March 06, 2009

उन दिनों / 6.

"सबसे पहले तो यह समझना या तय करना ज़रूरी है कि जिसे तुमने "मैं" कहा वह कोई जड़ वस्तु है या चेतन तत्त्व है । अभी तो हम उसके स्वरुप के ही बारे में किसी निश्चित परिणाम पर नहीं पहुँच सके हैं । तुमने जैसा कहा था, यदि "चेतना" शब्द को विचार, भावनाएँ, स्मृति, बुद्धि, संस्कार, आदि के अर्थ में इस्तेमाल करें तो यह प्रश्न उठता है कि उनसे पृथक् कोई "मैं" यदि है, तो उसका स्वरूप क्या होगा ? क्या दो "मैं" होते हैं ? हमारा अपना अनुभव या प्रतीति इस बारे में क्या है ? जिसे भी हम "मैं" कहते हैं वह संख्या की दृष्टि से एक है, या अनेक ? यह तो निर्विवाद है कि विचार, भावनाएँ, स्मृति, बुद्धि, संस्कार इत्यादि अनेक होते हैं, क्या इन्हें हम मन की "वृत्ति" अर्थात् विभिन्न वृत्तियाँ कह सकते हैं ? हमारी समस्या शायद यह है कि जिस चीज़ से हमारा पाला पड़ा है, अर्थात् "मन" नामक वस्तु, उसमें ढेरों अलग अलग चीज़ें मिली होती हैं, और उनमें से हरेक को हम कोई नाम दे सकते हैं । उन नामों का बातचीत में इस्तेमाल कर हमें तसल्ली हो जाती है कि हम उन सबको भली भाँति जानते हैं । तो मुझे लग रहा है कि पहले हम यह तय कर लें कि "मैं" उन ढ़ेर सारी चीज़ों में से ही कोई एक चीज़ है, या वह सम्मिलित रूप से वे सभी चीज़ें है, या फ़िर, एक वक्त में वह उनमें से कोई एक चीज़ होता है, या वह उनमें से कोई भी चीज़ नहीं होता है । अभी हम यह मानकर चल रहे हैं कि चेतना उनमें से कोई नहीं है, क्योंकि चेतना हमेशा 'observer' या 'दृष्टा' होती है, -क्या 'observer' या 'दृष्टा' की अनुपस्थिति में किसी अन्य वस्तु का प्रमाण सम्भव है ? मैं इस वक्तव्य के दूसरे पक्ष पर भी बाद में कहूंगा ही, कि क्या दृष्टा जिन चीज़ों को प्रमाणित करता है, - अर्थात् - दृश्य वस्तुएँ,- क्या उनसे पृथक् भी किसी दृष्टा का स्वतंत्र अस्तित्त्व सम्भव है ? तो तुम्हारे प्रश्न के प्रत्युत्तर में मैं पूछना चाहूंगा कि "मैं", 'दृष्टा' होता है, या दृश्य होता है ? या वह विभिन्न विचारों से पैदा हुआ एक अन्य विचार-मात्र होता है , जो "स्वतंत्र विचारक" की हैसियत पा लेता है, - और 'वैसा' प्रतीत भर होता है ? "
-मैंने गेंद वापस उसके पाले में कर दी थी । "
"मुझे तो लगता है कि ऐसा ही है, और यदि यह 'लगना' एक 'बौद्धिक' निर्णय न होकर सत्य के 'दर्शन' (revealation) के रूप में हो, तो "मैं" नामक कोई स्वतंत्र सत्ता कहीं होती ही नहीं ! लेकिन बोलने में तो यह वक्तव्य बड़ा विचित्र सा लगता है न ? विचारों से फलित एक तथाकथित स्वतंत्र 'विचारक' , एक स्वतंत्र 'दृष्टा' इतना शक्तिशाली हो जाता है कि उसके परिप्रेक्ष्य में बाकी चीज़ें 'दृश्य' हो जाती हैं, और वह 'स्वयं' 'चेतन' हो जाता है । शायद इसे उस उदाहरण से कह सकते हैं, कि जैसे किसी यंत्र में हर हिस्से का अपना एक अलग नाम, और रंग-रूप होता है , लेकिन उसे इंगित कर हम कहते हैं कि यह फलाँ यंत्र है, -जैसे सायकिल ।

इसमें हैंडिल, घंटी, पैडल, पहिए, ट्यूब-टायर, सीट, इत्यादि होते हैं । सभी को मिलाकर सायकिल कह सकते हैं । कैसे ? मान लीजिये आपने उसका एक पहिया निकाल दिया, तो हम कहेंगे कि 'वह' पहिया 'इस' सायकिल का है । फ़िर, हमने दूसरा पहिया भी अलग कर दिया, क्रमशः हैंडिल, पैडल, सीट, घंटी, आदि अलग-अलग कर दिए तो वह सायकिल कई हिस्सों में बँट कर भी हमारे मन में एक ही रहती है । लेकिन हमारे 'मन' के रूप में जो यंत्र हमारे भीतर होता है, उसमें इस से कुछ अलग होता है , वहाँ 'जाननेवाला' और 'जिसे जाना जा रहा होता है', वे दोनों ही 'मन' नामक वस्तु में इस तरह एकाकार , घुले-मिले होते हैं कि 'जाननेवाले' तत्त्व का स्वरूप 'जानना' एक पेंचीदा सवाल है । जब हम सायकिल को जानते हैं तो हमें पक्का पता होता है कि 'हम' सायकिल नहीं हैं, लेकिन 'मन' को या ख़ुद को 'जानने' की कोशिश में ऐसा नहीं होता । 'मैं' -विचारों, भावनाओं, स्मृतियों, बुद्धि, संस्कारों आदि सब चीज़ों से बनी एक स्मृति या संवेदन होता है । "

"अच्छा, यह संवेदन या observation , अनुभूति है, या नहीं ?"

"इसे इतनी आसानी से नहीं समझा जा सकता । यदि हम बुद्धि, भावना, स्मृति, विचार, संस्कार आदि को अनुभूति कहें तो यह 'observation' , -वैसी कोई चीज़ हरगिज़ नहीं है । हम यह कह सकते हैं कि बुद्धि, विचार, भावना, स्मृति, संस्कार, आदि संवेदन / अनुभूति से पैदा होनेवाली प्रतिक्रियाएँ भर हैं ।

एक छोटे शिशु का उदाहरण लें - अभी उसमें इन्द्रियों (senses) का कार्य शुरू ही हुआ होता है, उसकी आँखें अभी विभिन्न वस्तुओं का चित्र भर बनाती हैं, उसके कान अभी विभिन्न ध्वनियाँ सुन भर रहे होते हैं, उसकी जीभ अभी विभिन्न स्वादों को चख भर रही होती है, उसकी त्वचा अभी विभिन्न स्पर्शों को 'ग्रहण' भर कर रही होती है, उसकी नाक अभी भिन्न-भिन्न गंधों को 'ग्रहण' भर कर रही होती है, लेकिन अभी उसके भीतर ऐसा कोई 'केन्द्र' नहीं होता जो उन विभिन्न शुद्ध इन्द्रिय-अनुभवों को सुखद या दुःखद कह सके । या होता है ?"

"ठीक है, आगे कहो । "

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