हो उठें किंतु वे तो वैसे भी कहीं न कहीं अपने लिए अनुकूल प्रतीत होनेवाले माध्यमों से उनके अपने ध्येय को पूरा कर ही लेंगे । जबकि दूसरे कुछ ऐसे भी हैं जो बुद्धि-विलास के ही अभ्यस्त होते हैं और इस प्रकार जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे भी, प्रायः वे न केवल स्वयं के लिए, बल्कि इन उद्धृत अंशों के 'उद्धारक' के लिए भी आध्यात्मिक क्षति का ही कारण बन जाते हैं, क्योंकि उन्हें यह तक नहीं दिखाई देता कि यह सारी गतिविधि उसकी मानसिक अशान्ति को दूर नहीं करती बल्कि बढ़ाती ही अधिक है । मानसिक अशान्ति के कई दूसरे कारण भी हो सकते हैं जिन पर ध्यान दिये जाने से उसे अपेक्षाकृत सरलता से और शीघ्र भी दूर किया जा सकता है । ’प्रभु-प्राप्ति’ भी शायद उसका एक तरीका हो सकता है लेकिन जब तक उन दूसरे कारणों का अस्तित्व है, मनुष्य का मन ’प्रभु’ में कितना और कहाँ तक लगेगा कहा नहीं जा सकता । और जिसे ’प्रभु’ को जानने और पाने की अभिलाषा ही नहीं उसे ’प्रभु’ के बारे में रुचि तक भला कैसे होगी? यहाँ तक कि वह तो ’प्रभु’ के अस्तित्व तक पर संदेह करता है, और जो ’प्रभु’ को किसी भी अपने स्वकल्पित रूप में मानता है, वह भी ’प्रभु’ के बारे में उसकी अपनी मान्यता से मोहित होने के ही कारण ऐसी अभिलाषा करता है । या फिर वह भी किसी बहाने समाज में अपनी स्थिति को सुदृढ और सुरक्षित बनाए रखने के लिए ’प्रभु’ को एक साधन की तरह प्रयोग करता है । यदि उसे समाज में अपनी इस स्थिति को सुदृढ और सुरक्षित बनाए रखने के लिए दूसरा कोई विकल्प मिल जाए तो उसे लपकने में देर नहीं करता ।
इसलिए धर्मशास्त्र (इसमें आप राजनीतिक विचारधारा / राजनीति-शास्त्र को भी शामिल कर सकते हैं, क्योंकि राजनीति भी एक सरल, कुटिल या जटिल धर्म ही तो है!) की चर्चा करना शायद किसी को भी, अन्ततः किसी ऐसे लक्ष्य तक नहीं पहुँचाता जिससे मन को सच्चा संतोष और शान्ति मिल सके ।
हाँ इस चर्चा से कोई उच्च कोटि का लब्धप्रतिष्ठ और लुब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार, विचारक, धर्मगुरु आदि अवश्य बन सकता है, सामाजिक और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठा भी पा सकता है  ... और उसके अपने लाभ तो हैं ।
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