June 02, 2024

वह कौन?

Question / प्रश्न 76.

वह कौन?

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वैसे तो वह कोई सजीव सत्ता है जैसे कोई वृक्ष, जैसे कोई पशु, जैसे कोई पक्षी, जैसे कोई मनुष्य - बच्चा, कोई युवा, वृद्ध, जैसे कोई पुरुष या स्त्री, या जैसा कोई आदि-मानव। 

जब उसे भूख लगती है तो वह खाने के लिए भोजन की तलाश करता है, जब भोजन मिल जाता है तो जब तक भूख मिट नहीं जाती तब तक भोजन करता रहता है, या कहें तो खाने का कार्य करता है। फिर वह निरर्थक, यूँ ही यहाँ वहाँ घूमता भटकता रहता है।

प्यास लगने पर पानी पीता है। वह समाज या परिवार में रहता हुआ समय समय पर पैदा होनेवाली अपनी विभिन्न आवश्यकताओं को पूर्ण करने की स्थायी व्यवस्था करना सीख जाता है ताकि बार बार उसे भोजन और पानी की तलाश में यहाँ वहाँ भटकते न रहना पड़े। क्रमशः अपनी और अपने परिवार की, "समाज" की, "सभ्यता" की एक विशिष्ट एक शैली वह विकसित कर लेता है। जैसे पशु / पक्षी आदि अपना समाज निर्मित कर लेते हैं, उस तरह से वह भी अपना समाज निर्मित कर लेता है। अभी तक तो उसने "भाषा" का आविष्कार भी नहीं किया है, और वह भी दूसरे प्राणियों की ही तरह चित्त में समय समय पर और क्षण क्षण पर प्रकट और विलीन होती रहनेवाली विभिन्न भावनाओं के साथ साथ बहता हुआ, उनके अनुभवों को अपनी स्मृति में संजोता है। यह सारा  कार्य उसके किसी भी सचेतन, और स्वैच्छिक निश्चय से नहीं होता, बल्कि अनायास और अपने आप होनेवाला प्राकृतिक कार्य हुआ करता है। और यद्यपि अभी तक उसमें विभिन्न घटनाओं को समझने की बुद्धि उत्पन्न हो चुकी होती है और वह उनके स्वाभाविक पूर्व-पश्चात के क्रम में आधारभूत तथ्य के रूप में "समय" की पहचान भी कर चुका होता है, और उस पहचान से "समय" के विस्तार के छोटे और बड़े होने की तुलना भी कर सकता है, फिर भी अभी वह भाषा और शब्दों से अनभिज्ञ होता है। फिर किसी समय वह विभिन्न वस्तुओं, घटनाओं और ध्वनियों के बीच तारतम्य स्थापित करना भी सीख लेता है जो पुनः स्मृति में किसी प्रारूप में संजो ली जाती हैं।

और फिर किसी समय इसी प्रकार से चित्त में अनायास क्षण क्षण उठती और विलीन होती हुई भावनाओं और उनकी प्रतिक्रियाओं की एक विशिष्ट पहचान बना लेता है। इच्छा, भय, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, रोष, आकर्षण और विकर्षण, शत्रु, मित्र, सापेक्ष और निरपेक्ष वस्तुओं और  आवश्यकताओं आदि की भी पहचान इस तरह उसे हो जाती है।

जीवन जीने के लिए इतना ही पर्याप्त होता है।

किन्तु वस्तुओं, घटनाओं, भावनाओं और अनुभवों आदि से ध्वनियों को संबंधित करने के क्रम में अनैच्छिक रूप से ही सही, "भाषा" का निर्माण वह कर लिया करता है। परिवार, समाज आदि में भी उन ध्वनियों को शाब्दिक रूप में सीख और स्वीकार कर लिया जाता है।

और तब उसके पास वैचारिक मन नामक एक यंत्र आ जाता है जिसकी सहायता, प्रभाव और परिणाम से जब वह अकेला भी होता है तब भी कल्पना के अन्तर्गत वह स्मृति को पुनर्जीवित करने लगता है। तब वह "स्वयं" से "उस भाषा" में स्वप्न जैसी अवस्था में जागते हुए या सोते हुए बातें करने लगता है।

वह कौन?

वही, जो कि अभी तक शाब्दिक भाषा से अनभिज्ञ था।

अब से पहले भी उसका जीवन दो अवस्थाओं में बीतता रहता था - जब वह संसार में जागृत हुआ भूख प्यास को अनुभव करता हुआ उन्हें मिटाने की चेष्टा में संलग्न रहा करता था, और (शरीर के) थक जाने पर विश्राम करता या सो जाता था ।

जागने और सोने की इन दोनों गतिविधियों में शरीर तो यंत्रचालित ढंग से सतत ही अपना कार्य करता रहता था और सोने की स्थिति में 'मन' संभवतः स्वप्न जैसी किसी अवस्था में, -जागने के समय के अनुभवों का स्मरण या विस्मरण किया करता होगा।

इन विभिन्न अनुभवों में "स्वयं" की पहचान तो बहुत बाद में बनती होगी, जिसे और भी बाद में अपनी एक अमूर्त (abstract) पहचान बनाकर स्मृति में केन्द्रीय मौलिक  की तरह अंकित और टंकित कर लिया जाता होगा।

शरीर के सोने या जागने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि उसकी गतिविधियाँ दोनों ही समय स्वाभाविक रूप से कम या अधिक तीव्रता के साथ चलती रहती हैं।  यह तो "मन" ही होता है जिसमें "स्वयं" की वह अमूर्त कल्पना "मैं" की स्मृति बनकर अपना कृत्रिम अस्तित्व निर्मित कर लेती है।

जब "मैं" जागता हूँ उस समय तो किसी न किसी कार्य में व्यस्त होकर अपने आप को उसका "कर्ता" होने की धारणा से बद्ध कर लिया करता हूँ, किन्तु जब करने के लिए इस "मैं" के पास कोई कार्य नहीं होता, तो "वह"  व्याकुल हो उठता है, या तो वह निद्रा की शरण लेता है, या किसी काल्पनिक व्यस्ततता की । अपने लिए "वह" स्वयं ही असंख्य ध्येय कल्पित और  सृजित कर लेता है, उन्हें प्राप्त करने के यत्न में जी-जान से जुट जाता है।

"वह" अपने आपको समस्त सुख-दुःख का, चिन्ताओं, आशाओं, आशंकाओं, महत्वाकांक्षाओं के "भोक्ता" के रूप में भी कल्पित कर लेता है, उपलब्धियों का स्वामी और इस समस्त ज्ञान के संग्रह के "ज्ञाता" की तरह भी।

"वह" यह कभी नहीं देख पाता कि सो जाने पर इन सब असंख्य ध्येयों आदि का क्या होता है! वह अपने आपको सुधारना, निरन्तर और से और भी अधिक परिष्कृत और समृद्ध करते रहने की चेष्टा करता रहता है।

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