Question / प्रश्न 76
ईश्वर क्या है?
Answer / उत्तर
आध्यात्मिक साधनाओं की विविध परम्पराओं का इस आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है कि कुछ तो संसार की सृष्टि करने, संरक्षण और परिपालन तथा पुनः उसका संहार करने के लिए किसी महान ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करती हैं, और इससे विपरीत और भिन्न दृष्टि का आग्रह करनेवाली ऐसी किसी सत्ता का प्रमाण दिए जाने का आग्रह करती हैं। इनमें भी पुनः अनेक मतभेद देखे जाते हैं जैसे कि वह सत्ता एकमात्र और अद्वितीय है और उससे भिन्न किसी और दूसरी ऐसी सत्ता का अस्तित्व ही नहीं है। फिर उस एकमात्र ईश्वरीय सत्ता को माननेवालों की बीच भी इस पर मतभेद होते हैं कि उसका स्वरूप और नाम किस प्रकार का है। उसके साक्षात्कार का मार्ग या उपाय क्या हो सकता है इस पर भी उनके बीच विवाद होता रहता है। फिर इस बारे में भी इन सभी के बीच एक और मतभेद इस प्रकार का होता है कि क्या उस ईश्वरीय सत्ता का संसार में अवतरण होता है या कि वह किसी विशिष्ट मनुष्य को संसार में भेजता है जिसके माध्यम से उसके स्वरूप और कार्य के बारे में संसार को संदेश दिया है। पूर्व की सनातन धर्म की भिन्न भिन्न परम्पराओं में यद्यपि उसे एकमेव और अद्वितीय भी कहा जाता है और उसे ही आत्मा या परमात्मा, ब्रह्म या परब्रह्म भी कहा जाता है - जैसे कि आस्तिक परम्पराओं में, जबकि इनसे भिन्न और भी परम्पराएं हैं, जिनमें ऐसी किसी ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व पर संशय किया जाता है, यहाँ तक कि उसके अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया जाता है। जैसे कि नास्तिक, चार्वाक परम्पराएँ। इनसे भी भिन्न बौद्ध और जैन परम्पराएँ भी हैं जिनमें इस प्रकार का ईश्वर विचार का विषय ही नहीं होता और आत्मा को ही जानने पर बल दिया जाता है क्योंकि यद्यपि आत्मा या स्वयं से प्रत्येक मनुष्य अनायास परिचित ही होता है, आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए बहुत ही श्रम और प्रयास करना भी आवश्यक होता है। इन भिन्न भिन्न मतों या सिद्धान्तों को माननेवालों की तरह किन्तु उनसे कुछ भिन्न यह मत वेदान्तवादियों का होता है कि आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म, सत्य, और उन्हें जाननेवाला एक ही और इन सबसे अनन्य है।
एक दृष्टान्त / उदाहरण दिया जाता है कि यदि वाहन या गाड़ी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जाना है तो उसे खींचकर ले जाया जाता है या धकेलकर ले जाया जाता है इसका विशेष महत्व नहीं है।
इसी प्रकार अनेक सिद्धान्त ईश्वर और आत्मा के बारे में हैं और यदि ईश्वर का या आत्मा का साक्षात्कार करते हुए उसे जानना है, या उसे जानकर उसका साक्षात्कार करना है, तो इसका विशेष महत्व नहीं रह जाता कि इस उद्देश्य की प्राप्ति किस तरह से की जाती है।
यहाँ पर सबसे बड़ी बाधा है व्यक्तिगत स्वतंत्रता, कर्तृत्व, भोक्तृत्व और स्वामित्व के रूप में व्यक्तिगत अहंकार। अहंकार किसी भी यत्न से स्वयं का निषेध, निरसन या निराकरण नहीं कर सकता। इसलिए अहंकार को मिटा सकना लगभग असंभव है। इसके लिए कोई तरीका नहीं हो सकता। किन्तु इस समस्या का एक संभावित हल यह हो सकता है कि सब कुछ ईश्वर के प्रति पूर्णतः समर्पित कर दिया जाए। किन्तु समर्पण भी तब तक किया नहीं जा सकता जब तक मनुष्य में कामना का लेशमात्र भी शेष है। और क्या किसी "ईश्वर" की स्वीकृति भी कामना का ही एक प्रकार नहीं होती! इसलिए ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं, यह प्रश्न गौण है, प्रमुख प्रश्न यह है अहंकार का विलय (dissolution) कैसे हो सकता है? किसी के लिए यह संभव है कि वह निश्चयपूर्वक यह अभ्यास करता रहे कि उस अज्ञात ईश्वरीय सत्ता को यथासंभव सतत स्मरण रखे और अपने समस्त संकल्प, इच्छा आदि को भी उसका ही समझे और अपने सारे यत्नों को भी ।इसी के साथ जो भी कुछ घटित होता है उस सबको भी उसकी ही इच्छा समझे अर्थात् ईश्वरीय सत्ता से वह कोई प्रतिरोध न करे। अपने आपकी सुरक्षा तक उसे सौंप दे। किन्तु यह भी बहुत कठिन प्रतीत होता है। क्या फिर ऐसा नहीं किया जा सकता कि ईश्वर का विचार तक न किया जाए और केवल आत्म-चिन्तन ही किया जाए। यहाँ इस पर भी ध्यान देना होगा कि तब संसार के समस्त विषयों को मन से बहिष्कृत कर देना होगा। मन इस प्रकार से क्या विषयों से नितान्त रिक्त हो सकता है? संभवतः पतञ्जलि के योगसूत्र से इसका संकेत ले सकते हैं जिसमें योग को चित्त की वृत्तियों का निरोध (करना) कहा गया है। शायद एक और अन्य सांख्यनिष्ठा के आधुनिक युग के द्रष्टा :
Emptying of the mind of all its content / contents.
कहते हैं।
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