Question प्रश्न 77 :
How Action, Desire, Compulsion and Destiny are related to one another?
कर्म, इच्छा, बाध्यता और भवितव्य के बीच परस्पर क्या संबंध है?
Answer / उत्तर :
उपरोक्त सभी के बीच वही संबंध है, जो परस्पर कृत्य / कर्तव्य, इच्छित / इच्छितव्य, मन / चेतना, स्वभाव और प्रकृति, प्रारब्ध और भाग्य के बीच होता है।
यद्यपि प्रारब्ध कर्म ही है, और कर्म प्रारब्ध ही है तथापि किन्तु केवल अतीत और भविष्य की काल्पनिक मान्यता के कारण ही वे दो भिन्न रूपों में दिखाई देते हैं।
संस्कृत व्याकरण में दो प्रत्यय होते हैं शतृ / शानच् और तव्यत् । प्रयोग में ये दोनों क्रमशः कर्म को करनेवाले और किए जा सकने योग्य कार्य के द्योतक होते हैं।
जैसे कृ धातु और शतृ प्रत्यय से बननेवाला कर्तृ पद / प्रातिपदिक, कर्ता के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैसे पितृ पद से पिता आदि बनते हैं।
शानच् प्रत्यय के साथ किसी संज्ञा को संबंधित करने पर बननेवाला शब्द उस संज्ञा के साथ संयुक्त विशेषता का द्योतक होता है - जैसे कि भाग्यवान्, विद्वान्, बलवान्, भगवान्, धनवान् आदि।
तव्यत् प्रत्यय योग्यता और संभावना का द्योतक होता है। जैसे कर्तव्य, मन्तव्य, ज्ञातव्य, भोक्तव्य, भवितव्य और इच्छितव्य।
जैसे पशु स्थूल इन्द्रियों की प्रेरणाओं से प्रेरित होने पर उसी प्रेरणा के पाश में बँधे उस कार्य विशेष को करने में उस हेतु प्रवृत्त हो जाते हैं, किन्तु उस पाश (प्रकृति) से अनभिज्ञ होते हैं, उसी प्रकार से मनुष्य यद्यपि पशु की तुलना में कुछ अधिक सजग होता है, फिर भी मनुष्य भी पशु की ही तरह इच्छा और भय रूपी जिस पाश में बँधा होता है और प्रकृति से ही उस विषय में न केवल पूर्णतः अनभिज्ञ होता है, बल्कि विविध इच्छाओं और भयों के बीच विद्यमान अन्तर्विरोधों की तो उसे कल्पना तक नहीं होती। किसी इच्छा के औचित्य या अनौचित्य का प्रश्न ही किसके मन में उठता है? यह प्रश्न उसके मन में तब उठ सकता है जब वह नैतिकता और अनैतिकता के विचार के संदर्भ में इच्छा के औचित्य या अनौचित्य पर ध्यान दे पाता है। ठीक इसी प्रकार भयों के बारे में भी होता है। भय भी मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं - वास्तविक और काल्पनिक। शरीर की सुरक्षा / असुरक्षा का भान होते ही मनुष्य में जो भय उत्पन्न होता है वह वास्तविक भय होता है जबकि काल्पनिक ज्ञात या अज्ञात स्थिति के अनुमान से जो भय उत्पन्न होता है वह काल्पनिक होता है। इच्छा और भय मूलतः उद्वेग होते हैं जो वैसे तो स्मृति में सुप्त रहते हैं किन्तु समय समय पर अन्य उद्वेगों - जैसे क्रोध, घृणा, लालसा, अवसाद आदि के रूप में व्यक्त होते हैं। किसी वैचारिक मान्यता के दृढ़ हो जाने पर भी विभिन्न प्रकार के ये उद्वेग प्रकट होते हैं । उदाहरण के लिए पाप (अकर्तव्य / निषिद्ध कर्म को करने) का भय और पुण्य का प्रलोभन। प्रलोभन और भय भी एक ही मानसिक दशा के परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले दो पक्ष हैं।
अब कर्तव्य-अकर्तव्य और पाप-पुण्य के औचित्य और अनौचित्य को बेहतर समझ सकते हैं।
इच्छा और भय, दोनों ही हमें उस कार्य को करने के लिए प्रेरित करते हैं, जिससे हमें सुख या प्रसन्नता प्राप्त होने की आशा होती है। इसी प्रकार इच्छा और भय, दोनों ही हमें उस कार्य को किए जाने से बचने या उससे दूर रहने के लिए प्रेरित करते हैं जिसे किए जाने पर हमें कष्ट या दुःख प्राप्त होने की आशंका होती है।
किन्तु तात्कालिक आवश्यकताएँ, बाध्यताएँ, संभावित परिणाम जो हमें दृष्टिगत होते हैं हममें दुविधा उत्पन्न होने का कारण होते हैं। भावी की कल्पना और अनुमान हमें इतना अभिभूत करते हैं कि भवितव्य की अपरिहार्यता पर ध्यान देना हमारे लिए असंभवप्राय होता है। तब हम अपरिहार्यतः भावी को प्रारब्ध और भाग्य का नाम देकर उस संबंध में अपने ही भीतर या अपने जैसे दूसरे लोगों साथ विशद विचार विमर्श करने लगते हैं। भवितव्य वह होता है जिसका अनुमान उसके घटित हो जाने पर ही हो पाता है और तब उसे हम अतीत का नाम देकर स्मृति में स्थान देकर सत्य मान लेते हैं। प्रत्येक मनुष्य की अपनी स्मृति और उसमें संजो रखा गया उसका कल्पित अतीत और वैसा, उतना ही कल्पित एक व्यक्तिगत संसार होता है। इन तमाम इच्छाओं, भयों, कर्तव्य / अकर्तव्य, पाप और पुण्य, इच्छितव्य, भवितव्य, आवश्यकताओं और बाध्यताओं के मकड़जाल में फँसा व्यक्तिगत "मैं" कभी उससे बाहर नहीं निकल पाता और न कभी इसे समझ पाता है कि क्या इससे बाहर निकलने का कोई मार्ग या उपाय कहीं हो सकता है या नहीं! यही उसका मन्तव्य और प्रारब्ध होता है।
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