March 11, 2009

उन दिनों / 11.

उसके कुर्त्ते में कोई कीड़ा चला गया था, उसने कुर्त्ता उतारा । मैं चकित हुआ, "कुर्त्ता उतारने की क्या ज़रूरत पड़ गयी !" -मैंने मन ही मन सोचा, पर कहा कुछ नहीं । जब उसने पीठ पर हाथ ले जाकर एक छोटा सा रेंगने-उड़नेवाला कीड़ा पकड़ा, तो मैंने देखा । वह चींटी के आकार का एक कीड़ा वहाँ था जिसे उसने सावधानी से फूँक मारकर उड़ा दिया था ।
यह प्रसंग जैसे उसकी बात को बल प्रदान करने के लिए ही अवतरित हुआ था ।
"देखिए," -उसने कहा, : "हम मनुष्य 'सोचते' हैं । सोचने से पहले हमारे पास 'भाषा' होती है । इस कीड़े के पास कोई भाषा होती होगी ?" -उसने पूछा ।
"क्या कह सकते हैं ? शायद उसकी भी अपनी भाषा होती हो !"
"हम अपनी बात करें । हमारे पास किसी वस्तु, स्थान, घटना या भावना के लिए कोई शब्द होता है । वह शब्द उस वस्तु, स्थान, घटना या भावना के विकल्प के रूप में हमारे मस्तिष्क में अंकित हो जाता है । वह बस वस्तु का विकल्प-मात्र होता है, वस्तु की एक 'प्रतिमा' भर होता है, वह सचमुच किसी वस्तु, स्थान, घटना या भावना का कार्य नहीं कर सकता । ऐसे सारे शब्दों को किसी क्रम में सँजोकर हम उसमें कोई 'अर्थ' आरोपित करते हैं । वह 'अर्थ' किसी वस्तु, स्थान, घटना या भावना का संकेत तो देता है, लेकिन उनका 'विकल्प' नहीं हो सकता । इस तरह हमारी एक 'भाषा' जन्म लेती है । हम एक दूसरे से सीखकर इसे लगातार संशोधित और परिवर्त्तित करते रहते हैं । क्या कीड़ों, या पशुओं में यह प्रक्रिया हो सकती होगी ?" -उसने पूछा ।
"हाँ, हो सकती है, पर तब वे किसी वस्तु, स्थान, घटना या भावना के विकल्प के रूप में शब्द के बजाय किसी दूसरी अभिव्यक्ति या इंगित का इस्तेमाल कर सकते हैं । जैसे इस कीड़े का उदाहरण लें । बाहर के समस्त प्रभावों को यह जानता है । जानता है अर्थात् इस रूप में, कि यह उन्हें किन्हीं अंशों में महसूस कर सकता है । हालाँकि यह उनका 'नामकरण' नहीं करता कि यह 'गंध' है, यह 'स्पर्श' है, यह ऊष्णता या शीतलता की अनुभूति है, यह कठोर या कोमल है, यह मधुर या कटु आदि है, लेकिन उसे भी चीज़ें दिखलाई देती हैं, सुनाई देती हैं, गंध, सुगंध, या दुर्गन्ध का भान होता है । फ़िर अपनी सहज-प्रवृत्ति के अनुसार वह इन सबका 'अनुकूल' और 'प्रतिकूल', 'आकर्षक' और 'विकर्षक' में वर्गीकरण कर लेता है । और यह जानना भी दिलचस्प होगा की एक बड़ा हिस्सा फ़िर भी उसके लिए 'अज्ञात' या 'रहस्यमय', नया, या 'अबूझ' रह जाता होगा । इस प्रकार के 'वर्गीकरण' से मस्तिष्क चित्रों, ध्वनियों, स्पर्शों, गंधों, और ऐसी ही तमाम अन्य अनुभूतियों का एक नक्शा बना लेता है । और ज़ाहिर है कि यह अनुमान भर नहीं है, इसका प्रमाण विज्ञान भी बारम्बार देता रहता है । इसका ख़ास सबूत तो यही है कि जीव निरंतर 'सीखते' हैं । चाहे छिपकिली, मेंढक, खरगोश, काक्रोच हो, या मनुष्य । अपने 'अनुभवों' का नामकरण किए बिना ही वे सीखते हैं । 'जीवन' की सुरक्षा के लिए वे सीखते हैं । अधिक 'अनुकूल' की प्राप्ति हो, और प्रतिकूल का सामना कर सकें, इसके लिए प्राणिमात्र 'सीखता' है । यह 'सीखना', 'सोचना' तो नहीं' होता ? -या होता है ?
"नहीं होता । "
"अर्थात् इस सीखने के लिए जीव, 'स्मृति' का इस्तेमाल करते हैं , -उससे 'अतीत' और 'भविष्य' की 'कल्पना' करते हैं । यह 'कल्पना' शायद चित्रों के रूप में, उस भाषा में होती होगी " -मैंने पूछा ।
"हाँ । घटनाओं का प्रभाव चित्रों और स्मृतियों के रूप में सुरक्षित रहता है । इन सारे प्रभावों की एक प्रणाली (network) मस्तिष्क में बन जाती है, और उन्हीं प्रभावों से फलित एक मानक तर्क सरणि (standard of reasoning) भी विकसित हो जाती है । क्या इस तर्क सरणि का अपना कोई 'नियामक' होता है ? इसी तर्क सारिणी में से दो अनुमान पैदा होते हैं - एक 'मैं', तथा दूसरा 'यह', जिसे शास्त्रीय भाषा में कहें, तो क्रमशः 'अहं', और 'इदं' कहा जा सकता है । ये दोनों प्रत्यय इस तर्क सारिणी (network) से उत्पन्न दो अनुमान (assumptions) भर होते हैं । प्रश्न यह है कि क्या जीव में कोई ऐसा स्वतंत्र नियामक या नियामक-तत्त्व, सेंसर या कंट्रोलर होता है, जो इन दो अनुमानों से पूर्व स्वतंत्र रूप से विद्यमान रहता हो ?"
"हम इस पर और गौर करें ऐसा मुझे लगता है । " -मैंने कहा ।
"चलिए ठीक है । "
मस्तिष्क अनुभूतियों का वर्गीकरण कर एक प्रणाली विकसित कर लेता है, इसे हम 'विचार' या 'बुद्धि' कह सकते हैं । पशु-पक्षी शायद किसी दूसरे तरह की ऐसी ही प्रणाली विकसित कर लेते हैं, जिससे उन्हें जीवन की अनुकूलता चुनने और प्रतिकूलता से बचाव करने, या उसका सामना करने में मदद मिलती हो । लेकिन यह तो वैज्ञानिक सत्य है कि उनके पास शब्द-आश्रित वैसी कोई 'भाषा' नहीं होती, जैसी कि हम 'मनुष्यों' के पास हुआ करती है । उनके शब्दों के अभिप्राय प्रायः उनकी भावनाओं को ही अधिक अभिव्यक्त करते हैं, -जैसे कि भय, निमंत्रण, आदि । उदाहरण के लिए, पशु-पक्षी, कीड़े, विभिन्न तरीकों से प्रजनन के लिए अपने साथी को आवाज़ के विशेष आरोह-अवरोह और स्वरों आदि के द्वारा निमंत्रित करते हैं । भय की परिस्थिति में एक-दूसरे को विशेष प्रकार से चिल्लाकर संकेत देते हैं, जैसे बिल्ली या बाघ या सर्प को देखकर गिलहरियाँ, चिडियाँ आदि । शायद गंध के माध्यम से भी बहुत से जीव एक-दूसरे को इशारे करते हैं । लेकिन उनकी भाषा उतनी सुगठित, विकसित और अमूर्त नहीं होती, जितनी की मनुष्य की भाषा हुआ करती है । अमूर्त्त से मेरा मतलब यह है, कि हम विभिन्न वस्तुओं, स्थानों, घटनाओं, और भावनाओं को शब्दों से चिन्हित (चित्रित) कर देते हैं, उनके लिए हमने शाब्दिक विकल्प चुन रखे होते हैं । पशु-पक्षी इस प्रकार से विकल्प नहीं चुनते । उनका 'शब्द-कोष' अत्यन्त सीमित होता है , और उसे 'मूर्त्त' या 'finite' कहा जा सकता है । फ़िर हम 'सोचना' विकसित कर लेते हैं, - हम कविता, कहानी, लेख, नाटक, आदि 'रच' सकते हैं । कुछ पशु-पक्षी या कीड़े एक निश्चित उतार-चढ़ाव के कम्पन भी पैदा कर लेते हैं, जिन्हें 'सरगम' (स्वर-सप्तक) के स्वरों से व्यक्त भी किया जा सकता है । लेकिन बस, इतना ही । "

"इसमें 'अहं' और 'इदं' की क्या भूमिका है ?"

"मैं उसी बिन्दु पर आ रहा हूँ । मेरा प्रश्न यह है कि अनुभव करने की मूल-शक्ति, जो किसी जीवित पिंड में व्यक्त हो उठती है और जिससे हम कुछ पिंडों (bodies) को 'जड़', (inert /insentient) तथा अन्यों को 'चेतन' कहते हैं, वह शक्ति रसायनों (या पंचतत्त्वों) के मेल (संयोग) का परिणाम होती है, या उनके विशिष्ट 'संयोजन' में वह शक्ति 'जागृत' (manifest) भर हो उठती है ? क्योंकि मुझे लगता है कि विज्ञान और अध्यात्म का टकराव इसी बिन्दु पर होता है । यदि वह शक्ति पहले से विद्यमान लेकिन अप्रकट है, और किसी जैव-प्रणाली के सक्रीय होने पर प्रकट / जागृत / व्यक्त हो उठती है, तो उस शक्ति के स्वरुप पर विचार करना आवश्यक है । दूसरी ओर, यदि वह शक्ति जैविक रसायनों से ही उत्पन्न एक शक्ति है, तो हमें अपने 'श्रेष्ठ' या 'चेतन' होने का दंभ छोड़ना होगा । तब जीवन में किसी चीज़ का कोई मूल्य नहीं रह जाता है, और आशा-निराशा, सुख-दु:ख आदि तथा अन्य संवेदन कोई मायने नहीं रखते । तब कुछ भी ठीक या गलत नही है, क्योंकि कोई पैमाना ही नहीं रहता । पाप-पुण्य, नैतिकता आदि के प्रश्न अप्रासंगिक हो जाते हैं ।"

" मैं सोचता हूँ कि जैसे एक प्राथमिक (primary) सेल (cell) होता है, जिसमें सल्फ्यूरिक अम्ल से भरे जार में हम एक ताम्बे की, तथा दूसरी ज़स्ते की छड़ रखकर उन छड़ों से जैसे बिजली बना सकते हैं, उस ढंग से इस बारे में सोचें । विद्युत् या विद्युत्-धारा तो पहले ही से उन रसायनों (ताँबा, ज़स्ता, और सल्फ्यूरिक अम्ल ) में विद्यमान है । उनकी आपसी प्रतिक्रया में तो वह सिर्फ़ व्यक्त (manifest) भर होती है । क्या यह अनुभूति की शक्ति भी वैसी ही चीज़ नहीं हो सकती ? "

"हमारी समस्या यह है : हम यह नही देख पाते हैं कि वह शक्ति हमसे पूर्व ही विद्यमान हो सकती है , और गणितीय उपपादन (mathematical induction) के माध्यम से हम यह अनुमान लगा सकते हैं , कि वह सदैव से है, -क्योंकि, 'सदैव' की 'अनुभूति' के पूर्व भी उसका होना आवश्यक है। दूसरी ओर, 'सदैव' उस अनुभूति के अभाव में होता होगा इसका प्रमाण हमारे पास हो ही नहीं सकता । अतः वह अनुभूति-शक्ति, बीज-रूप में अव्यक्त के रूप में, पहले ही से है, और उसके अभाव में अन्य कुछ हो ही नहीं सकता । उसी शक्ति में और उसी शक्ति से सब कुछ घटित होता है । अब पुनः 'अहं तथा 'इदं' पर लौटें ।

अनुभूति की यही शक्ति वृहत्तर-अर्थ में 'चेतना' या 'Consciousness' है । यह अव्यक्त तथा व्यक्त इन दोनों ही रूपों में हो सकती है । प्रसुप्त एवं जागृत दोनों ही रूपों में हो सकती है । किसी insentient (जड) पिंड में यह प्रसुप्त भर होती है, किंतु sentient (चेतन) में 'व्यक्त' या प्रकट रूप ले लेती है । 'मृत' हम उसे कह सकते हैं, जहाँ यह इस प्रकार से विलुप्त हो गयी हो कि उस जैव-प्रणाली में पुनः प्रकट न हो सकती हो । क्या इस शक्ति को साकार या निराकार में बाँटाजा सकता है ? शायद वैसा करना हमारे लिए सम्भव नहीं होगा । यह शक्ति जहाँ प्रकट होती है, वह प्रारंभ में अवश्य ही एक छोटा सा जैव-कोष (life-cell / living-cell) भर होता है । किंतु उसमें उस कोष (cell) के विकसित होने का पूरा नक्शा , खाका (map) होता है। और वह इतना सटीक होता है कि उसे वैज्ञानिक यंत्रों के द्वारा सुनिश्चित रूप से जाना भी जाता है । तो प्रश्न यही है कि क्या उस शक्ति में वह विशिष्ट जानकारी भी नहीं छिपी हुई होती है, जो उस कोष को विशेष रूप, आकार आदि प्रदान करती है ? क्या यह जानकारी वैज्ञानिक भाषा या किसी मानवीय भाषा जैसी किसी भाषा में होती है ? यह तो तय है कि सिद्धांततः, एक पत्ते के छोटे-से-छोटे सेल से संपूर्ण वृक्ष की रचना की जा सकती है । क्या इसे वैज्ञानिक तय करते हैं कि वह वृक्ष कैसा होगा ? वे तो सिर्फ़ उस सेल में मौजूद उस अदृश्य या अबूझ भाषा में लिखी गयी जानकारी को बाहर आने का रास्ता भर देते हैं ! क्या उस सेल में 'अहं' और 'इदं' का विचार, कल्पना, या जानकारी पहले से विद्यमान होती है ? या यह उस चेतन-शक्ति के 'व्यक्त' होने के बाद (afterwards) होता है ?"

"हाँ," -मैं मंत्रमुग्ध सा उसकी दलील सुन भर रहा था ।

"तो यह 'मैं', एक 'विचार' भर होता हो, कहीं ऐसा तो नहीं ? वह जीवनी-शक्ति (Life-Force) जिससे जीवन में सब कुछ होता है, क्या अचेतन (insentient) है ? "

"वह अचेतन कैसे हो सकती है ? "

"फ़िर अगर वह 'चेतन' है, तो क्या उसमें 'अहं' या मैं की भावना हो सकती है ? 'मैं' की भावना तो मस्तिष्क के विकास के दौरान अस्तित्त्व में आनेवाली उस बुद्धि से ही उत्पन्न होती है । "

"हाँ",-लेकिन अन्य भावनाओं से इस भावना का क्या सम्बन्ध हो सकता है ? या कोई संबंध ही नहीं होता ?"

"देखिए, जब मस्तिष्क की बुद्धि विकसित हो जाती है, तो वह संपूर्ण अस्तित्त्व का 'मैं' और 'मैं नहीं' ('me' and 'not-me') में वर्गीकरण कर देती है । यह उस जीव के शरीर में स्थित और व्यक्त जीवनी-शक्ति पर बुद्धि का प्रथम प्रभाव हुआ । जीव के आनेवाले जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल के लक्ष्य को चुनने के बाद अन्य प्रभाव भी एकत्रित होते हैं, जैसे लोभ, भय, सुख-दू:ख की प्रतीति या अनुभूति आदि । फ़िर ये प्रभाव और भी जटिल या क्लिष्ट या मिश्रित हो जाते हैं, जिन्हें हम 'complex' कहें । ये ग्रंथियाँ या मनोग्रंथियाँ हुईं । अतः चेतना अर्थात् जीव में प्रकट और स्थित जीवनी-शक्ति पर 'अहं'-'इदं' की 'प्रतीति' के पश्चात् ये सारे विभिन्न प्रभाव (conditionings) होते हैं । 'अहं'-'इदं' सबसे पहला प्रभाव या (conditioning) है । फ़िर हमारे पर्यावरणीय और सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक, प्रभाव भी होते हैं, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक प्रभाव भी होते हैं , जो अपने-आप में अत्यन्त विस्तृत विषय है । लेकिन चेतना (consciousness) मूलतः एक स्वतंत्र तत्त्व है । "

"क्या इसे ईश्वर कह सकते हैं ?"

"क्या इसके अतिरिक्त ईश्वर किसी अन्य रूप में कहीं हो सकता है ? -उसने प्रतिप्रश्न किया ।

"और फ़िर यदि हम उसे ईश्वर कहें भी तो क्या उसकी पूजा-आराधना करने से हम उससे 'संपर्क' कर सकेंगे ?" -उसने एक और सवाल दाग़ दिया ।

"तो क्या हम यह समझें की ईश्वर नामक कोई सत्ता नहीं है ? "

"मुझे लगता है की इस प्रश्न का उत्तर मनुष्य की बुद्धि से परे है । या यूँ कहें की पहले यह तय कर लिया जाए की 'ईश्वर' से हमारा क्या तात्पर्य है !"

"अच्छा, यदि हम यह कहें की इस सृष्टि का स्वामी ही ईश्वर है तब ? "

"तब यह 'चेतन-शक्ति', Life-Force, या (consciousness) ही इस सृष्टि की स्वामिनी या स्वामी है । लेकिन वह इस सृष्टि से अभिन्न भी है । नहीं, हम यह नहीं कह सकते की 'वह' सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त है, बल्कि -'यह सृष्टि 'उसमें' फ़ैली हुई है, ऐसा कहना ही अधिक उपयुक्त होगा । और यही सत्य भी है । "

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