"क्या आपको लगता है की विज्ञान किसी दिन परम सत्य का आविष्कार या उद्घाटन कर सकेगा ? " -उसने प्रश्न किया ।
"तुम्हें क्या लगता है ?"
"विज्ञान बुद्धि के दायरे में कार्य करता है । वह अस्तित्त्व-मात्र को तीन में बाँटता है, : दृष्टा, दृश्य, और दर्शन । अंग्रेजी में कहें, तो, : the observer, the observed, और the observation. वह observation व 'प्रयोग' याने कि 'experiment' पर यकीन करता है । यह भी 'श्रद्धा' का ही एक प्रकार हुआ न ?"
श्रद्धा के इस रूप से मेरा परिचय अभी-अभी हुआ था । मुझे गीता याद हो आई - "यो यच्छ्रद्धः स एव सः ।"
"हाँ", मैंने प्रकटतः इतना ही कहा ।
"लेकिन इसमें ग़लत क्या हुआ ?" -मैंने पूछा ।
"मैं नहीं कहता कि ग़लत है, या नहीं, पहले हम इस तथ्य पर तो सहमत हो जाएँ कि विज्ञान की अपनी एक 'approach' है ।
"सो ?"
"सो यही कि मनुष्य-मात्र किसी न किसी प्रकार की श्रद्धा से स्वाभाविक रूप से बँधा हुआ होता है । "
"भई, शुरूआत करने के लिए कुछ न कुछ तो स्वीकार करना ही होता है न !"
"और फ़िर प्रयोग और अवलोकन से उसे सत्य या असत्य के रूप में ग्रहण किया जाना होता है । "
"हाँ । "
"लेकिन जो प्रारंभ में स्वीकार किया था, उसकी प्रामाणिकता की परिक्षा किए बिना ही ?" -उसने पूछा ।
"तुम यह कह रहे हो कि जो प्रमाण हम स्वीकार करते हैं, उन प्रमाणों की सत्यता भी प्रमाणित होना चाहिए ?"
"हाँ ।"
"तो यह तो एक अंतहीन दुश्चक्र होगा । "
"क्यों ?"
"नहीं होगा ?"
"हम इसे समझने की कोशिश करें ? "-उसने चुनौती पेश की ।
"ठीक है । " -मेरी उत्सुकता जागृत हो उठी ।
"देखिये पश्चिम का दृष्टिकोण मूलतः विभाजनपरक है, हर चीज़ को तोड़कर देखने का है, और वह बुद्धि का एक ऐसा आयाम है, जिसमें अपने कुछ 'सत्य' निर्धारित किए जाते हैं । वे 'सत्य' इन्द्रिय-ज्ञान, तथा इन्द्रिय-ज्ञान पर आधारित तर्क-निष्पत्तिजन्य 'बुद्धि' से सुसंगति भी ज़रूर रखते हैं, लेकिन मनुष्य की यह बुद्धि केवल शब्द-आश्रित बुद्धि होती है, इसलिए वह सत्य के एक ही पक्ष को, खासकर 'सापेक्ष' पक्ष को ही ग्रहण कर पाती है । अब ज़रा हम मनुष्य की इस 'बुद्धि' की तुलना अन्य प्राणियों की 'बुद्धि' से करें ।
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