March 23, 2009

उन दिनों / 13.

'सर' के आते ही हमारे 'बेचेलर्स' हॉस्टल का कोरम पूरा हो चुका था । हाँ, कुछ लोग और भी आनेवाले थे, कुछ मित्र मेरे, कुछ रवि के, कुछ 'सर' के परिचित आदि । 'बाई' को बोल दिया गया था , वह हर महीने की पहली तारीख को पैसे ले जाती थी, सारा सामान, सब्जी, आटा, दाल, चांवल, तेल, नमक, शक्कर, चाय, बिस्कुट, और दूसरी ज़रूरी चीज़ें ले आती थी । हाँ, हफ़्ते में एकाध बार 'छुट्टी' देना तो उसका अलिखित नियम ही था, और उस बारे में भी पहले से व्यवस्था रहती थी ।
'सर' को लौटने की कोई जल्दी नहीं थी । रवि और अविज्नान यदि यहाँ न होते तो 'सर' शायद दो तीन दिनों में लौट सकते थे , लेकिन उनके होने से 'सर' का लौटने का अनिश्चित ही था ।
पहले मैं थोड़ा-सा आशंकित और आतंकित भी था, लेकिन फ़िर भी एक गहरी खुशी भी मुझे थी की उनके साथ कुछ दिनों तक रहकर अपने-आप को धो-माँज सकूँगा । फ़िर ख्याल आने लगे :
'विचार' कहाँ से आते हैं ,
वे कहाँ चले जाते हैं ,
- इस पर कोई कहाँ कभी ध्यान देता है ?
- वे तो बस बगूलों की तरह न जाने कहाँ से आया करते हैं,
- वे चारों ओर के वातावरण में उथल-पुथल मचाकर किसी अनिश्चित दिशा में पलायन कर जाते हैं,
- आपके 'स्पेस' की चीज़ों को बेतरतीब कर खो जाते हैं,
- और अपनी जगह किसी नए बगूले को 'गिफ़्ट' कर जाते हैं ।
फ़िर आप व्यवस्थित करते रहिये अपने 'स्पेस' को ,
-अपने 'स्पेस' में पहचान की हद से परे जा चुकी चीज़ों को !
आप व्याकुल हो जाते हैं,
-व्यग्र,
आप थककर पस्त हो जाते हैं,
कभी-कभी आप सो भी जाते हैं,
और फ़िर उठते ही महसूस करते हैं,
-अपने 'स्पेस' को,
-नहीं, वहाँ चीज़ें नहीं होतीं,
-और न उन्हें तरतीब देने की ज़रूरत,
-और फ़िक्र तो हरगिज़ नहीं होती ।
-कतई नहीं होती !
लेकिन तब तक आप भूल चुके होते हैं ।
जागने पर कुछ पलों के उस अपने 'स्पेस' को 'कौन' याद रख सकता है ?
हाँ फ़िर वे बगूले लौट आते हैं एक-एक कर,
- फ़िर 'चीज़ें' इकट्ठा हो जाती हैं ,
-'बेतरतीब' सी, -'स्पेस' में
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तो 'मैं' सोचने लगा । हाँ, रवि और अविज्नान हैं ,तो बातें तो ज़रूर होंगीं । कोई न कोई रास्ता भी ज़रूर निकल आयेगा ।
"क्या हमारे बीच संप्रेषण नहीं था ?"
-मैंने ख़ुद से सवाल किया । मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था । इसीलिए तो मैंने पहले ही कहा था की इस 'विराट' के आगमन के बाद कुछ समय तक तो 'बोलना' ही 'स्तब्ध' हो रहेगा ।
'स्तब्ध',
-'स्थगित' नहीं !
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