आम्नाय (मार्ग)
उसने प्रायः पशु पक्षियों की ध्वनियों को ध्यान से सुना था और फिर अपने दोनों नेत्रों और दोनों कानों को बन्द कर वह मुख से उनके उच्चारण का प्रयास किया करती थी। फिर उसे यह सूझा कि मुख से उनका उच्चारण करने से कहीं अधिक अच्छा यह होगा कि मुख को बन्द रखकर, उनकी स्मृति से अपने भीतर ही उन ध्वनियों को सुनने का प्रयास किया जाए। तब उनमें एक ऐसे ध्वनि-क्रम का उसे पता चला जिसे आज के पाश्चात्य संगीत शास्त्र में
c d e f g h a b से,
तथा वैदिक रीति से क्रमशः
सारंग, ऋषभ, गांधार, मध्यम्, पञ्चम्, धैवत् और निषाद से व्यक्त किया जाता है।
स्पष्ट है कि उसे यह ज्ञान तब अनायास ही अपने भीतर ही प्राप्त हुआ था और तब वह उसे उन स्वरों को दोहराने का मन होने लगा। और तब उसने उस प्रथम वाद्य यंत्र की रचना की जिसमें बाँस की एक पोली नली पर भिन्न भिन्न दूरियों पर छिद्र किए और एक सिरा पूरी तरह खुला रखते हुए दूसरे पर कोई अवरोध जैसे कोई पत्ता आदि फँसाया। यह कल्पना उसे उन्हीं पशु पक्षियों की ध्वनियों पर ध्यान देने से आई क्योंकि तब उसे लगा कि उनकी कंठनली में भी ऐसा ही कुछ पर्दा (diaphragm) होने के कारण उन ध्वनियों के कम्पन भिन्न भिन्न होते होंगे। हम जैसे तथाकथित रूप से उन्नत मनुष्यों के लिए इसका अनुमान और आकलन कर पाना कठिन ही होगा कि यह सब उसने कैसे किया होगा, और यह समझ पाना भी कि बुद्धि अर्थात् किसी शाब्दिक विचार प्रणाली के द्वारा भी ऐसा कर पाना संभव नहीं है। क्योंकि विचार या 'बुद्धि' मानसिक चित्तवृत्ति का एक रूप अर्थात् 'प्रत्यय' होता है जिसका संवेदन मुख्यतः और केवल प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा तथा स्मृति इन्हीं पाँचों प्रकारों में हुआ करता और जाना जाता है। उसके पास भी यद्यपि अन्य सभी प्राणियों की ही तरह वह आधारभूत चेतना Interface तो था, जिसे चेतना या भान अथवा बोध शुद्ध संवेदन के रूप में हर कोई जानता ही है किन्तु वस्तुओं (objects) और विषयी (subject) के लिए प्रयुक्त किए वे ध्वन्यात्मक पद (words) नहीं थे जिनके माध्यम से हम मनुष्यों में 'जानकारी' रूपी कृत्रिम ज्ञान की एक प्रणाली बनती और सक्रिय हो जाया करती है। यह कृत्रिम ज्ञान उस स्वाभाविक
चेतना, भान, अथवा अथवा बोध
पर आवरित होकर अपना स्वयं का एक स्वतंत्र अस्तित्व होने का भ्रम Artificial intelligence निर्मित कर लेता है।
उसमें इस प्रकार के किसी भ्रम ने अभी अपना सिर तक नहीं उठाया था। इसलिए वह ऐसे यांत्रिक और कृत्रिम ज्ञान से नितान्त अनभिज्ञ और अपरिचित थी।
और तब एक दिन वह अचानक एक अद्भुत् प्रतीति पर मुग्ध हो उठी जब उसने दो स्वरों के बीच के उस शून्य को पहचान लिया जो सब स्वरों में उनके आधार की तरह से विद्यमान तो होता है, फिर भी वह कोई ध्वनि-विशेष नहीं होता। उसे जान पड़ा कि वह शून्य जो सबमें अन्तर्निहित और सबसे अप्रभावित रहता है, सबमें ओतप्रोत है, और फिर भी सब से विलक्षण है और उसका उच्चारण करने का प्रश्न ही नहीं उठता।
तब तक वह चित्र-लिपि में उन वस्तुओं और घटनाओं रूपी अपने अतीत को चट्टानों और रेत पर उकेरा करती थी, जो समय के साथ धीरे धीरे धुँधले होकर या वैसे ही विलुप्त हो जाया करते थे और उस पर इन सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। हर दिन, हर पल वह वैसी ही तरोताजा और निर्मल, निर्दोष और उत्फुल्ल रहती थी जैसे कोई सद्योजात शिशु हुआ करता है।
यह समाम्नाय था !
उस अतिथि मित्र के आगमन के बाद ही उसे यह पता चल कि ध्वनियों को चित्रों के माध्यम से भी व्यक्त किया जा सकता है और वह यह जानकर रोमांचित हो उठी कि
अक्षरसमाम्नाय
भी कुछ होता है!
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