आज की कविता
इन्द्रधनु के रंग / LGBTQ
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देह से मुक्ति का उद्घोष है यह,
या मनोविकृति का जोश है यह,
एक उन्माद है विक्षिप्तता का,
या मुक्तिपूर्ण नया होश है यह?
इन्द्रियों की दासता क्या मुक्ति है?
काम का आवेग कोई युक्ति है?
वृत्तियाँ अवसाद न बनें जिसमें,
क्या ये ऐसी कोई प्रवृत्ति है?
सुख की लालसा है अन्तहीन,
मृग-मरीचिका है अन्तहीन,
इन्द्रियाँ क्षीण हो जाती हैं पर,
कामना भोग की है अन्तहीन ।
यह नया उल्लास है पतंगों का,
अग्नि को ज्योति समझने की भूल,
ज्योति जब जागती है हृदय में,
हृदय खिलता है जैसे कोई फूल ।
किन्तु किसे चाहिए मुक्ति यहाँ,
भोग का उन्माद सबको चाहिए,
हर तरफ़ जब हो यही कोलाहल,
योग का प्रसाद किसको चाहिए?
है पतंगों की नियति ही जल जाएँ,
है उमंगों की नियति कि ढल जाएँ,
किसमें है धैर्य अब कहाँ इतना,
फ़िसलने से पहले ही सँभल जाएँ?
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