March 09, 2009

उन दिनों / 9.

मैं नियति के इस संयोग पर चकित था । कल्पना भी नहीं थी कि "एक बार मिल तो लें !" -'राजेश' की उस एक पंक्तिवाला विज्ञापन इतना भविष्य-दर्शी होगा ! अविज्नान से कल की मेरी लम्बी बातचीत जिस तरह एकाएक समाप्त या खंडित होकर रह गयी थी, वह भी एक अजीब बात थी । मैं नहीं जानता कि अब आगे क्या होगा । क्या इस चौकड़ी के लिए मुझे 'इवेंट -मैनेजमेंट' का कोई अध्याय पढ़ना होगा ?
गर्गजी अर्थात् श्री रेवाशंकर गर्ग मेरी तरह ही एक रिटायर्ड व्यक्ति थे । उम्र में मुझसे बड़े, लेकिन रिटायर हुए मुझसे अनेक वर्षों बाद । मैंने कहीं जमकर नौकरी नहीं की, इसलिए अक्सर 'रिटायर्ड' जैसा जीवन जीता रहा । नौकरी करते हुए भी साहित्य में टांग अदाता रहा । उससे मुझे जेबखर्च ज़रूर मिल जाता था वरना सरकारी नौकरी में तो घर -गृहस्थी चलाना ही बहुत कठिन था । तात्पर्य यह , कि 'सर' भले ही बिना कोई प्रोग्राम तय किए यहाँ आए हों, उनके जाने की तारीख तो हमें ही तय करना थी । वे मेहमान ही नहीं, बहुत ख़ास मेहमान थे ,और ज़ाहिर है, मेहमान आते अपनी मर्जी से हैं, लेकिन विदा मेजबान की मर्जी से होते हैं , उससे पहले नहीं ।
यूँ तो रवि और अविज्नान दोनों अनिकेत थे, उनका कहीं न तो तय मुकाम या ठिकाना था और न आमदनी का ऐसा कोई ज़रिया, कि एक सुनिश्चित ढंग की जिंदगी जी सकें । दोनों अभी ३५-४० के बीच की उम्र के रहे होंगे ।
अविज्नान से मेरी मुलाक़ात पुरी के समुद्र-तट पर हुई थी, जहाँ मैंने दो दिन नंदी -lodge में गुजारे थे । उसके संस्कृत-ज्ञान से मैं चकित था, उसके 'पश्चिमी' होने के कारण मेरा यह आश्चर्य और भी गहरा था, लेकिन इस बारे में उसका बस यही कहना था कि उसने 'जाति-स्मरण' के प्रयोगों से अपने पिछले जन्मों के बारे में जाना, और उसके पिछले जन्मों में सीखा ज्ञान, जो उसे विस्मृत हो चुका था, इन प्रयोगों से पुनः लौट आया । मुझे तो उसके इस सारे वार्तालाप पर कतई भरोसा नहीं हो रहा था । उसने अपना नाम अविज्नान रखा, या उसके माता-पिता द्वारा यह नाम उसे दिया गया था, यह पूछने पर वह कहता, -"संस्कृत में मेरा नाम 'अविज्नान' लिखा जा सकता है, लेकिन "ज्ञा > जानाति" अर्थात् 'जानता है', इस दृष्टि से 'ज्ञ' का वास्तविक रूप 'ज्न' है, और इसलिए मेरा नाम अविज्ञान अर्थात् 'अविज्नान' हुआ । इसलिए शुद्धता के लिए मैं अपना नाम 'अविज्नान' लिखता हूँ । "
"लेकिन तुम्हें पता है क्या कि 'अविज्ञान' का क्या अर्थ होता होगा ?"
"हाँ, और उस दृष्टि से भी मैं तथाकथित 'विज्ञान' से अपनी अलग पहचान बनाना चाहता हूँ । "
"क्यों ?"
"देखिये आज का विज्ञान या साइन्स विश्लेषणात्मक है, विश्लेषण बुद्धि का रास्ता है, उसके अपने प्रयोग और उपयोग हैं, लेकिन जब निरपेक्ष सत्य के संबंध में उसे इस्तेमाल किया जाता है, तो किसी परिणाम पर नहीं पहुंचा जा सकता । "

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