March 23, 2009

उन दिनों / . 14

वे अक्टूबर के दिन थे , हल्की-हल्की सर्दियाँ शुरू हो चलीं थीं । सुबह-शाम walk पर जाते हुए एक हल्का-सा स्वेटर तो पहनना ही पड़ता था । अपनी कालोनी से बमुश्किल दो मिनट चलनते ही खुली जगह आ जाती थी । मैं उस खुली जगह में एक लंबा चक्कर लगाकर घर लौट जाता था । संयोगवश मेरे घर से तीनों-चारों दिशाओं में ऐसी खुली जगहें थीं । घर के सामने कुछ दूरी पर डी आर पी के क्वार्टर दिखलाई देते थे -और उन क्वार्टरों के बीच एक अकेली लम्बी-चौड़ी, शायद अंग्रेजों के ज़माने की बिल्डिंग । जिस जगह बैठकर मैं यह लिख रहा हूँ, वहाँ से, सामने खिड़की से उस बिल्डिंग का दाहिना हिस्सा दिखलाई देता है । उस बिल्डिंग का सामना दूसरी तरफ़ है। वह यहाँ से दिखलाई ज़रूर देती है, लेकिन अगर वहाँ तक जाना हो तो घर से बाहर निकलना होगा । एक रास्ता मेरे घर के सामने से बाएँ-दाएँ चला जाता है, एक दूसरा मेरे दरवाज़े से उस बिल्डिंग तक, बीच के मैदान से गुज़रता हुआ जाता है । इस तरह मेरा उस समकोण पर स्थित है, जहाँ ये तीनों या दोनों रास्ते मिलते हैं । दाएँ-बाएँ जानेवाले रास्ते पर भी दोनों ओर कालोनी के मकान हैं, और उस रास्ते को समकोण पर मिलनेवाला मुझे इस खिड़की से दिखलाई देनेवाला जो रास्ता है, उसके भी दोनों तरफ़ कालोनी के मकान हैं । जैसा की मैंने कहा था, यह एक 'एल आई जी' मकान है । इसका फुल फॉर्म है, -लोअर इनकम ग्रुप । और कभी-कभी सोचता हूँ कि यह नामकरण उपहासवश किया गया है, या फ़िर करुणावश ? मेरे पड़ौसी बतलाते हैं कि यह 'यथार्थ-परक' है ! ज़ाहिर है कि इस पर बहस की गुंजाइश नहीं है !
तो मुद्दे की बात यह है कि डी आर पी लाइन में परेड-ग्राउंड भी है, रक्षित-निरीक्षक का बँगला भी है, पुलिस का घुड़सवार-दस्ता भी है, पुलिस के 'वज्र' वाहन, भारी ट्रक, ४०७, जीप, और न जाने क्या-क्या है ! और है, -शान्ति ! सुबह-शाम 'walking' करते हुए ताज़ा साँस भरना जीवन का सहज-स्वाभाविक, सर्वोत्तम सुख महसूस होती है । यदि घर के दाहिनी ओर से मुड़कर सीधे निकल जाऊँ, तो इंजीनियरिंग कॉलेज की दीवार को , -जिसे बीच से तोड़ दिया गया है, पार करने के बाद कॉलेज का विशाल खुला क्षेत्र आ जाता है, जहाँ से इंदौर-रोड़ तक जाने में तीन किलोमीटर जाना, और उतना ही लौटना होता होता है ।
तीसरा रास्ता मेरे घर से बांयीं तरफ़ जाने पर मिलता है, जो सीधे बिड़ला-हॉस्पिटल तक और उससे भी आगे जाता है । वह भी दो-तीन किलोमीटर से कम नहीं होता।
और एक चौथा रास्ता तीसरे की विपरीत दिशा में देवास-रोड की तरफ़ है, जहाँ यूनिवर्सिटी है, कोठी-पैलेस (कलेक्टोरेट) है ।
तो इस जगह को कैसे छोडा जा सकता है ? इसे ही बतलाने के लिए इस विस्तृत जगह का वर्णन करने में 'लिखना' विस्तृत हो गया, -क्षमा चाहता हूँ ।
बचपन से आदत है, -सूर्योदय से पहले नींद खुल ही जाती है , नौकरी के दिनों में ज़रूर कभी-कभी सूर्योदय से आधे घंटे बाद भी उठने लगा था लेकिन सुबह-शाम का घूमना आज भी बचपन की ही तरह आदत में बसा हुआ है । जिस शहर में सुबह-शाम घूमने लायक साफ़-सुथरी सड़कें न हों वहाँ बहुत बेचैनी होने लगती है । जहाँ भीड़ हो वहाँ भी ! भीड़ और ट्राफिक में घूमने से बेहतर है अपने कमरे में या छत पर चहल-कदमी कर लेना ।
जब सुबह उठता था तो अन्धकार की चादर पूरे आकाश को घेरे रहती थी, -और जमीन को भी । हाँ, कभी-कभी चन्द्रमा की ज्योत्स्ना भी उस चादर को तार-तार कर दिया करती थी । एक नीला आलोक आकाश पर छाया होता, और खिड़की से देखने पर दिल धक् से रह जाता, लगता अभी भागकर बाहर निकल जाऊं । चांदनी में मौन, स्तब्ध पेड़, मंद-मंद हवा, और सोया हुआ पूरा शहर, हाँ कभी-कभी दूधियों कस भोंपू ज़रूर बज उठते थे, लेकिन वे इस मौन को और गहन कर देते थे । जल्दी से 'ब्रश' करता, क्योंकि यह भी बचपन की आदत है । धीरे से घर का दरवाजा खोलता और वैसे ही उसे पुन: बंद भी कर देता ।

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