March 08, 2009

उन दिनों / 8.

रवि, रेवाशंकरजी गर्ग (सर) और मैं ! हम तीनों उस ड्राइंग रूम में बैठे थे ।
"आराम से बैठिए । " - मैंने अनुरोध किया ।
"कल यहाँ आया था, काम तो कुछ ख़ास नहीं था, लेकिन आपके बहाने काम निकाला और काम के बहाने आपसे मिल लिया । " वे हँसते हुए कहने लगे ।
"आप रवि को जानते हैं ?" -मैंने रवि का परिचय देना चाहा ।
"जी, मुझे रवि कहते हैं । " -रवि ने हाथ बढ़ाया ।
उन्होंने उसके हाथ को दूर से ही स्पर्श भर किया ।
ये 'सर' हैं ।
वे मुझे स्थिर दृष्टि से देख रहे थे । बस स्नेह भरी एक सरल सी दृष्टि, जिसमें इनकी आँखों में बहुत हल्की सी मुस्कान थी । और था एक उमंग भरा मौन ।
"आपके बारे में बहुत कुछ बतलाया है कौस्तुभजी ने । अब मैं आपको छोड़ने वाला नहीं हूँ । " -रवि ने कहा ।
"भई, तीन का आँकड़ा तो वैसे भी अशुभ होता है । " -सर बोले ।
"हाँ, इसलिए सिर्फ़ मैं और कौस्तुभजी ही नहीं, बल्कि अविज्नान भी आपके आसपास मंडराता रहेगा, ताकि अशुभ भी अधूरा न रहे । "रवि हँसते-हँसते कहने लगा ।
" फ़िर कोई बात नहीं, पूरी चांडाल- चौकड़ी हो जाएगी यह भी खूब रही । " -सर बोले ।
"अविज्नान शायद आपके मित्र हैं ? "-उन्होंने रवि से पूछा ।
"हाँ, मेरे भी, और कौस्तुभजी के भी । "
"यहीं रहते हैं ? "

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