Question / प्रश्न 79
क्या साँख्य और योग द्वैत / अद्वैत दर्शन है?
Answer उत्तर :
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५)
साँख्य और योग दर्शन नहीं दर्शन की सिद्धि के उपाय हैं। इसलिए दोनों ही द्वैत के माध्यम से अद्वैत तक के दर्शन रूपी सिद्धि के लिए दो भिन्न प्रतीत होनेवाले साधन हैं।
उन मित्र का विचार था कि साँख्य पुरुष और प्रकृति के आधार पर स्थापित द्वैत दर्शन है।
भूल दर्शन को मार्ग या उपाय समझ लिए जाने से पैदा हुई है क्योंकि दर्शन, मार्ग या उपाय से प्राप्त होनेवाला फल, सिद्धि या परिणाम है। जिस तत्व की प्राप्ति उस उपाय या मार्ग के माध्यम से होती है, उस तत्व को सत्य भी कहा जा सकता है। उसे आत्म-साक्षात्कार या ईश्वर-अनुभूति भी कहा जा सकता है क्योंकि दोनों ही रीतियों से अंततः एकमेव अद्वितीय ब्रह्म / परमात्मा को ही जान लिया जाता है। इसलिए दर्शन छः षट्दर्शन हैं। प्रत्येक ही स्वतंत्र रूप से सत्य के अनुसन्धान और उसकी प्राप्ति के लिए अपने आपमें सहायक और पर्याप्त भी है। मत और अभिमत की दृष्टि से अवश्य वे भिन्न भिन्न हो सकते हैं। जैसे किसी गंतव्य स्थान तक जाने के लिए भिन्न भिन्न मार्ग होते हैं किन्तु उनमें से एक को ग्रहण करने में अन्य मार्गों का निषेध करना ही पड़ता है। और यह भी रोचक है कि प्रत्येक ही मार्ग पर अनेक मोड़ आते हैं जिनसे हम किसी दूसरे और भिन्न प्रतीत होनेवाले मार्ग पर मुड़ सकते हैं। इसलिए अनेक रूपों में ईश्वर की आराधना करनेवाले अपने अपने ईश्वर को दूसरों के ईश्वर से भिन्न मानते हुए भी परमात्मा को एकमेव ही कहते हैं। किसी मार्ग पर चलते समय यद्यपि उनके बीच मतभेद हो सकता है किन्तु अपने आराध्य की प्राप्ति हो जाने पर वे परस्पर ऐसे किसी भेद को अनुभव नहीं करते। और इसे ही शुद्धाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि नाम प्रदान किए जाते हैं जिनके बीच मतभेद और विवाद होने लगता है। ये सब उस तत्व को सिद्धान्त का रूप दिए जाने का परिणाम है।
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