June 28, 2024

80. आभास-निराभास

Question प्रश्न  80.

Love, Destiny Or Fate? 

प्रेम, प्रारब्ध या नियति ?

उत्तर :

कहते हैं शनि पूरे राशिचक्र को पार करने के लिए करीब 29 वर्ष का समय लेते हैं। शनि सूर्य (आदित्य) के पुत्र हैं। वैदिक ज्ञान के अनुसार सूर्य की दो पत्नियाँ हैं, पहली है : भगवान् विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा। 

संज्ञा का अर्थ है : चेतना।

संज्ञा से भगवान् सूर्य (विवस्वान्) के पुत्र यम, अश्विनौ तथा पुत्री यमुना हुए। जब संज्ञा (निराभास ज्ञान, वैश्विक चेतना) सूर्य के प्रचंड उत्ताप से व्याकुल हो उठी तो उसने अपनी एक सापेक्ष स्थूल और साभास प्रतिमा का सृजन किया जो अक्षरशः संज्ञा की ही प्रतिलिपि थी और उससे इतना अधिक सारूप्य रखती थी कि भगवान् सूर्य, यम और यमुना भी उसे संज्ञा ही समझ बैठे। संज्ञा ने छाया से उसके सृजन का प्रयोजन कहा और बोली : बहन! तुम भगवान् सूर्यदेव और बच्चों का ध्यान रखना, मैं उनके असहनीय ओर प्रचंड उत्ताप से व्याकुल होने के कारण पिता के घर जा रही हूँ। और यह रहस्य किसी को मत स्पष्ट करना कि तुम संज्ञा नहीं छाया हो।

"और जब मेरे प्राणों पर संकट ही आ जाए तो?"

छाया ने प्रश्न किया। 

"हाँ, तब तुम अवश्य इसके लिए स्वतंत्र हो।"

जब संज्ञा पिता के घर पहुँची तो पिता ने उससे पूछा - तुम अकेली ही कैसे चली आई! भगवान् सूर्य कहाँ हैं?  तब संज्ञा ने उनसे इसका कारण कह दिया। पिता बोले :

"बेटी! स्त्री तो पति के ही घर रह सकती है, तुम लौटकर वहीं जाओ।"

तब संज्ञा वहाँ से तो चली गई किन्तु पति के घर न जाकर उस घोर वन में  (मनो नाम महाव्याघ्राः यत्र वसन्ति) जहाँ रहते हैं, जहाँ विवेकशील पुरुष नहीं जाते, वहाँ चली गई और अश्विनी (घोड़ी) का रूप धारण कर चरती रही। 

इधर छाया से भगवान् सूर्य को तीन संतानें शनि, सावर्णि मनु और तापी नदी के रूप में प्राप्त हुई। 

संज्ञा निराभास शुद्ध चेतना है जबकि छाया भौतिक और इन्द्रिय मनोबुद्धिगम्य चेतना है।

जैसे प्रकाश और छाया सदैव साथ साथ रहते हैं, वैसे ही मनुष्य आदि जीवों में शुद्ध ज्ञान / निराभास चेतना और साभा / अशुद्ध / मलिन चेतना साथ साथ रहती है। प्रथम निराभास के प्रकाश से ही साभास की सृष्टि होती है।

किसी दिन भगवान् यम और यमुना का ध्यान इस ओर गया कि छाया (जिसे वे अब तक संज्ञा ही समझा करते थे), शनि, सावर्णि मनु और तापी से तो लाड़-प्यार करती है लेकिन यम और यमुना की उपेक्षा करती है। यम तो ठहर क्रोधी, उन्होंने पाया पर लात से प्रहार कर दिया। तब छाया ने उन्हें शाप दिया। तब यम पिता के पास जा पहुँचे और उनसे पूरा वृत्तान्त कहा।

भगवान् सूर्य ने छाया से पूछा तो उसने प्राणों पर संकट आया देखकर उनसे सब कुछ सत्य सत्य कह दिया। तब भगवान् सूर्य संज्ञा की खोज में चल पड़े। पहले वे उसके पिता के घर गए तो उन्हें ज्ञात हुआ कि संज्ञा कहीं और चली गई है। तब उन्होंने उसकी खोज सहस्त्र नेत्रों अर्थात् अपनी किरणों के माध्यम से की और उन्हें स्पष्ट हो गया कि संज्ञा कहाँ है और क्या कर रही है। तो उन्होंने उस घोर वन में प्रवेश किया जहाँ संज्ञा अश्विनी के रूप में चर रही थी। यह एक रोचक तथ्य है कि अश्विनी ही राशिचक्र का प्रथम नक्षत्र है। तब भगवान् सूर्य ने अश्व का रूप ले लिया और वे भी उस घोर वन में अश्विनी रूपी संज्ञा के साथ भ्रमण करने लगे। वहीं उनसे अश्विनौ  equinox  की उत्पत्ति हुई।

इस प्रकार यह कथा न केवल ज्योतिषीय, जागतिक सत्य का, बल्कि आध्यात्मिक सत्य का उद्घाटन करती है।

वास्तव में आत्मानुसंधान इसी प्रकार से किया जाता है। 

शनि के राशिचक्र में एक परिभ्रमण करने में अर्थात् 29 वर्ष पूर्ण हो जाने पर किसी भी मनुष्य के जीवन का एक कालखण्ड पूर्ण हो जाता है किन्तु वह प्रारम्भ कैसे और कब होता है यह जानने के लिए अपने जीवन में 29 वर्ष के अन्तराल की बाद घटित होनेवाली घटनाओं पर दृष्टि डालना सहायक हो सकता है।

इसी प्रेरणा से मैंने जब अपने जीवन में घटित घटनाओं के क्रम का अवलोकन किया तो अनुभव किया कि आज 29 वर्षों बाद मैं पुनः उस स्थान पर लौट आया हूँ, जहाँ से उस समय चला था।

वही पुराने परिचित लोग फिर मुझसे मिले लेकिन उनमें से बहुत से लोग जो मुझसे छोटे या बड़े थे आज संसार से विदा हो चुके हैं। कुछ लोग पुनः मिले और उन्हें मुझसे पुनः मिलने में आश्चर्य और खुशी भी हुई। इस बीच हम सभी बहुत कुछ बदल चुके हैं यह भी हमें महसूस हुआ। 

जब वे 29 वर्ष पहले मुझसे मिले थे तो हम लोग विभिन्न विषयों पर आपस में चर्चा किया करते थे जो कभी कभी विवाद, रोष और वैमनस्य का रूप ले लेता था। यद्यपि मैं वहाँ से आगे बढ़ गया किन्तु किन्हीं कारणों से वे अभी इतने मुझ जैसे परिपक्व नहीं हो पाए थे।

मिलते ही बोल पड़े :

"लगता है आप कुछ खास हो गए हैं। हम तो प्रेमवश ही आपसे मिलने आए हैं! लेकिन लगता है आप हमसे बहुत दूर चले गए हैं!"

"देखिए, प्रेम व्रेम क्या होता है मुझे नहीं मालूम। लेकिन लगता है प्रेम, शत्रुता, मित्रता, परिचय, अपरिचय आदि अपनी जगह हैं और मिलने, न मिलने आदि का एकमात्र कारण प्रारब्ध / नियति भी अपनी जगह है।

क्या अघटितघटपटीयसी यही नहीं है? कारण कार्य और उनका क्रम, इस सबके बीच यद्यपि अगणित सिद्धान्तों का अनुमान किया जा सकता है, और संभवतः उनमें से अनेक को शुद्ध भौतिक विज्ञान सम्मत भी सिद्ध किया जा सकता है। इस बारे में आपको क्या लगता है?"

वे चुप हो गए। उन्हें यह भी स्पष्ट हो गया कि अब हमारे बीच बातचीत करने के लिए कोई विषय भी शेष नहीं रह गया है।

"विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिने।।

रसोऽपि रसवर्जं तं परं दृष्ट्वा निवर्तते।।"

वे बोल पड़े।

अब भी कभी कभी रास्ते पर उनसे मुलाकात होती रहती है। वे बस मुस्कुराते भर हैं। और मैं भी उनकी मुस्कुराहट का प्रत्युत्तर इसी प्रकार से दे दिया करता हूँ।

29 वर्षों से जो फाँस उन्हें त्रस्त कर रही थी अब वह दूर हो चुकी है लेकिन यह भी इतना ही सच है कि अब हमारे बीच बातचीत का कोई विषय भी नहीं है।

शनिदेव अब भी अपनी कक्षा में मार्गी या वक्री गति से परिभ्रमण कर रहे हैं।

शायद यह उनका प्रारब्ध / नियति हो! 

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