October 28, 2021

भवसागर

पूछो मेरे दिल से!

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संसार का सागर हाय, 

चारों तरफ लहराय,

जितना आगे जाऊँ,

गहरा होता जाय!

ग़म के भँवर में,

क्या क्या डूबा,

पूछो मेरे दिल से,

हाय, पूछो मेरे दिल से!

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केवल एक शब्द बदला है। 'प्यार' को 'संसार' से रिप्लेस किया है, इस गीत को अवश्य ही सुना होगा आपने। 

स्वर्गीय मुकेशजी का गाया गीत है :

तुम बिन जीवन, कैसे बीता, 

पूछो मेरे दिल से, 

हाय, पूछो मेरे दिल से! 

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You-tube / Wion पर उस होस्टेस की वाणी झकझोरकर रख देती है। किन्तु यह समझ में नहीं आता कि संसार के कष्टों से संसार की मुक्ति का कोई तरीका उसके पास है भी या नहीं! 

फिर क्यों वह व्यर्थ इतना श्रम कर रही है। 

उदाहरण के लिए आज उसने यू. के. की फौज में rampant व्याप्त rape-culture के बारे में चर्चा की। 

Rape या बलात्कार अपने आपमें एक स्वतंत्र समस्या है, जो कि हिंसा violence की दुष्प्रवृत्ति से उत्पन्न होती है।

क्या किसी नैतिक, आदर्शवादी सोच या शिक्षा से हमारे भीतर स्थित हिंसा के संस्कारों से मुक्त हुआ जा सकता है?

क्या फौज अहिंसा के आदर्श पर चलकर अपना कार्य कर सकती है? क्या किसी सभ्य समाज में फौज अर्थात् सेना की कोई आवश्यकता होगी? 

स्पष्ट है कि हम न तो सभ्य हैं, न अहिंसक। 

साथ ही यह भी सच है कि हिंसक या अहिंसक होना हमारी शिक्षा-दीक्षा, परिस्थितियों, परिवेश और जीवन-मूल्यों पर भी निर्भर होता है। कोई शाकाहारी मनुष्य भी असफलताओं से टूटकर उग्र अथवा हताश हो सकता है। यहाँ तक कि अपनी और अपनों की समस्याओं से भी उदासीनता की हद तक लापरवाह और ग़ैर-जिम्मेदार भी हो सकता है। मनुष्य ही एक ऐसा, इतना विचित्र और जटिल सामाजिक प्राणी है, जो हमेशा द्वन्द्व की मानसिकता में होता है। फिर भी उसमें जहाँ एक ओर आक्रोश, तो दूसरी ओर अपराध-बोध भी होता है। इन सबके कारण वह एक विचित्र भावदशा का शिकार हो जाता है। शायद ही कोई समाज ऐसा होता हो, जिसमें हर मनुष्य इस प्रकार की खंडित मानसिकता से मुक्त होता हो। 

मुझे नहीं लगता, कि संसार की समस्याओं का कभी कोई हल हो सकता है। सभी की अपनी अपनी नितान्त भिन्न, अलग अलग तरह की समस्याएँ होती हैं, जिससे पूरे समाज की एक समस्या की तरह नहीं निपटा जा सकता। कानून, एक हद तक समाज को नियंत्रित और अनुशासित तो कर सकता है, किन्तु चारित्रिक दृढ़ता / कमज़ोरी तो हर व्यक्ति में भिन्न भिन्न होती है।

जब तक भौतिक प्रगति का बुखार नहीं उतरता, तब तक मनुष्य के लिए कोई आशा नहीं की जा सकती। न राष्ट्र के लिए, और न संसार के लिए। 

और यह भी मानना ही होगा कि कोई भी मनुष्य अपने स्वभाव को न तो बदल सकता है, न सुधार ही सकता है। 

जब तक हमारी जीवन-शैली ही पूरी तरह न बदल जाए, तब तक नित नई समस्याएँ पैदा होनी ही हैं।

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पूर्णमिदम्

रिश्ते ही रिश्ते

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अभी दस मिनट पहले सोकर उठा, तो मुझे याद आया कि इस ब्लॉग की शुरुआत 'उन दिनों' शीर्षक से लिखी पोस्ट्स से हुई थी। बहुत दिनों तक यह पता नहीं चल रहा था, कि इसका अंत कैसे होगा। 

कल किसी से बातें करते हुए बॉलीवुड के रिश्तों पर बातें होने लगी। याद आया बॉलीवुड से अपरिचित उस व्यक्ति का कथन :

"Conflict in any relationship degenerates, deteriorates and destroyes the relation."

क्या सचमुच किसी से किसी का कोई रिश्ता होता भी है? 

या, हर किसी का, किसी समय पर किसी जरूरत, भावना, भय, लोभ, आकर्षण या विकर्षण, उत्सुकता, विचार या परिस्थिति से ही कोई तात्कालिक रिश्ता होता और हो सकता है।

इस भावना को किसी आदर्श, सिद्धान्त, महान ध्येय, कर्तव्य, नैतिकता, पाप या पुण्य, यहाँ तक कि धर्म या अधर्म आदि के नाम से जोड़कर कोई काल्पनिक स्थायित्व भी दिया जा सकता है और उसे किसी ऐसे ही महान ईश्वर आदि से भी प्रायः जोड़ा जाता है। क्या किसी रिश्ते का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता भी है? क्या किसी रिश्ते की कोई स्वतंत्र सत्ता होती है? 

किन्तु इस या किसी भी रिश्ते की डोर का एक सिरा तो 'मैं' और दूसरा कोई या कुछ और होता है। 

यद्यपि दोनों ही सिरे और यह डोर भी क्षणिक ही होती है, स्मृति का सातत्य उसे किसी हमेशा (!) या कुछ समय तक के लिए रहने वाली वस्तु मान लेता है। 

इस प्रकार जीवन में सभी की और हर किसी की कोई न कोई भूमिका तो होती है किन्तु किसी का किसी से सचमुच क्या कोई संबंध या रिश्ता होता या हो भी सकता है?

पिछले पोस्ट्स स्क्रोल करते हुए 'उन दिनों' को जब टटोल रहा था, तो एक कविता पर नजर पड़ी।  शीर्षक है :

हिरण्यगर्भ / cosmic mind. 

और अचानक महसूस हुआ कि 'उन दिनों' के क्रम पर अब पूर्ण विराम लगाया जा सकता है।

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October 25, 2021

कर्तृवाच्य / Active Voice.

अस्ति इव वाच्यः 

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बचपन में अंग्रेजी भाषा से आतंकित था। कक्षा ९ में मैंने विज्ञान और गणित मुख्य विषय के रूप में चुने थे। हिन्दी और अंग्रेजी मुख्य भाषाएँ और संस्कृत वैकल्पिक द्वितीय भाषा के रूप में ।  पहले दिन हिन्दी की परीक्षा थी, उसके दूसरे दिन अंग्रेजी भाषा की । कक्षा में हम कुल आठ-नौ छात्र थे । पिताजी गाँव के उसी सरकारी स्कूल में प्राचार्य थे, जहाँ मैं अध्ययन कर रहा था। चूँकि मेरे अलावा मेरी कक्षा के शेष छात्र आसपास के गाँवों से पढ़ने के लिए कुछ किलोमीटर चलकर आया करते थे, जिनके माता-पिता ग्रामीण किसान आदि थे, इसलिए कक्षा में मुझे अनायास प्रमुख स्थान प्राप्त हो गया था। परीक्षा पूरी होने के बाद भी छात्र एक-दूसरे के बारे में जानने के लिए परीक्षा-हॉल से बाहर प्रतीक्षा करते थे । मैं चूँकि अन्त में बाहर आया तो देखा शेष सभी छात्र आपस में चर्चा कर रहे थे। फिर मैंने सबसे कहा :

"कल अंग्रेजी का पेपर है और परीक्षा देना या न देना स्वैच्छिक है, इसके मार्क्स भी परीक्षा-परिणाम में नहीं जोड़े जाएँगे। मैं तो पेपर भी नहीं दूँगा।"

सबसे मेरे विचार का समर्थन किया ।

दूसरे दिन पिताजी सुबह 6:00 बजे 'बोर्ड' के पेपर लेने के लिए  पुलिस थाने चले गए, क्योंकि वे वहाँ रखे जाते थे। मैं आराम से 6:45 पर परीक्षा देने के लिए स्कूल जाने का नाटक करता हुआ घूमने निकल गया। डर तो लग रहा था कि मेरे ऐसा करने का पता तो उन्हें चलेगा ही, और पिताजी बहुत नाराज होंगे । शायद मेरी अच्छी खासी पिटाई भी होगी । पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। 

इसका एक परिणाम यह हुआ, कि कक्षा में मेरा स्थान (रैंकिंग) चौथा हो गया। मुझे आश्चर्य हुआ और जब मैं इस बारे में जानने के लिए कक्षाध्यापक (श्री सच्चिदानन्द दुबे) के पास पहुँचा, तो मुझे पता चला, मेरी अंक-सूची में उन्होंने अंग्रेजी में मुझे प्राप्त हुए अंकों को जोड़कर नतीजा ही बदल दिया था। यहाँ तक कि मेरी श्रेणी (डिवीज़न) को भी इसलिए 'प्रथम' (I) से बदलकर 'द्वितीय' (II) कर दिया था। इस अंक-सूची में देखा जा सकता है कि कैसे मेरे द्वारा इस भूल को इंगित किए जाने पर उसे 'द्वितीय' (II)  से सुधारकर 'प्रथम' (II) किया गया है! 

और नीचे दिनांक 01-05-1968 के साथ, विद्यालय के प्राचार्य :

-मेरे स्वर्गीय पिताजी, श्री एस. एम. वैद्य

के हस्ताक्षर भी हैं, 

आज उस मार्क-शीट को देखा तो याद आया! 



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October 21, 2021

क्या यह सच है?

कविता : 21-10-2021

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धीरे धीरे बदल जाया करता है, सब कुछ,

समय सभी का बदल जाया करता है, कुछ,

क्या कुछ बदल जाने से, समय बदलता है, 

या समय बदलने से ही सब बदल जाता है,

क्या हम किसी एक को भी बदल सकते हैं, 

या, क्या हम खुद भी कभी बदल सकते हैं,

समय बदल जाए तो हमको पता चलेगा, 

यदि कुछ और बदल भी जाए, पता चलेगा, 

लेकिन जो हम खुद ही अगर बदल जाएँ तो,

कैसे हमको तब फिर इसका पता चलेगा!

शायद यह बातें बिलकुल ही बेमानी हैं, 

किसी समय सब ही चीजें बदल जानी हैं,

लेकिन क्या हम बदल जाते हैं, उनके साथ,

क्या फिर समय बदल जाता है, उनके साथ,

फिर वह क्या है, जो नहीं कभी, बदलता है, 

उसका क्या, कभी पता, किसी को चलता है?

लेकिन क्या वह ऐसा कुछ, नहीं हुआ करता है? 

फिर क्यों कभी किसी को पता नहीं चलता है!

सोचते हुए, सोच भी तो, बदल जाता है, 

क्या वह भी, जो यह सब सोचा करता है?

अगर वह खुद ही बदल जाए, तो क्या होगा?

क्या अपने बदल जाने का, उसे पता होगा?

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October 19, 2021

हाँ, बातें तो होंगीं ही!

कविता : 19-10-2021

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जब तुममें कुछ ऐसा होगा,

मुलाक़ातें तो होंगी ही! 

बातें तो लोग करेंंगे ही, 

हाँ बातें तो होंगी ही!

तुम कैसे रोक सकोगे,

लोगों को बातें करने से,

कैसे रोक सकोगे उनको,

घातें-प्रतिघातें करने से,

तुम भी तो यही चाहते हो,

फिर टकराहटें भी होंगी ही!

बातें तो लोग करेंगे ही,

हाँ, बातें तो होंगी ही!

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October 18, 2021

तीसरा और चौथा वहम

(पिछले पोस्ट से आगे) 

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आत्म-सम्मोहन 

उसे प्रत्यक्ष ही पता था कि वह है ।

फिर उसे यह वहम हुआ कि वह 'कोई' है और अपने इस 'कोई' होने की मान्यता उसमें गहरे पैठ गई। अपने आपके, फिर औरों की तरह, फिर भी उनसे कुछ अलग भी होने की दोहरी मान्यता ने उसे ग्रस लिया । उसे पता ही नहीं चला कि इस मान्यता ने उसे किन क्षणों में मोहित कर लिया। 

इसी तरह उसे यह वहम हुआ कि वह अपने आपको जानता भी है। फिर उसे यह भरोसा हुआ कि वह सुखी-दुःखी, चिन्तित होता है। उसे नींद आती है, या नहीं आती, या कि बहुत नींद आती है, या कि ठीक से सो भी नहीं पाता। उसे यह या वह कार्य करना है, या नहीं करना है, वह करना चाहता है, या नहीं करना चाहता, या कि करने के लिए बाध्य, सक्षम या अक्षम है। 

इस प्रकार से उसमें ज्ञान का भ्रम पैदा हुआ, और बहुत सी बातें  जानने का भ्रम भी। इस प्रकार, जानने का यह क्रमशः भ्रम दृढ होता चला गया, लेकिन इस तथ्य पर उसका ध्यान नहीं जा पाया कि मूलतः उसे ज्ञान नहीं, ज्ञान का भ्रम है। पर फिर जब उसका ध्यान इस पर गया तो उसे लगा कि दूसरों की ही तरह वह स्वयं भी तो अज्ञानी ही है! तब फिर ज्ञान अर्जित करने के लिए वह जी-जान से प्रयास करना प्रारम्भ हुआ। किन्तु जब उसे लगा कि ज्ञान तो अनन्त है, और इसे प्राप्त करने के लिए उसे पता नहीं कितना समय लगेगा, और कितने जन्म लेने पडे़ंगे, तो हताशा ने उसे जकड़ लिया। 

किन्तु जैसा कि कहते हैं :

"Every dark cloud had a silver ring around it... "

उसे यह भी समझ में आया और इस भ्रम पर उसका ध्यान गया कि ज्ञान, और ज्ञान का भ्रम दोनों ही अज्ञान के ही दो प्रकार हैं, तो उसमें ऐसा उल्लास उठा, जिसने इस तथाकथित ज्ञान और अज्ञान का, तथा उस भ्रम का भी ध्वंस कर दिया। यह ध्वंस का उल्लास था।

तब उस ध्यान में उसे अनायास ही यह भी स्पष्ट हुआ कि उसकी तमाम परिचय, मान्यताएँ, विश्वास और सन्देह, जन्म और मृत्यु, ईश्वर, मोक्ष, आयु, संबंध भी केवल कोरी कल्पनाएँ ही हैं, और यह कल्पनाएँ भी जिसमें उठती और मिटती रहती हैं, वैसा कुछ, या वह, 'कोई' नहीं है।

अर्थात् उसका ऐसा कोई और कुछ, कहीं नहीं है, जिससे उसका कोई संबंध हो, या हो सकता है। हाँ, पर अनेक वस्तुओं, चीजो़ं, लोगों और घटनाओं से उसका सामना अवश्य, और सतत होता रहता है, किन्तु वह स्मृति जिसमें उनका बनना-मिटना होता है, वह स्मृति तक भी, उसकी अपनी कहाँ है?

तब उसने अपनी उस आत्मा को पुनः एक बार जान लिया, जो  कि इस आत्म-सम्मोहन से मोहित और दुविधाग्रस्त हुई थी।

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October 17, 2021

वह और वहम

मैं और अहम् / Ego and I. 

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उसे एक नहीं, दो वहम हैं,

पहला : "कोई रिअलाइज्ड है!"

दूसरा : "मैं रिअलाइज्ड नहीं हूँ!"

लेकिन उसे इस बारे में कोई वहम / शक / गलतफहमी नहीं है, कि वह है, उसका अस्तित्व है। उसे इस बारे में भी कोई वहम / शक / गलतफहमी नहीं है कि उसे अपने होने का, अस्तित्व का, भान है। 

पर उसका ध्यान कभी इस ओर नहीं गया, और न ही किसी ने उसका ध्यान इस ओर ध्यान आकर्षित किया कि अपने होने का और अपने होने के इस भान का क्या तात्पर्य है / हो सकता है !

उसने हमेशा कुछ करना चाहा, पर वास्तव में उसे क्या करना है, क्या करना चाहिए, और क्यों करना चाहिए, क्या नहीं करना है, क्या नहीं करना चाहिए, और क्यों नहीं करना चाहिए, इस पर उसका ध्यान हमेशा ही हुआ करता था। 

अपने होने के, और अपने होने के भान का तात्पर्य क्या है, इस पर उसका ध्यान न जाने से उसे यह गलतफहमी हो गई थी कि वह कुछ करता है, नहीं करता, कर सकता है, या कि वह कुछ नहीं कर सकता।

उसने हमेशा कुछ पाना चाहा, पर वास्तव में उसे क्या पाना है,  क्या पाना चाहिए, और क्यों पाना चाहिए, उसे क्या नहीं पाना है, क्या नहीं पाना चाहिए, और क्यों नहीं पाना चाहिए, इस पर भी उसका ध्यान हमेशा ही हुआ करता था। 

अपने होने के, और अपने होने के भान का तात्पर्य क्या है, इस पर उसका ध्यान न जाने से उसे यह गलतफहमी हो गई थी, कि वह कुछ चाहता है, नहीं चाहता, चाह सकता है, या कि वह कुछ नहीं चाह सकता। 

उसने हमेशा कुछ बातों / वस्तुओं / चीज़ों को 'अपना' मान लिया, या अपना बनाने का प्रयास किया, लेकिन इन बातों / वस्तुओं / चीज़ों / से उसका क्या संबंध हो सकता है, हो भी सकता है या नहीं, इस ओर कभी उसका ध्यान गया ही नहीं, न किसी ने इस ओर उसका ध्यान आकर्षित किया । इन बहुत सी बातों / वस्तुओं / चीज़ों में से कुछ तो एकदम ऐसी ठोस और  उपयोग में भी आनेवाली वास्तविकताएँ थीं, जिनकी सत्यता व्यावहारिक, इन्द्रिय-ग्राह्य और स्वतः-सिद्ध थी, जबकि कुछ दूसरी ऐसी भी थीं जिनका पता उसे बुद्धि, कल्पना और स्मृति के माध्यम से हुआ करता था। अर्थात् वे केवल बुद्धिग्राह्य थीं, वैचारिक, और शाब्दिक प्रकार की मनो-संरचनाएँ थीं, जिनकी प्रामाणिकता की परीक्षा करने की कल्पना तक उसे नहीं हो पाई थी।

लेकिन इनसे भी भिन्न कुछ ऐसी वस्तुएँ भी थीं, जो अनुभव-परक भावनाओं और भावनात्मक अनुभवों की तरह से उसे 'अपनी' प्रतीत होती थीं।

अनुभवपरक भावनाएँ तो वे थीं, जिन्हें कि फ़ीलिंग्स कह सकते हैं, जबकि भावनात्मक अनुभव वे थे, जिन्हें इमोशन कह सकते हैं। इमोशन भीतर से उठते थे, जबकि फ़ीलिंग्स बाहर के प्रभावों की प्रतिक्रियाएँ, अनुभवों के प्रत्युत्तर। 

इन्हें सम्मिलित रूप में संवेदनाएँ या सेन्टीमेन्ट्स कह सकते हैं। इस प्रकार से सेन्टीमेन्ट्स की जटिलताओं का जोड़ ही उसका कृत्रिम / आभासी व्यक्तित्व था, जो कि उसे 'अपना' प्रतीत हुआ करता था। किन्तु उसका ध्यान इस ओर कभी न जा पाया कि यदि व्यक्तित्व 'उसका' है, तो वह कौन है, जिसे अपने व्यक्तित्त्व का पता है! क्या वह व्यक्तित्व है, या कि व्यक्तित्व का स्वामी!

और शायद ही कोई दूसरा इस ओर उसका ध्यान आकर्षित कर सकता था। 

इसीलिए उसे ये दो गलतफहमियाँ थीं, दो वहम थे :

पहली यह कि दूसरा कोई और रिअलाइज्ड है, 

दूसरी यह कि वह रिअलाइज्ड नहीं है। 

इसीलिए उसने हमेशा किताबों में खोजा,  तमाम गुरुओं से पूछा कि मुझे रिअलाज़ेशन कब और कैसे होगा।

उसे यह वहम भी था कि रिअलाज़ेशन कोई नई जानकारी है,  जिसे प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु उसे यह जानकारी नहीं थी, कि जिसे प्राप्त किया जाता है वह अवश्य ही खो भी जाता है।

क्या कोई कभी अपने-आपको खोज सकता है?

क्या कोई कभी अपने-आपको प्राप्त कर सकता है? 

क्या कोई कभी अपने-आपको खो सकता है?

क्या कोई कभी अपने-आपको जान सकता है? 

क्या कोई कभी अपने-आपको भूल सकता है?

उसके पास बहुत सी जानकारियाँ थीं, जो उसे ज्ञान प्रतीत होती थी। और उसे लगता था कि आत्म-ज्ञान भी कोई विशेष प्रकार की जानकारी है, जिसे प्राप्त कर लेने पर मनुष्य रिअलाइज्ड हो जाता है।

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October 16, 2021

तन-मन-चेतन

कविता : 16-10-2021

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तन व्याकुल, या मन व्याकुल,

या पूरा ही यह जीवन व्याकुल!

क्या वह चेतन, जिसमें हैं होते,

तन, मन, जीवन, वह व्याकुल, 

हर कोई कहता है 'मैं' व्याकुल, 

मेरा तन, मन, जीवन व्याकुल! 

कैसी है यह दुविधा जिसमें,

हर कोई होता है व्याकुल!

यह तन, मन जड है, या चेतन,

यह 'मैं', 'मेरा', जड या चेतन,

'मैं', 'मेरा' फिर जो कहता है,

वह भी क्या जड है, या चेतन!

मन जिस जिस को भी माने,

मन जिस जिस को भी जाने,

जिससे मन जाना जाता है, 

क्या वह जड है, या चेतन!

क्या वह चेतन तन या मन है,

क्या वह चेतन है, आता जाता?

तन या मन आते जाते हैं, 

उनसे चेतन का क्या है नाता!

तन, मन से बँधा हुआ यह, 'मैं',

तन, मन में बिंधा हुआ यह, 'मैं',

जिसको 'मैं' हर कोई कहता,

उससे किसका है, क्या नाता?

यह 'मैं' पल-प्रतिपल बनता है,

यह 'मैं' पल-प्रतिपल मिटता है, 

लेकिन यह पल-प्रतिपल भी तो,

'मैं' से ही बनता मिटता है! 

इसी तरह से 'मेरा' भी,

यह विचार, यह भावना,

भूत-भविष्य या वर्तमान,

सत्य, या कि है कल्पना!

क्या कोई 'मन', 'मैं' होता है, 

क्या कोई तन 'मैं' होता है?

क्या यह 'मन', 'मेरा' होता है, 

क्या यह 'तन', 'मेरा' होता है?

क्यों ऐसी व्यर्थ कल्पना में,

आखिर 'मेरा' मन खोता है?

क्या वह चेतन, जिसमें तन, मन,

'मैं', 'मेरा' बनते-मिटते हैं,

क्या वह बनता या मिटता है,

क्या वह मिलता या खोता है?

क्या वह कह सकता है 'मैं', 

फिर भी सदैव ही होता है,

क्या वह कह सकता है 'मेरा', 

फिर भी वह निजता होता है!

यह निज चेतन, जो है सबका, 

यह निज चेतन, जिसमें सब हैं, 

यह निज चेतन जो निजता है,

है एक, अनेक, जैसा कुछ क्या!

उससे ही सब, सब-कुछ जानें, 

उसे न लेकिन कोई जाने,

या फिर यूँ भी कह सकते हैं, 

केवल वह ही निजता को जाने! 

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संदर्भ :

केनोपनिषद्, खण्ड १,

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यादन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि ।

इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्वयाचचक्षिरे ।।३।।

यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते ।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।४।।

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।५।।

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति ।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।६।।

यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिद्ँ श्रुतम् ।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।७।।

।। प्रथम खण्ड समाप्त ।।

यही ब्रह्म, जिसे आत्मा, ईश्वर, गुरु और परमात्मा भी कहा जाता है वह चैतन्य (Awareness / Consciousness), चेतना (consciousness / sentience) या 'चेतन' है, जिसका उल्लेख गीता, अध्याय १० में इस तरह से है :

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।

इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ।।२२।।

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October 14, 2021

गुनाह

कविता : 14-10-2021

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गवाह

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बेपरवाह तो नहीं, हाँ, लापरवाह हूँ मैं, 

प्रकृति का स्वाभाविक, सहज-प्रवाह हूँ मैं! 

मुझमें हैं खामियाँ कुछ, तो ख़ासियतें भी हैं,

इन ख़ामियों, ख़ासियतों का, हाँ गवाह हूँ मैं! 

न आता हूँ कहीं से, न जाता हूँ मैं कहीं भी,

मजबूत इरादों की, पर ठोस राह हूँ मैं!

यूँ चला था बनाने को, मैं एक नई दुनिया,

ऐसी ही क़ोशिशों से, हुआ तबाह हूँ मैं!

फैला तो ऐसे फैलता, ही चला गया मैं,

ईमानदार जैसे मासूम आह हूँ मैं!

मालिक ने जब से दी है, दिल में पनाह मुझको,

शहंशाह ही नहीं, जहाँपनाह हूँ मैं! 

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October 13, 2021

शाङ्करीय लास्य

हिमालय / तिब्बत / मानस-सरोवर 
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59 वर्ष पहले 21 अक्तूबर के दिन अचानक चीन ने भारत पर आक्रमण किया । किन्तु इसे अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि चीन के उस समय के तत्कालीन शासक माओ-त्से-दोङ् को लगता था कि भारत के उस भौगोलिक उत्तर पूर्व में वह क्षेत्र है जहाँ पहुँच जाने पर मनुष्य अमर हो सकता है। यद्यपि वह अमर होना तो चाहता था, किन्तु उसे उस क्षेत्र का ठीक ठीक स्थान कहाँ है इस बारे में संशय था। 
इसके लिए पहले तो उसने तिब्बत पर आक्रमण कर, बलपूर्वक उस पर अधिकार किया और अपने देश की सीमाओं के भीतर राज्य के रूप में मिला लिया ।
भारत का दुर्भाग्य कि हमारे तत्कालीन शासक चीन की नीयत न भाँप सके, और कौन जानता है कि क्या बौद्ध धर्म के पंचशील के सिद्धान्त की आड़ में चीन ने भारत को धोखे से मित्रता का नाटक किया!
जो भी हो, अभी भी चीन-भारत के बीच सीमा-विवाद का कोई समाधान नहीं हो पाया है। 
यह सत्य है कि हिमालय भारत का प्रहरी है और नेपाल भारत का नेत्र जिसमें धूल झोंककर चीन अपने कुत्सित इरादों को पूर्ण करने की चेष्टा में संलग्न है। 
इसे ऐतिहासिक फ्लैशबैक / रिट्रोस्पेक्ट में देखें तो ज्ञात होगा कि इसके मूल में अंग्रेजों की कुण्ठा थी, क्योंकि उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था, और वे चाहते थे कि यह सोने की चिड़िया भारत (जो कि ईश्वर और प्रकृति के आशीर्वाद से एक राष्ट्र है), टूटता चला जाए, और उसका नामो-निशान तक बाकी न रह पाए।
हिमालय, कैलास-मानसरोवर, और नेपाल के आसपास एक शिव-क्षेत्र है, जहाँ भगवान् शिव माता पार्वती की प्रसन्नता के लिए स्त्री का रूप धारण कर निवास करते हैं। और केवल वे ही नहीं, उस स्थान के दूसरे भी सभी प्राणी भी सदैव शारीरिक दृष्टि से स्त्री के ही रूप में होते हैं, अर्थात् वहाँ कोई प्राणी पुरुष-रूप में, पुंल्लिंग के रूप में नहीं है । केवल मनुष्य और पशु-पक्षी ही नहीं, बल्कि वृक्ष-वनस्पतियाँ भी इसी प्रकार से स्त्री-लिंगीय हैं। 
(सन्दर्भ उत्तरकाण्ड, सर्ग ८७)
महर्षि वाल्मीकि को आदिकाव्य रामायण लिखने की प्रेरणा व्याध द्वारा जिस क्रौञ्च पक्षी के वध की पीड़ा से हुई, उसका वर्णन वाल्मीकि रामायण ग्रन्थ के बालकाण्ड में द्वितीय सर्ग में इस प्रकार से है :
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ।।१५।।
इसी क्रौञ्च पक्षी के कैलास पर्वत से मानसरोवर तक आने जाने के लिए पर्वत में एक रन्ध्र का उल्लेख महाकवि कालिदास कृत मेघदूतम् ग्रन्थ के 'पूर्वमेघ' में इस प्रकार से पाया जाता है :
प्रालेयाद्रेरुपतटमतिक्रम्य तान्स्तान्विशेषान् 
हंसद्वारं भृगुपतियशोवर्त्म यत्क्रौञ्चरन्ध्रम् ।
तेनोदीचिं दिशमनुसरेस्तिर्यगायामशोभी 
श्यामः पादो बलिनियमनेऽभ्युद्यतस्येव विष्णोः ।।५९।।
यद्यपि इसे महाकवि कालिदास ने यहाँ क्रौञ्चरन्ध्र भी कहा है, किन्तु इसी पंक्ति में उसे हंसद्वार भी कहा है। 
चन्द्रभागा, शतद्रु (सतलज) और सरस्वती नदियों के समीपवर्ती इस क्षेत्र में कनाल और हरिद्वार स्थित हैं।यह क्षेत्र कैकेय व हैहय क्षेत्रों के बीच है। इसके उत्तर में क्रौञ्चरन्ध्र है और उसके तथा हरिद्वार के मध्य से ब्रह्मपुत्र नद, कामरूप की दिशा में प्रवाहित होता है। 
भगवान् शङ्कर के इसी स्थान पर और कैलास मानस-सरोवर क्षेत्र के समीप स्थित वह शिवलोक है, जहाँ पृथ्वी का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा 'इल' एक बार आखेट करते हुए भूल से आ गया था, और वह, उसकी पूरी सेना व सेवकों सहित स्त्री-रूप में परिणत हो गया था। फिर उसने भगवान् शिव से प्रार्थना की कि इस संकट से उसका उद्धार करें। तब उन्होंने 'इल' से कहा कि वह इसके लिए माता पार्वती से निवेदन करे। संक्षेप में तब उसे यह वर प्राप्त हुआ कि वह क्रमशः एक मास तक पुरुष और फिर एक मास तक स्त्री-रूप में रहेगा। 
तत्पश्चात, 'इल' जब इस प्रकार से एक समय जब स्त्री-रूप में था उसका संपर्क महात्मा बुध (आकाशीय ग्रह) से हुआ जो उस शिव-क्षेत्र से बाहर तपस्यारत थे। 
यहाँ कथा में ज्योतिष के गूढ तत्वों के बारे में कहा गया है, और हम पुनः उस शिव-क्षेत्र पर आ जाते हैं जहाँ पर भगवान् शिव लास्य-नृत्य किया करते हैं। 
इस प्रकार उस स्थान का नाम शाङ्करीय लास्य के रूप में लोक में विख्यात हुआ। 
दीर्घ काल के बीतने पर उसे ही अपभ्रंश के रूप में शांग्री-ला के रूप में जाना जाने लगा।
चीन इसी स्थान की खोज में है ताकि उसके शासक 'अमर' हो सकें ।
किन्तु लगता नहीं कि कभी वे इसे खोज पाने में सफल हो सकेंगे । पर यदि वे भगवान् शिव को खोज लें तो हो सकता है कि शायद उन्हें उनके आशीर्वाद से इसमें सफलता मिल जाए! 
आश्चर्य नहीं कि बौद्ध लामाओं को इसके रहस्य का पता हो! 

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October 07, 2021

नवरात्र का प्रथम दिन

पिछला एक दशक 
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याद नहीं किस समय अथर्वशीर्ष का पाठ करना प्रारम्भ किया था, लेकिन अब दस से भी अधिक वर्ष हो चुके हैं। दो वर्ष पहले जब इस स्थान पर रहने आया था, तब लग रहा था शायद यहाँ मैं एक-दो साल तक रह सकूँगा। दो साल पूरे होनेवाले हैं।
दो साल पहले, अर्थात् 2019 के नवरात्र के समय, और वैसे भी आसपास घूमते रहना बहुत अच्छा लगता था। फिर 2019 के अन्त में कोरोना की बीमारी के समय भी यहाँ इतना एकान्त था कि घूमते रहने में कोई बाधा कभी नहीं हुई। बल्कि समय बहुत अच्छा बीतता था।
2019 के नवरात्र में यूँ ही सुबह-शाम घूमते हुए पार्क में लगे हुए पेड़ों का निरीक्षण करता था। यहाँ चम्पा, कनेर, कदम्ब, बबूल, नीम और दूसरे भी ऐसे अनेक वृक्ष लगे हुए हैं जिनके नाम तक मुझे नहीं मालूम। उसी दौरान चम्पा के पेड़ों पर छोटे छोटे शंख दिखलाई पड़े तो आश्चर्य हुआ था। यह तो मालूम था कि इस प्राणी को घोंघा या  snail 🐌  भी कहते हैं, किन्तु वे इन पेड़ों पर कैसे पहुँच गए इस बात से थोड़ा अचरज होता था। 
अभी दो हफ्ते पहले निचले तल पर लगे हुए उस बड़े से आईने के किनारे पर एक घोंघा दिखा, तो सोचा शायद मृत होगा। आज ही अपने स्वाध्याय ब्लॉग में 'प्रथमा शैलपुत्री' शीर्षक से एक पोस्ट लिखा ही था, कि दोपहर में एक और भी, बहुत छोटा घोंघा खिड़की पर दिखाई दिया और तय किया कि यह जीवित है या नहीं, इसका पता लगाऊँगा। उन दोनों को उस स्थान से थोड़ा बलपूर्वक खींच कर निकाला, और एक तश्तरी में रखकर उसमें थोड़ा पानी भर दिया । केवल इतना कि वे पूरी तरह डूब
 गए। पाँच मिनट के बाद एक में हलचल होती दिखलाई पड़ी।
 और दो-तीन मिनट के बाद, दूसरे में भी। फिर वे दोनों अपनी -
 अपनी खोल से बाहर निकल आए। और दो मिनट बाद तो उन  दोनों के दो सींग, शृंग (एन्टीना) भी उभर आए। 
तब मुझे पता चला कि वे इतने दिनों से hibernation अर्थात् कल्पवास में थे। शायद वे शीत-ऋतु से ग्रीष्म-ऋतु तक ऐसे ही किसी हरे पेड़ पर चिपटे रहकर, उसके रस को पीकर वह समय बिताते होंगे।
थोड़ी देर तक उन्हें कौतूहल से देखता रहा, फिर तश्तरी से पानी बाहर फेंक दिया, तो वे उसकी दीवार पर चढ़ने लगे। तब उन्हें तश्तरी के साथ उठाया और बाहर जाकर नये नये उसे हुए एक छोटे से चम्पा की शाखा पर डाल दिया। अब शायद उनका यह समय ठीक से बीत जाएगा। आईने या खिड़की पर तो क्या पता वे कब तक जिन्दा रहते! रह पाते भी या नहीं! 
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एक टिप्पणी :
10-10-2021
कल एक मित्र ने और गूगल ने भी बतलाया कि घोंघे के भीतर कुछ ऐसे सूक्ष्म जैविक प्राणी प्रोटोज़ोआ होते हैं, जो त्वचा से हमारे शरीर में प्रविष्ट होकर गंभीर बीमारी का कारण बन सकते हैं। यहाँ इस जानकारी को इसलिए शेयर कर रहा हूँ कि भूलकर भी आप कहीं अनजाने में, उत्सुकता और लापरवाही से उसे न छू लें।
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एक बंजर गर्म रेगिस्तान में

कविता : 07-10-2021

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हाँ इस एक बंजर गर्म रेगिस्तान में, 

मैं तो उगाने जा रहा हूँ कमल! 

हाँ ये सच है, वक्त लगना है ज़रूर,

फिर भी करने जा रहा हूँ मैं अमल! 

पहले बदलूँगा मैं मौसम यहाँ का, 

एक टुकड़े पर उगाऊँगा मैं घास, 

और वह टुकडा़ बडा़ करते हुए,

एक जंगल बनाने का है प्रयास!

और उस जंगल को भी बड़ा करके,

बंजर जमीन यह उपजाऊ बनाऊँगा,

इस भूमि की मिट्टी को भी दूँगा बदल! 

जब ये जंगल फैल जाएगा क्षितिज तक,

मौसम, हवा भी बदल जाएँगे, दूर तक! 

आने लगेंगे जब यहाँ पंछी भी हर ओर से,

उड़कर के चहचहा के, कलरव करेंगे जोर से, 

गूँजने लगेंगे यह धरती, गगन उस शोर से

देख लूँगा धरती अपने सजल नेत्र-छोर से!

वही नेत्र जो आज तक थे तप्त रेगिस्तान में,

शुष्कप्राय, अश्रुसिक्त, हो उठेंगे फिर सजल!

और फिर है क्या अचंभा, सरोवर भी यहाँ होगा,

और उस पर पल्लवित पुष्पित भी होंगे कमल! 


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October 02, 2021

मैं अवाक्!

स्मृति ही वाणी...!

कविता : 02-10-2021

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खुद ही खुद से बातें करती है, 

'मैं' तो हर पल ही रहता मौन, 

घातें-प्रतिघातें करती है!

'मैं' तो हर पल ही रहता मौन!

स्मृति ही कहती है, दुनिया है, 

स्मृति ही तो 'मैं' कहती है!

'मैं' ही, मेरी दुनिया भी, 

स्मृति ही तो यह कहती है!

खुद ही बाँटती है खुद को, 

'मैं'-'मेरे' में, बँट जाती है,

अपने ही इस ताने-बाने के,

जाल में खुद फँस जाती है!

'मैं' अवाक् बस देखा करता, 

पल-प्रतिपल स्मृति का खेल,

फिर भी कभी नहीं कहता कुछ,

कैसे यह, कह सकता, मैं! 

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संदर्भ : गीता, 

अध्याय ४ --

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।५।।

अध्याय ७ --

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।।२६।।

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उपरोक्त दोनों श्लोकों का अर्थ :

'अहं' को उत्तम पुरुष एकवचन, अन्य पुरुष एकवचन या आत्मा / परमात्मा / ईश्वर, किसी भी अर्थ में ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि यहाँ 'वेद' -- वर्तमान काल,  लिट्-लकार में उत्तम पुरुष और अन्य पुरुष दोनों ही से सुसंगत है।

'मां' या 'माम्' को भी, इसी प्रकार से, मेरे' या 'आत्मा के' / 'ईश्वर के', इन सभी अर्थों में ग्रहण किया जा सकता है। 

ईश्वर यद्यपि सबको जानता है, ईश्वर को कोई नहीं जानता। अपनी आत्मा को, -अपने आपको भी उस प्रकार से नहीं जाना जा सकता, जिस प्रकार से अपने से भिन्न किसी अन्य वस्तु को जाना जाता है। आत्मा में निमग्न होकर ही आत्मा को उस ज्ञान से जाना जाता है जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय का भेद मिट जाता है और सब कुछ आत्मा ही है, इस सत्य का साक्षात्कार होता है। 

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फ़िलहाल और हमेशा

कविता : 02-10-2021

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वक्त आईना है, इसमें अपनी शक्ल देख लीजिए, 

वक्त आईना है, इसमें अपनी अक्ल देख लीजिए! 

हमेशा जिसको कहें, ऐसा कुछ, कहीं भी नहीं होता, 

सभी कुछ अभी, या बस, फ़िलहाल ही है, जो होता! 

जो गुजर गया, कभी हुआ था भी, कि नहीं, क्या पता, 

जो होगा, हो सकता है, उम्मीद जिसकी, शायद हो पता। 

वक्त चलता ही रहता है हमेशा, हमवार, लगातार, मगर,

फिर भी ठहरा भी रहता है, वो फ़िलहाल की तरह अभी!

ये अजीब लगता है कि ऐसी भी क्या शै है यह वक्त,

जो कभी चलता है, चलता भी नहीं, बदलता है कभी!

वक्त बदले या न बदले, आप बदल सकते हैं या नहीं,

ये अगर मालूम हो जाए, कि आप क्या हैं, क्या नहीं!

तो खुल जाएगा यह राज भी कि क्या शै है यह वक्त,

आपके ठहरने, बदलने, से ही तो ठहरता, बदलता है वक्त!

वक्त आईना है बस, दिखलाता है, दर-असल क्या हैं आप,

पहले क्या थे, क्या नहीं, फ़िलहाल मगर क्या हैं आप!

आप क्या होंगे, ये भी बस तसव्वुर, है आपका ख़याल,

आप हमेशा ही रहते हैं फ़िलहाल, फिर भी बेमिसाल!

वक्त आईना है, इसमें अपनी शक्ल देख लीजिए,

वक्त आईना है, इसमें अपनी अक्ल देख लीजिए!

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