September 27, 2025

NON-DUALITY.

द्वैत अद्वैत

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संवाद, स्मृति, पहचान, संबंध, द्वैत में ही संभव होते हैं। भय, लोभ, आशा, आशंका, अपेक्षा, उपेक्षा, अतीत और भविष्य, यहाँ और वहाँ आदि सभी का अस्तित्व भी इसी प्रकार से द्वैत की पृष्ठभूमि में, और द्वैत के संदर्भ से ही सिद्ध होता है। और द्वैत भावना के अस्तित्व में आने के बाद ही द्वैत सत्य प्रतीत होता है। द्वैत-भावना के अभाव में न तो किसी संबंध और न ही किसी प्रकार का संवाद का ही संभव है। द्वैत के ही अन्तर्गत दृष्टा और दृश्य का उद्भव, स्थिति और लय होता है।

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September 21, 2025

A Sea-change.

सर्वपितृ अमावस्या

पितृपक्ष की अंतिम तिथि को महालया भी कहा जाता है। महालया नामक इस तिथि पर पितर जब मृत्यलोक से अपने पितृलोक में लौट जाते हैं। पितृलोक में वे उस समय तक वास करते हैं जब तक उन्हें कोई नया शरीर,  और उस नये शरीर में नया जीवन नहीं प्राप्त हो जाता है। जैसे ही उन्हें एक नये शरीर में नया जीवन प्राप्त हो जाता है, उस जीवन में उनकी नयी जीवन-यात्रा शुरू हो जाती है। और प्रायः हर कोई अपने इसी जीवन को अपने जन्म के रूप में मान लिया करता है। बिरले ही कभी किसी को ऐसा लगता है कि वह इस शरीर में कहीं दूसरे स्थान और उस ऐसे दूसरे शरीर से आया है जहाँ पहले कभी वह था, किन्तु यह उसे स्मृति और स्वप्न जैसा लगता है। जीवन अर्थात् चेतनता / चेतना (Sense, Sensitivity and Sensibility), जिसे एक शब्द में consciousness कह सकते हैं। बहुत बिरले ही कोई ठीक ठीक यह समझ पाता है कि जिसे जीवन, मन और चेतना कहा जाता है, उनमें परस्पर क्या समानताएँ और क्या भिन्नताएँ हैं। एक शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग करने से यह नहीं स्पष्ट होता है कि उससे जिस वस्तु का उल्लेख किया जा रहा है वह क्या है। चेतना का अर्थ है वह क्षमता जिससे कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु को जान और अनुभव कर सकती है। इनमें से दोनों ही वस्तुओं में यह क्षमता हो तो उन दोनों को ही चेतन अर्थात् इस क्षमता से युक्त कहते हैं, जबकि उनमें से जब केवल एक में ही यह क्षमता हो और दूसरी वस्तु में यह क्षमता न हो तो उस दूसरी वस्तु को जड कहते हैं। एक और रोचक तथ्य यह भी है कि किसी के पास इसका भी कोई प्रमाण नहीं हो सकता कि अपनी तुलना में जिस वस्तु को जड कहा जा रहा है वह  ऐसी जानने या अनुभव करने की क्षमता से रहित है ही! किन्तु फिर भी जीवन से युक्त और जीवन से रहित किसी वस्तु की पहचान तो की ही जा सकती है। तात्पर्य यह है  कि किसी वस्तु में उसके अपने आपके अस्तित्व में होने का भान है या शायद न भी हो, किसी और को यह भान अवश्य है। और जिसे अपने आपके अस्तित्व का भान है वह स्वयं को इस वर्तमान में प्राप्त शरीर तक सीमित एक व्यक्ति-विशेष मानता है या उसे लगता है कि इस वर्तमान शरीर में वह कहीं अन्य स्थान से आया है, जहाँ पर वह एक अन्य शरीर के रूप में जी रहा था। और पिछले सौ - पचास या अधिक वर्षों तक से इसका वैज्ञानिक अध्ययन कर इसके अकाट्य प्रमाण भी मिल चुके हैं, इसलिए यह कहा जा सकता है कि ऐसा कोई व्यक्ति अब पितृलोक से निकलकर पुनः जन्म ले चुका है। और यह अनुमान भी किया जा सकता है कि संभवतः बिरले ही कभी कोई मृत्यु के बाद बहुत दीर्घ काल तक पितृलोक में रहता हो, इसलिए भी पितरों के श्राद्ध का महत्व बहुत थोड़े समय तक के लिए हो सकता है।

सर्वपितृ अमावस्या का महत्व क्या है, इसे इस दृष्टि से भी समझा जा सकता है। 

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September 18, 2025

34 Years Ago

कितने जंगल हाउस!?

THE FIRST JUNGLE HOUSE.

12 फरवरी 1991 के दिन या उससे एक दिन पहले, मैं ओंकारेश्वर पहुँचा था। आश्रम की स्थापना और संचालन एक पूज्य स्वामी करते थे। भू-तल पर रहते थे और ऊपर प्रथम तल पर माता आनन्दमयी के मन्दिर का निर्माण हो रहा था। उस मन्दिर तक जाने की सीढ़ियाँ प्रथम तल को दो भागों में विभाजित करती थीं। पहला हिस्सा बाहर की ओर था, बाहर खुली छत और एक कमरा था, जिसमें दो द्वार थे। दोनों से बाहर आया जाया जा सकता था, और बाहर कहीं जाना होता तो यह ध्यान रखना होता था कि दोनों द्वार ठीक से बंद हों। किसी पर भी एक या दोनों द्वारों पर भी एक एक ताला लगाया जा सकता था। दो सीढ़ियाँ भू-तल से आती थीं और कमरे के दोनों तरफ से निकलकर प्रथम तल पर आती थीं। एक सीढ़ी भू-तल पर सामने की दिशा में थी और दूसरी पीछे की दिशा में। सब सीढ़ियाँ, चबूतरा आदि पत्थरों को मिट्टी से जोड़कर और उन पर सीमेंट चढ़ाकर बनाए गए थे। स्वामीजी का कमरा पीछे था और उसके भी दो द्वार थे। एक कमरा स्टोर रूम की तरह था और दूसरा उससे लगा हुआ, जो सामने था। बीच में खुली हुई जगह में मिट्टी का चूल्हा था जहाँ भोजन बनता था। मार्च में स्वामीजी वहाँ से इन्दौर चले गए थे। और मैं अकेला ही वहाँ रहने लगा था। सामने के कमरे के बाहर एक तखत पड़ा था, जिस पर मैं लगभग पूरे दिन बैठा या सोया रहता था। कुछ दूर पर नर्मदा नदी बहती थी, और वहाँ तक जाने के लिए पत्थरों के बीच से जाना पड़ता था। प्रायः ही दो या अधिक बार नदी तक जाया करता था।

वह स्थान जैसा था, वैसा ही कुछ यह स्थान भी है, और यहाँ भी वैसा ही खुला खुला आश्रम परिसर है। इसलिए अचानक उसका स्मरण हुआ। यह स्थान शायद अधिक सुन्दर और सुखद है। बाहर बहुत निर्माण कार्य चल रहा है। मेरे लिए करने के लिए बहुत सा काम हो सकता है। मेरा विचार है कि मैं इस पूरे परिसर को अपनी कल्पना के अनुसार बना सकूँ। साल भर पहले तक यह तक नहीं पता था कि कहाँ और कैसे रहना है, अब अनपेक्षित रूप से एकाएक बात बहुत बदल गई है। सोचा जाए तो बहुत सा काम करना है। अधोसंरचना तैयार है। संभवतः इस दीपावलि तक सब कुछ सुव्यवस्थित हो जाएगा। अभी तो बस प्रतीक्षा करते हुए समय बीत रहा है।

This Too Is Another Jungle House!

बीच में एक वर्ष 2023-24 में एक और जंगल हाउस में बीता था। वह भी बहुत सुन्दर था किन्तु फरवरी 2024 में उसे, स्कूल के उस निर्माणाधीन भवन को ढहा दिया जाना था, इसलिए वह स्थान छोड़ना पड़ा।

ऐसा ही एक जंगल हाउस राजघाट फोर्ट वाराणसी पर भी था जहाँ कृष्णमूर्ति फॉउन्डेशन के स्टडी-सेन्टर और रिट्रीट पर पहले डेढ़ हफ्ता फरवरी 2000 में और फिर एक हफ्ता नवंबर 2002 में बीता था।

यूँ भी होता है, कभी सोचा न था!

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September 17, 2025

Mythology?

वराह-अवतार

पता नहीं यह प्रतीकात्मक है या सांकेतिक,

किन्तु पौराणिक मान्यता के अनुसार, अलग अलग दृष्टि से, यह कहा जाता है कि भगवान् विष्णु के दशावतार (दस), और चतुर्विंशावतार (चौबीस) होते हैं और उन चौबीस अवतारों में से एक वराह भी है।

यह अनुमान हो सकता है कि अंग्रेजी भाषा का

BOAR, 

शब्द संभवतः संस्कृत भाषा के वराह का अपभ्रंश हो।

और यह भी सत्य है कि आजकल यू के (U. K.) में अवैध आव्रजनों (Illegal Migrants) के डर से लोगों ने अपनी रक्षा के लिए डॉग्स पालना छोड़कर सूअर / शूकर पालना शुरू कर दिया है।

मैं नहीं जानता किन्तु जैसा कि पुराण (वराहपुराण) नाम से लगता है, जीव-विज्ञान की दृष्टि से, वराह और शूकर दोनों ही प्रजातियाँ एक ही प्रकार के जीव हैं।

वराहपुराण के अनुसार पृथ्वी महाजलप्रलय के समय  जब पाताल में डूब रही थी तब भगवान महाविष्णु ने वराह रूप में अवतरित होकर पृथ्वी को अपने शृङ्गदन्तों के द्वारा ऊपर उठा लिया था और उसे महाजलप्रलय  /  महाजलप्लावन से बचा लिया था। 

क्या यह केवल संयोग है कि यह पौराणिक मान्यता / (Mythology) एक व्यावहारिक सत्य की तरह आज प्रयुक्त हो रही है?

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September 16, 2025

11:00 12:00 01:00

मध्य-रात्रि 01:21

बहुत समय से निद्रा का 'समय' अस्तव्यस्त चल रहा है। इसलिए बस येन-केन-प्रकारेण नींद खुलते ही शरीर को उसकी स्थिति पर छोड़ देता हूँ। कभी कमरे में ही चलता फिरता हूँ या कुर्सी पर बैठकर आँखें बंद कर लेता हूँ। यह स्पष्ट रहता है कि सोना नहीं है और सोचना नहीं है। यह जानना भी रोचक है कि निद्रा उसके और शरीर के अपने नियमों के अनुसार आती और जाती है। इस बारे में मन कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। आवश्यक प्रतीत  होने पर किसी स्थिति में एक सीमा तक जागते रहने का प्रयास किया जा सकता है और सीमा का उल्लंघन करने पर उसका मूल्य भी चुकाना पड़ता है।

रात्रि 02:00 तक का समय यूँ ही कटता है। फिर कोई स्मृति सक्रिय हो उठती है तो उसमें लिप्त होने लगता हूँ। या, बस किसी तरह शांत रहने का प्रयास करता हूँ। पर फिर, प्रयास ही शांति में बाधा है, इस पर ध्यान जाता है। तो अशांत मन से संघर्ष नहीं करता। 02:00 से 03:00 तक का समय यूँ बीतता है।

03:00 बजे के बाद मन सुस्थिर होने लगता है।

कोई विषय, कोई विचार, कोई स्फूर्ति मन में उमंग बन जाती है और 

विषयाननुवर्तन्ते विषयी यत्र

तादात्म्यं तत्र प्रवर्तते।

तादात्म्यमेव वृत्तिः स्यात्

वृत्तिर्हि चित्तमित्यस्मिता।।

इस तरह मन को अवलम्बन प्राप्त होते ही 'समय' से सामञ्जस्य हो जाता है। तब न ऊब होती है, न थकान, न नींद आ रही होती है, न आलस्य। इसे ही सालंब ध्यान कह सकते हैं।

देशबन्धचित्तस्य धारणा।।१।।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासा समाधिः।।३।।

(विभूतिपाद )

स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा।।

अब रात्रि के 01:53 हो रहे हैं।

मन और शरीर अपनी अपनी प्रकृति से गतिशील रहते हैं। और जब उनकी गतियों के बीच असामञ्जस्य होने लगता है तो संघर्ष, असंतोष, व्याकुलता, अवसाद और ग्लानि आदि की स्थिति बनने लगती है। और तब मन उस स्थिति से त्राण पाने के लिए अविवेकपूर्वक किसी भी विषय का आलंबन लेकर उस विषय से संलग्न और  लिप्त हो जाता है। 'समय' यद्यपि बीत जाता है, किन्तु हाथ कुछ लगता है तो वह बस निराशा और व्यर्थता ही होता है। हाँ, फिर 'समय' बीतने पर धीरे धीरे मन स्वस्थ भी हो जाता है। जैसे किसी बर्तन में रखा जल एक बार हिल जाने के बाद स्वयं ही धीरे धीरे शांत और सुस्थिर हो जाता है, और किसी प्रयास से उसे शांत नहीं किया जा सकता। प्रयास से तो वह और भी चंचल और अस्थिर हो जाया करता है।

मध्य-रात्रि 02-19

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September 12, 2025

The River.

नदी की आत्मकथा 

लौटती है नदी, लौटता है प्यार,

चल रही, चल रही, चल रही बयार!

जब चली थी पिघल, हो रही थी विकल,

ना पता थी राह, या कि क्या है मंजिल,

बस था उत्साह एक, एक ही थी उमंग,

पुलकित हृदय था, पुलकित था अंग अंग, 

सूर्य की रश्मि ने जब किया चुम्बन प्रथम, 

प्रेम का आह्लाद की अनुभूति तब हुई प्रथम,

एकला चालो की जब हृदय में स्फूर्ति उठी,

धरती ने बाँह गही, नभ ने दिया आशीष। 

सींचती रही धरा को, प्यास सूखे कंठ की,

तृप्त करती रही आतुर क्षुधा जन जन की, 

छंद बंध तोड़कर बह चली, वह बह चली!

फैल गई सिन्धु सी कभी विस्तार में, 

सुखकर काँटा हुई कभी जैसे थार में,

हार में या जीत में,  जीत में या हार में,

बह चली, बह चली, बह चली वह प्यार में!

घोर वन, दुर्गम अरण्य, भूलकर वह पाप पुण्य,

बँटती चली अथाह प्यार वह संसार को, 

और सागर से मिली, यूँ कि अपने प्यार को।

हो गई लावण्यमयी किन्तु पुनः फिर विकल, 

सूर्य की उत्तप्त राश्मि ने दिया संताप प्रबल,

हो उठी वाष्प तब, और उठी नभ की ओर,

मेघ बनकर फैल गई हर तरफ हर ओर! 

द्वार खड़े खड़े तरस गई आखिर आज बरस गई,

प्यासी बदरी सावन की, ऋतु आई मनभावन सी।

बस यही तो चलता रहा, नदिया यूँ बहती ही रही, 

जीवन के सारे ही सुख दुख तो यूँ सहती ही रही। 

उसकी खुशियाँ, उसके आँसू, उसका प्यार यही, 

उसका दामन, उसका आँचल, उसका संसार यही! 

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September 11, 2025

Wild Nights!

रात के हमसफ़र

वह फरवरी 2023 की शाम रही होगी जब मैं उस जंगल हाउस में प्लास्टिक की डोरी से बनी हुई खाट पर खुले आकाश तले सो रहा था। वहाँ वह रॉक्सी भी थी जिससे अभी मेरी ठीक से पहचान नहीं हुई थी। थोड़ी दूर पर ही एक पलंग-पेटी थी जिस पर वह आदिवासी पति पत्नी युगल सोए होते थे। और अगर रात्रि में मुझे उठना होता था तो उस आदिवासी पुरुष को आवाज देकर जगाना होता था जो वहाँ एक कर्मचारी भी था, क्योंकि रॉक्सी से मुझे खतरा हो सकता था। वैसे रात में उसे खुला छोड़ दिया जाता था और वह उस पूरे क्षेत्र में बेख़ौफ घूमती रहा करती थी। हालाँकि हफ्ते भर में वह मुझे पहचानने लगी थी और कभी कभी तो मुझे सूँघने और चूमने चाटने की कोशिश भी करती थी। बाद में तो पूरे साल भर तक, जब तक मैं उस जंगल हाउस में रहा वह लगभग पूरे दिन भर और रात भर मेरे साथ रहती थी। वह एक बहुत ही खतरनाक नस्ल की कुतिया थी जिसे पालना कुछ देशों में तो प्रतिबंधित भी है। गर्मियाँ खत्म होते ही मैं जंगल हाउस की टीन शेड की छत के नीचे बने अपने कमरे में सोने लगा था और शाम से ही जंगली कीड़ों मकोड़ों का आक्रमण शुरू हो जाता था। बिजली कभी कभी दो दो दिनों तक बंद रहती थी, और मोबाइल की रोशनी से भी कीड़े बुरी तरह आकर्षित होते थे इसलिए शाम से सुबह तक कुछ खाना पीना भी जैसे मेरे लिए हराम होता था। कीड़ों से छुटकारा तो तभी होता था जब सर्दियाँ पड़ने लगती थीं। बस वे दो या तीन महीने ही, जब भीषण ठंड में मैं अपने पूरे कपड़े, ऊनी टोपी भी पहन लेता था और एक कंबल तथा चादर ओढ़कर उस खाट पर कुड़कुड़ाते हुए रात गुजारना होती थी। सुबह से शाम तक खुली धूप में घूमता रहता। अकसर हर दूसरे दिन ही दूध और अन्य जरूरी सामान लेने के लिए पास के गाँव तक जाना होता था। दो किलोमीटर दूर स्थित उस गाँव तक जाने के लिए मुझे तैयार देखते ही रॉक्सी भी मेरे पीछे पीछे आने की कोशिश करने लगती थी, लेकिन एक किलोमीटर चलने पर वह मुझे छोड़कर वापस लौट जाया करती थी। और उसका मालिक जो जंगल हाउस का चौकीदार था, और पास के ही दूसरे गाँव में रहता था, सुबह शाम रॉक्सी को वहाँ दिन भर के लिए बाँध दिया करता था ताकि वहाँ से आने जाने वाले लोगों को उससे खतरा न हो।

पुनः वर्ष 2024 की सर्दियों के प्रारंभ में जब मैं इस नये स्थान पर आया तो जंगल के कीड़ों का वही आतंक फिर यहाँ भी शुरू हो गया। 

ये कीड़े ही यहाँ रात के मेरे हमसफ़र थे। 2025 की इन गर्मियों तक उनसे बुरी तरह त्रस्त रहा। अभी इस समय भी एक दो कीड़े आसपास मंडरा रहे हैं जिन्हें पकड़कर बाहर फेंक देना है। रात होने और शाम ढलने से पहले ही भोजन कर लेता हूँ और कभी या तो छत पर टहलता हूँ या कभी नींद आने पर सो जाता हूँ। दो घंटे सोकर जब उठता हूँ तो भी फिर मोबाइल बंद ही रखता हूँ। कुर्सी पर बैठा रहता हूँ।

"क्या कर रहे हो?"

उस तथाकथित मित्र का फोन आता है तो कहता हूँ :

"खाना खा लिया है, लाइट बंद है इसलिए चुपचाप अंधेरे में कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ।"

उसे समझ में नहीं आता। मुझे बरसों से यह आदत है। बिना किसी प्रकार के शारीरिक या मानसिक, बौद्धिक कार्य में संलग्न हुए चुपचाप टहलते रहना या बस सिर्फ बैठे रहना। पढ़ना, लिखना, किसी से बातचीत करना, जप आदि यह सब न करते हुए और कर्तृत्व की भावना तक से भी मुक्त रहते हुए। जैसा कि बचपन में अनायास होता था - सुबह नींद से उठने पर दरवाजे पर जाना, खड़े हो रहना आकाश को और अपने आसपास देखते रहना। तब मन में भाषा का अभाव था। और इसलिए सोच पाने की कोई संभावना भी नहीं थी। फिर धीरे धीरे कैसे भाषा और फिर विचार करने की बाध्यता उस शांत मनःस्थिति पर कब हावी हो गई यह तक पता न चला। सौभाग्य से बचपन से ही किसी से भी अपनापन कभी न बन पाया बल्कि सबसे कुछ दूर ओर अकेले ही रहना मुझे अधिक भाता रहा। जंगल हाउस में रहते हुए फिर वह बचपन लौट आया जब अकेलापन कभी कचोटता नहीं बल्कि सहलाता ही था। वह एकमात्र अनन्य साथी, जिसे अपने से अलग कर पाना वैसे भी संभव नहीं है।

याद अगर वो आए, ऐसे लगे तनहाई,

सूने शहर में जैसे, बजने लगे शहनाई,

आना हो, जाना हो, कैसा भी जमाना हो,

उतरे कभी न जो खुमार वो प्यार है!

वैसे ही यह अकेलापन जो एक ओर एकाकीपन भी है तो दूसरी ओर इसमें किसी प्रकार के अभाव का भी नितान्त अभाव है। सुख दुःख, चिन्ता या डर, आशा या निराशा, लोभ, आकर्षण-विकर्षण, आशंका या विरक्ति, आसक्ति, स्मृति और विस्मृति से भी रहित। शायद यही वह प्रेम है, जिसमें किसी दूसरे का भी अत्यन्त अभाव होता है। यह खुमारी जैसी कोई आने जाने वाली वस्तु नहीं है। न तो इसे पाया जा सकता है न खोया ही जा सकता है। इसका आविष्कार किया जाता है और किया जा सकता है। 

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September 09, 2025

Filial / Affiliate,

संबंध नहीं, परिचय / पहचान

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के सौजन्य से पता चला कि अंग्रेजी शब्द  Fillial  का अर्थ है -पुत्रवत् स्नेह!

उम्र में मुझसे छोटे मेरे ऐसे तीन दिवंगत मित्र थे, जिनसे मैं कुछ इसी तरह की डोर से बँधा था। उनसे मित्रता का कारण अलग अलग था और जो मुझे, और शायद उन्हें भी बहुत स्पष्ट नहीं था।

उनमें से प्रथम थे, जिनका एकमात्र लक्ष्य था समाज में आध्यात्मिक गुरु की तरह से अपनी पहचान स्थापित करना।

दूसरे वे, जिनका एकमात्र तय लक्ष्य संभवतः यह था कि  उन्हें एक सफल, प्रतिष्ठित, जाने-माने और विश्वविख्यात व्यक्ति की तरह जाना जाए।

इन दोनों की अपनी भौतिक और सांसारिक आकांक्षाएँ भी थीं जो संभवतः पूर्ण हुईं होंगी, ऐसा भी लगता है।

पहले मित्र तो आजीवन अविवाहित रहे, दूसरे मित्र का विवाह हुआ किन्तु संतान नहीं थी।

तीसरे मित्र विवाहित थे और उनके दो पुत्र भी हैं। प्रकटतः तो वे अध्यात्म में रुचि होने से मुझसे जुड़े थे। 

तीनों ही किसी समय किसी प्रकार की सार्वजनिक सेवा (service) में थे। पहले मित्र ने अनुकूल अवसर और समय आने पर स्वेच्छा से सेवा से अवकाश ले लिया था और संन्यासी की तरह रहने लगे थे। 65 वर्ष की उम्र के आसपास, स्वास्थ्य ठीक न होने से उनका देहावसान हो गया। 

दूसरे और तीसरे मित्र का सेवा में रहते हुए आकस्मिक देहावसान हो गया।

कभी कभी यह सोचकर आश्चर्य होता है कि हर व्यक्ति के जीवन में कौन किसलिए आता है, कब तक रहता है और फिर कब संसार छोड़कर चला जाता है!

किन्तु अपने आपके जीवित रहने तक अपनी स्मृतियों में तो वह अवश्य ही रह जाता है! 

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At N H 44,

रेवा तीरे!! 

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जैसे कुछ पता ही नहीं चलता है,

कब उगता है दिन, कब ढलता है! 

सुबह से रात, रात से सुबह तक,

बादलों का समंदर बरसता है!

हवाएँ बहती, रुकती चलती हैं,

उम्मीद हृदय में मचलती है,

कभी तो बदलेगा ये मौसम भी,

जैसे हर चीज ही बदलती है!

दूर से आती है, दूर जाती है,

शोर करती है, गुनगुनाती है,

शिव की लाड़ली चंचल बेटी,

सबसे निर्लिप्त बहती जाती है!

यहाँ आया था उससे मिलने ही, 

उसका आशीष मुझपे रहता है,

हर घड़ी उसके स्वर, उसका रव,

मेरे कानों में पड़ता रहता है।

डूब जाता हूँ स्वरलहरियों में, 

और मैं भी लहर हो जाता हूँ,

अपना परिचय कि कौन हूँ मैं,

अनायास भूल जाता हूँ मैं,

और संसार भी खो जाता है,

उसकी पहचान भी खो जाती है,

फिर भी चलता है सुसंगत जीवन, 

न जाने कौन चलाता है इसे!

बस ये आदत ही हो गई है अब,

कोई अतीत या भविष्य नहीं,

बस ये वर्तमान रहा करता है, 

और जीवन इन्हीं तरंगों में, 

हर घड़ी मुग्ध बहा करता है!

(सत्-धारा सत्-चित्) 

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September 07, 2025

Algorithm, Gestalt,

Conflict and The Idiosyncracy

दुःख अनंत और असीम है। कभी उसका अन्त नहीं होता। बस सतत और अनवरत रूपान्तरित होता रहता है। वही, जो अभी सुख प्रतीत हो रहा होता है, पलक झपकते दुःख प्रतीत होने लगता है, और दुःख दूर हो गया, ऐसा क्षणिक आभास और सुख के मिलने की आशा का नया, क्षणिक आभास उसका स्थान ले लेता है।

यह सब एक दुष्चक्र होता है, जो शायद अनंत और असीम है। यह सब मन की गतिविधि और मन में होता है जो स्वयं यह दुष्चक्र और अपने आपको इसमें फंसा हुआ अनुभव करता है। मन स्वयं ही 'अनुभव' होता है और मन ही 'अनुभव' को परिभाषित भी करने लग जाता है। मन स्वयं अपने आपको और वर्तमान के इस क्षण को इस प्रकार अतीत और भविष्य की कल्पना करते हुए समय की अवधारणा में विभाजित हो जाने के आभास से ग्रस्त हो जाता है।

यही मन है। यही 'मैं' है, जिससे पृथक्, स्वतंत्र दूसरा कोई या कुछ कहीं होता ही नहीं।

यह अवधारणा ही ग्रन्थि / Gestalt है, जो कि वैचारिक आग्रह के रूप में सूत्र / Algorythm में बदल जाती है।

विभाजित मन split mind ही व्यक्ति के रूप में क्षणिक अस्तित्व का आभास उत्पन्न करता है और अगले ही क्षण पुराना व्यक्ति विलीन होकर नये व्यक्ति को अस्तित्व प्रदान करता है। यह नया व्यक्ति उसके अपने क्षण में पुराने का एक और  संस्करण होता है जो सतत रूपांतरित होता हुआ मन के एक व्यक्ति विशेष होने का भ्रम होता है।

यह व्यक्ति अर्थात् यह भ्रम ही मन का जीवन है, जो सतत स्वयं को काल्पनिक निरंतरता प्रदान करता रहता है creating one's own an apparently continuous existence.

यह मन ही पुनः किसी इंद्रियगोचर बाह्य जगत की प्रतीति से मोहित हुआ उसमें अपने आपको 'मैं' की तरह उससे संबद्ध किन्तु उससे स्वतंत्र भी मान बैठता है।

यह सब आकस्मिक और अप्रत्याशित रूप से घटित होता है और तब मन-रूपी यह विखंडित व्यक्ति fragmented person की तरह से केवल द्विध्रुवीय असामञ्जस्य - bipolar personality disorder से ही नहीं, बल्कि बहु-व्यक्तित्व असामञ्जस्य - multiple personality disorder (mpd) से भी ग्रस्त हो जाता है।

इस सबका पूर्वाग्रह-रहित अवलोकन अर्थात् careful awareness अवश्य ही इस दुष्चक्र को विलीन कर सकता है।

इस पूर्वाग्रह-रहित अवलोकन का अभ्यास नहीं किया जा सकता। जीवन What Is के प्रति उत्कट प्रेम और पूर्वाग्रह-रहित अवलोकन होने पर यह अनायास ही फलित होता है और इस तरह से फलित होने पर यह अज्ञात से अज्ञात के आयाम में इस तरह से विकसित, पल्लवित और पुष्पित होता रहता है, जिसके बारे में न तो कोई अवधारणा, न सिद्धांत और न ही कोई निष्कर्ष प्राप्त हो सकता है।

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September 01, 2025

THE SHADOW-LIFE.

छाया-पुरुष की अभिलाषा

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इतना तो करना स्वामी,

जब प्राण तन से निकलें!

देह-मिट्टी मिट्टी से मिले, नीर से नीर मिले,

अगन से अगन मिले, पवन से समीर मिले,

महाप्राण में प्राण मिलें, चित्त चेतना से मिले,

जीव मिले शिव से, शक्ति, शिवा से मिले,

माया मायापति से, पुरुषोत्तम से पुरुष मिले,

मृत्यु मिले अमृत में, आत्मा, परमात्मा से मिले!

इतना तो करना स्वामी, जब प्राण तन से निकलें!!

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