March 07, 2009

उन दिनों / 7.

"अतः इन शुद्ध इन्द्रिय अनुभवों में से वह "जो है", जो कुछ भी इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता है, अर्थात् जो भी इन्द्रिय-गम्य है, जिसे हम 'observed' कहें, उसका एक बहुमाध्यम-युक्त चित्र (multi-media) उसके मस्तिष्क में बनता है , और उस चित्र में अभी "जो है" , उसका शुद्धतम चित्रण होता है । 'समय' गुजरने के साथ-साथ , (हालाँकि न तो भौतिक, और न मानसिक, या भौतिक निष्कर्ष-गत रूप में अभी 'समय' नामक कोई वस्तु उसके लिए है !) विभिन्न 'अनुभवों' का 'क्रम' , 'स्मृति' को जन्म देता है और स्मृति फ़िर मनोगत निष्कर्ष के रूप में 'समय' को जन्म देती है । इस प्रकार "जो है",- 'observed', 'समय' और 'स्थान' के रूप में शिशु के 'मस्तिष्क' में जड़ें जमा लेता है । यह समय और स्थान "जो है" के ही, दो आयाम भर होते हैं । नामकरण तो अभी भी शुरू नहीं हुआ होता, अभी तो मस्तिष्क विभिन्न चित्रों को काट-छाँट रहा होता है, और (इन्द्रिय-अनुभवों के ) चित्रों के रूप में इन्द्रिय-अनुभवों की सीडी बना रहा होता है । क्या इस समय "मैं" जैसी कोई चीज़ कहीं होती है ?"
"नहीं होती । "
"इसके बाद ध्वनियों और उनके साहचर्य में रहनेवाले अनुभवों का वर्गीकरण मस्तिष्क करता है । इसे हम अनुभवों का वर्गीकरण भी कह सकते हैं । सुखद और दु:खद, अनुकूल और प्रतिकूल का वर्गीकरण भी मस्तिष्क करता है । यह सब एक स्वाभाविक, एकदम प्राकृतिक प्रक्रिया है - इसमें कोई स्वतंत्र नियामक (sensor) कहीं नहीं होता, जो इसे प्रेरित या निर्देशित करता हो ।"
"हाँ । "
"इसके पश्चात् "भाषा'' का आगमन होता है, : पूर्व-अनुभवों से अगले अनुभवों की 'तुलना' का कार्य शुरू होता है । अब मस्तिष्क, शब्द-विशेष को 'अनुभव की स्मृति' के विकल्प के रूप में प्रयुक्त करने लगता है । यह अनुभव वैसे तो शुद्ध इन्द्रिय-अनुभव होता है , लेकिन शब्द-विशेष के विकल्प को अपनाने के बाद मस्तिष्क 'भावनात्मक'-अनुभवों की स्मृति के विकल्प की तरह से भी शब्दों का इस्तेमाल करने लगता है । वास्तव में, हम अपने 'अनुभव' को 'जानते' हैं, या कि 'अनुभव' की स्मृति को ? और 'जानने' से हमारा क्या अभिप्राय होता है ? क्या यह 'जानना' जानकारी या सूचना-रूपी ज्ञान होता है ? "
"नहीं, यह 'जानना' कोई अलग चीज़ है । - मैं सूत्र को आगे बढाता हूँ ।
वैसे तो उसकी बातों में मैं इतना तल्लीन था, कि "जानना" भर ही शेष था, और मुझे उत्तर देना है, इसकी कल्पना तक विदा हो चुकी थी ।
"तो", - उसने आगे कहा, - यह 'जानना' अभी ऐसा है, जैसा कि उस शिशु का 'जानना' होता है, जिसने अभी इन्द्रिय-अनुभवों का 'चित्रण' या वर्गीकरण नहीं किया होता है । "
"हाँ , -मैं सहमत हूँ । "
"तो क्या हम यह कह सकते हैं कि उस शिशु में 'समय', स्थान', और इन्द्रिय-अनुभवों की कल्पित सत्यता में जो 'क्रम' का ख़याल पैदा हुआ है, उसमें 'जो है' की 'छवि' को ही वह एक 'संसार' के रूप में देखने लगा है ?"
"हाँ, यह तो बिल्कुल ही स्पष्ट सी बात है ।"
"फ़िर इस सारे 'संसार' के 'विकल्प' की तरह से, या उसकी पृष्ठभूमि में कोई सापेक्षतः एक 'स्थिर' वस्तु भी है, ऐसा एक निष्कर्ष भी स्वाभाविक रूप से उसके निर्दोष चित्त में जन्म लेता है । अर्थात् वह, या उसका मस्तिष्क यह मान लेता है कि इस परिवर्त्तनशील संसार में एक अपरिवर्त्तनशील चीज़ भी है, जो परिवर्त्तन-रहित है ?"
"हाँ । "
"देखिये , अभी तक 'मन' जैसी कोई चीज़ नही है । "
"हाँ, नहीं है, -'मन' जैसी कोई चीज़ अभी तक । "
"और 'मन' के 'स्वामी' जैसी भी कोई चीज़ नहीं है ।"
"यदि 'मन' नहीं, तो मन का स्वामी भी नहीं ! " - मैं कहता हूँ ।
हम बातें ही कर रहे हैं कि फ़ोन की घंटी बजने लगती है । वह फ़ोन उठाता है लेकिन तुंरत ही मुझे दे देता है ।
सर का फ़ोन है ।
"हाँ भई यहाँ आया था, सोचा मिलता चलूँ !" -बिल्कुल पिछली बार की तरह वे कहते हैं । उस समय तो मैं अपने घर में बैठा हुआ कुछ लिख रहा था, और आज पुरी के उस यूरोपियन से चर्चा कर रहा हूँ । मेरी आंखों के सामने वे दृश्य घूम जाते हैं, जब वे मेरे घर पहली बार आए थे । किसी भाँति अपने-आप को संयत कर कहता हूँ, - "जी, हम इंतज़ार ही कर रहे हैं । हम लेने आ जाएँ ? "
"नहीं-नहीं, मैं मार्केट से ही फ़ोन कर रहा हूँ, बस ऑटो में ही बैठा हूँ, यूँ समझ लो ।
"जी । "
फ़ोन डिस्कनेक्ट हो जाता है ।
अब हम कुछ बातें नहीं कर सकेंगे । इस विराट के आगमन के बाद कुछ समय तक तो बोलना ही स्तब्ध रहेगा ।
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