June 29, 2024

81. Merits-Demerits

Question प्रश्न 81.

पुण्य और पाप

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किसी भी मनुष्य के द्वारा जाने या अनजाने किया जानेवाला पुण्य अथवा पाप अर्थात् वह कार्य, कर्म या कृत्य, जिससे अंततः उसे वह गति प्राप्त होती है जिसके परिणाम से उसकी आत्मा को चिर शान्ति, या अशान्ति मिल सकती हो? और जिस स्थिति को किसी अप्रत्यक्ष और अप्रकट भविष्य में नहीं, अभी ही साक्षात् जाना जा सकता हो?

Answer उत्तर :

यह तो स्पष्ट ही है कि कोई भी सांसारिक उपलब्धि न तो स्थायी हो सकती है, न सतत सुख या प्रसन्नता का कारण हो सकती है। और केवल प्रमाद (In-attention) के ही कारण मनुष्य इस सरल से सत्य को देखने से वंचित रह जाता है। जाने अनजाने में किया जानेवाला या घटित होनेवाला यह प्रमाद ही एकमात्र पाप है । क्योंकि प्रमाद से ग्रस्त व्यक्ति ही इच्छा और लोभ तथा द्वेष और भय से क्रमशः आकर्षित और विकर्षित होता है और अपने लिए दुःख उत्पन्न करता है। यह प्रमाद मूलतः मोहित बुद्धि का परिणाम होता है और मनुष्य-मात्र ही जन्म लेते ही इससे अभिभूत हो जाता है :

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।। 

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ७

दूसरी ओर मनुष्य की इस सम्मोह से युक्त बुद्धि में ही सांसारिक विषय-ज्ञान या आध्यात्मिक आत्म-ज्ञान का या दोनों ही का अभाव हो सकता है। ऐसे पुरुष को ही अज्ञ कहा जाता है। इससे भिन्न ऐसा भी कोई मनुष्य हो सकता है जिसे इस प्रकार का लौकिक या आध्यात्मिक ज्ञान दिए जाने पर वह या तो इसे सुन और समझ तक नहीं पाता या उसे इस पर अविश्वास अथवा संशय होता है। जैसे ईश्वर विषयक ज्ञान के सबंध में नास्तिक के साथ प्रायः होता है। क्योंकि प्रथमतः तो वह ईश्वर को मन की एक कल्पना ही मानता है। इसी प्रकार ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करनेवाला भी ईश्वर के स्वरूप से अनभिज्ञ होते हुए केवल उसकी एक मानसिक प्रतिमा बना लिया करता है और इस प्रकार ईश्वर के संबंध में उसकी कोई कल्पना एक बहुत दृढ धारणा और आग्रह ही होती है न कि ईश्वर का अनुभूतिपरक ज्ञान। उसकी श्रद्धा ईश्वर पर नहीं बस ईश्वर के बारे में उसकी अपनी धारणा पर होती है। तीसरे प्रकार के मनुष्य में ईश्वर के बारे में कौतूहल या संशय होता है। यद्यपि इन तीनों ही प्रकार के मनुष्यों में अपने स्वयं के अस्तित्व के विषय में न तो अनभिज्ञता, न अश्रद्धा और न ही संशय होता और हो सकता है। 

आशय यह कि अपने स्वयं (जिसे संस्कृत में आत्मा कहा जाता है) के विषय में न तो कोई अज्ञ होता है, न ही वह  अश्रद्धायुक्त अथवा संशयग्रस्त होता है।

कोई भी अपनी आत्मा से अज्ञ, अनभिज्ञ, अश्रद्धायुक्त और संशयग्रस्त नहीं होता किन्तु उसका अपनी आत्मा से यह परिचय मिश्रित ज्ञान का रूप ले लिया करता है।

सांसारिक और लौकिक उपलब्धियों के प्रति आकर्षित कोई भी मनुष्य केवल इस प्रमाद (In-attention) के ही कारण निरन्तर पापरत और पुण्य से विरत होता है।

दूसरी ओर प्रमादरहित मनुष्य का ध्यान सांसारिक सुखों, वस्तुओं और अनुभवों आदि की क्षणिकता की ओर जाने पर उसमें जागरूकता (Watchfulness) उत्पन्न होती है। जैसे जैसे वह इस पर और अधिक ध्यान देने लगता है, उसमें अनायास एक दिव्य प्रेरणा आकर्षित करती है और यही आध्यात्मिकता का प्रारंभ होता है। यह प्रेरणा चिन्तन का रूप ले लेती है - एक ऐसे चिन्तन का रूप जो कोई मानसिक गतिविधि नहीं बल्कि आत्मानुसंधान का ही पर्याय होता है। इसे शब्द या नाम दिया जाना गौण है। किन्तु तब उसे एक सूत्र मिल जाता है,  और एक डोर, जिससे बँधा हुआ वह अपने ही भीतर और भी अधिक गहरे उतर जाता है। जैसे कोई गोताखोर गहरे जल में कुछ खोजने के लिए उतरता है और नेत्र, मुख, कान और नासा-छिद्र भी बन्द कर लेता है और केवल अपने हाथों और पैरों से जल के भीतर गहराई में खोई किसी वस्तु को टटोलता हुआ उसे प्राप्त कर लेता है।

कूपे यथा गाढजले तथान्तः 

निमज्ज्य बुद्ध्या शितया नितान्तम्।। 

प्राणं च वाचं च नियम्य चिन्वन्

विन्देन्निजाहंकृतिरूपमूलम्।।३०।। 

(सद्दर्शनम् महर्षिश्रीरमणकृतम्)

इस प्रकार प्रमाद वह ही एकमात्र पाप है जिसमें मनुष्य जन्म लेता है। इस प्रमाद (In-attention) पर ध्यान जाते ही यही प्रमाद (In-attention) जागरूकता का रूप ग्रहण कर लेता है । वही ऊर्जा अर्थात् जड प्रकृति जो यान्त्रिक प्रक्रिया के रूप में कार्यशील थी, सचेतन हो जाती है यद्यपि और इसीलिए उसका जड अहंकार "मैं'  पिघलकर चैतन्य प्रकाश में बदलने लगता है। और तब भौतिक और मनोपरक जागरूकता (mindfulness) ध्यानपूर्ण सचेतनता (watchfulness) का रूप ग्रहण कर लेती है। जब वह इसमें और अधिक डूबता है तब इस अवधान, ध्यानपूर्वक सचेतनता (watchfulness) में स्थित "मैं" तब पिघलकर साक्षित्व (witnessing) में रूपान्तरित हो जाता है। ऐसा रूपान्तरण जो पदार्थ (matter) का चेतना (consciousness) में होता है। साक्षित्व (witnessing) ही समृद्ध, परिपक्व, परिपूर्ण होकर परम चैतन्य (Awareness) की तरह अभेद एकमेवोऽद्वितीयः की तरह जान लिए जाने पर ज्ञाता और ज्ञेय विलीन हो जाते हैं और तब विशुद्ध ज्ञान ही शेष रह जाता है।


प्रमाद (In-attention) के रहने तक अभ्यास करते रहना ही एकमात्र विकल्प है।

अनवधानता (In-attention) ही एकमात्र पाप है।

अवधान (Attention) ही एकमात्र पुण्य है।

जीवन में सुख दुःख आते जाते रहते हैं और उनके लिए चिन्तित होते रहना व्यर्थ है, जबकि जागरूकता, ध्यान, अवधान, साक्षित्व और चैतन्य जीवन का चरमोत्कर्ष है।

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अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।। 

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।

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