परिचय, संबंध और पारस्परिक व्यवहार
Perception, Relationship, and Mutual Interaction.
किसी भी व्यक्ति से पहली बार मिलने के बाद ही उसकी कोई प्रतिमा मन में बन जाती है, जो बाद में उसके साथ हुए अपने व्यवहार और अनुभवों से सतत स्थिर और दृढ हो जाती है। यह एक प्रभाव (influence / impact / impression) होता है। यह प्रतिमा जितनी ही अधिक सुनिश्चित और स्थिर होती है स्मृति में उतनी ही दृढ होने लगती है और प्रायः इसमें परिवर्तन नहीं हुआ करता है, किन्तु विभिन्न अवसरों पर विशेष कारणों से यह प्रतिमा अकस्मात् खंडित या ध्वस्त तक हो जाती है, या बहुत प्रभावशाली भी हो जाया करती है। संक्षेप में, यह प्रतिमा ही किसी व्यक्ति से हमारा परिचय कहलाता है। जब उस व्यक्ति से परिस्थिति या दूसरे किन्हीं कारणों से पुनः पुनः मिलना होता हो तो मन के स्तर पर एक जुड़ाव हो जाना स्वाभाविक ही है। यह जुड़ाव पुनः केवल औपचारिक हो सकता है या भावनात्मक रूप भी ले सकता है और उस व्यक्ति के विषय में मन में अनेक तरह के विचार पैदा हो सकते हैं। जाने अनजाने ही उस पर अधिकार की भावना भी जन्म ले लेती है और तब मन दुविधाग्रस्त होने लगता है। सामाजिक जीवन में नित्य ही अनेक लोगों से सामना होना स्वाभाविक ही है और उनके प्रति अनेक प्रकार की भावनाएँ भी मन में उठने लगती हैं। ऐसा सभी के साथ होता है। स्मृति में वे सभी लोग इन विभिन्न प्रतिमाओं के माध्यम से स्वयं से जुड़े होते हैं। अगर इतना ही होता तो भी ठीक था, किन्तु मन न केवल व्यक्तियों की प्रतिमाएँ निर्मित कर लेता है, बल्कि उन प्रतिमाओं को वर्गीकृत भी कर लेता है। व्यावहारिक स्तर पर यह भी स्वाभाविक ही है। जैसे कि कोई व्यक्ति शिक्षक, श्रमिक, अधिकारी, चिकित्सक या किसी दफ्तर में कर्मचारी हो सकता है। पढ़ा-लिखा या अनपढ़, गरीब या पैसेवाला, बच्चा, युवा, प्रौढ़, वृद्ध, स्त्री या पुरुष आदि, और तदनुसार उसकी प्रतिमा बन जाती है। शायद ही कभी इन सभी प्रकार के व्यक्तियों से हमारा सामना होता है। केवल एक सीमित दायरा होता है जिसमें हम प्रायः इने-गिने इतने ही लोगों से इस प्रकार से मिलते हैं, जिनसे किसी प्रकार का कोई भावनात्मक संबंध स्थिर रूप ले सके। हाँ, और भी कुछ विशेष पब्लिक पर्सन्स भी होते हैं जैसे फिल्म, टीवी के कलाकार, राजनीतिक या अन्य ख्यातिप्राप्त लोग जिनके प्रति हम कम या अधिक आकर्षित (या विकर्षित भी!) होते हैं, जिन्हें हम बहुत पसन्द करते हैं, या जिनके प्रति हमारे मन में आदर, सम्मान, प्रशंसा या निन्दा की भावना हो सकती है।
हमारा सामाजिक जीवन प्रायः अनेक भिन्न भिन्न नैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक मूल्यों द्वारा नियंत्रित, मर्यादित और तय होता है। इन सबका सम्मिलित प्रभाव और दबाव हम सभी पर हमेशा ही होता है। किसी भी समाज में जितने ही अधिक विविध सांस्कृतिक, नैतिक और पारंपरिक मूल्य होंगे वह उतना ही जटिल अवश्य ही होगा। सबके बीच संतुलन और सामञ्जस्य हो पाना भी इसीलिए उतना ही मुश्किल होगा। हमारे समय का यह एक विशिष्ट संकट है, जिसमें हम सभी के लिए जीवन दिन प्रतिदिन और भी, और भी अधिक चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। क्या व्यक्तिगत जीवन को सामाजिक जीवन से अलग किया जा सकता है? समाज और राष्ट्र, विश्व में इस चुनौती का सामना किस प्रकार किया जा सकता है? शायद इसका उत्तर खोजने के लिए पहले इस चुनौती का सामना हमें करना होगा कि क्या हर मनुष्य ही भौतिकता की आज की इस अंधी दौड़ में और भी, और भी अधिक असुरक्षित, आशंकित, व्याकुल, व्यग्र और भयभीत नहीं होता जा रहा है? हर मनुष्य और अधिक, और भी अधिक सफल होना चाहता है, प्रत्येक ही इस स्पर्धा में और भी अधिक स्वकेंद्रित होता जा रहा है। यह अलग बात है कि अपने "स्व" को वह कितना सीमित या विस्तीर्ण करता है। हो सकता है वह किसी समुदाय, राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित होकर उस लक्ष्य से ही, उस लक्ष्य तक ही "स्व" को सीमित रखता हो। यह स्व-सीमितता, स्व-संकीर्णता यद्यपि किसी "आदर्श" को समर्पित हो सकती है और दुर्भाग्य से ऐसे सभी भिन्न भिन्न "आदर्श" एक दूसरे से नितान्त विपरीत और विरोध में भी हो सकते हैं। वे कट्टरता की हद तक क्रूर और निष्ठुर हो सकते हैं, और उन लक्ष्यों के लिए "आत्मोत्सर्ग" कर देने को महिमामंडित भी किया जाने लगता है। एक अति से दूसरी अति तक परस्पर शत्रुतापूर्ण ऐसे "आदर्श" कब तक हमें गौरवान्वित होने के लिए प्रेरणा देते रहेंगे?
इन सबके कारण क्या हम सभी मूलतः और भी, और भी अधिक असंवेदनशील नहीं होते जा रहे हैं! क्या हम सभी और अधिक लोभ और संशय से ग्रस्त, और भी भयभीत, आशंकित, नहीं होते जा रहे हैं? क्या परस्पर अविश्वास और भी, और भी अधिक बढ़ता ही नहीं जा रहा है?
तो इसलिए मूल प्रश्न यह नहीं है कि हम संवेदनशील कैसे हों? मूल प्रश्न यह है कि हम असंवेदनशील क्यों हैं? हमने क्या कभी इस प्रश्न पर ध्यान दिया है, या केवल और भी नए नए प्रलोभनों, भयों से, नई नई उत्तेजनाओं से रोमांचित होकर, असंभव कल्पनाओं से मुग्ध होने में, मनोरंजन में सुख अनुभव करते हुए और भी अधिक असंवेदनशील, क्रूर और निष्ठुर होते चले जा रहे हैं!
"मनोरंजन" आज के युग का सर्वाधिक शक्तिशाली माध्यम / व्यवसाय / शस्त्र है, जिससे हमारी स्वाभाविक संवेदनशीलता कुंठित और भोंथरी होती जा रही है किन्तु तात्कालिक रोमांच और मुग्धता हमें बहुत आसानी से इसलिए अपना शिकार बना लेते हैं, क्योंकि वहाँ हमें क्षणिक और भी गहरा सुख मिलता हुआ प्रतीत होता है। वह क्षण / समय कैसे और भी, और भी अधिक दीर्घ किया जा सके, इस चेष्टा में हम निरन्तर संलग्न रहते हैं। कामोत्तेजना की कमी और उसे बढ़ाने के लिए अनेक द्रव्यों aphrodisiac drugs आदि के विज्ञापन किस बात को इंगित करते हैं?मनुष्य की सामूहिक चेतना तात्कालिक "सुख-बोध" से क्या इतनी अधिक मोहित है कि उसे इस महानिद्रा से कोई नहीं जगा सकता?
तो फिर हमारा क्या भविष्य हो सकता है?
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