Question / प्रश्न 82
What is Peaceful Co-existence?
- A Myth, Ideal or an Illusion?
शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व क्या है?
- कल्पना, आदर्श या भ्रान्ति?
Answer / उत्तर :
शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व - न तो कल्पना, आदर्श या कोई भ्रान्ति बल्कि केवल एक कुत्सित राजनीतिक छल है, जिसके माध्यम से शक्तिशाली समुदाय के द्वारा निर्बल समुदाय का शोषण और उत्पीड़न किया जाता है। और इसके माध्यम से अंततः वे दोनों ही विनष्ट हो जाते हैं।
शान्तिपूर्ण या किसी भी प्रकार का सह-अस्तित्व दो या दो से अधिक प्रकार की भिन्न भिन्न सत्ताओं के परस्पर साथ होने की स्थिति का नाम है। स्पष्ट है कि ऐसी किसी भी स्थिति में उन दोनों या दो से अधिक सत्ताओं के बीच पारस्परिक क्रिया और प्रतिक्रिया होना अवश्यम्भावी है। परिस्थितियों के अनुसार उनमें सामञ्जस्य और तालमेल हो पाना हमेशा संभव नहीं है।
ऐसी स्थिति में उनके बीच पारस्परिक संबंधों के तीन क्षेत्र स्थापित हो जाते हैं :
पहला है युद्ध क्षेत्र - War-Zone,
दूसरा है शान्ति क्षेत्र - Peaceful-Zone,
तीसरा संतुलित सुविधायुक्त क्षेत्र - Comfort-Zone.
सत्ताओं का शक्ति-संतुलन ही इन तीनों को परिभाषित करता है। सत्ताएँ तात्कालिक या दीर्घकालिक हितों को ध्यान में रखकर धार्मिक, तथाकथित नैतिक या आदर्श मूल्यों और सिद्धान्तों के आकलन के आधार पर अपनी क्षमताओं के अनुसार कार्य करने के लिए प्रेरित या बाध्य होती हैं। "धर्म और अधर्म क्या है?" इस पर ध्यान तक न देते हुए केवल भिन्न भिन्न प्रकार की परस्पर विवादपूर्ण मान्यताओं और विश्वासों को उनकी परीक्षा किए बिना ही तात्कालिक लोभ और भय के दबाव में स्वीकार कर लेना ही अधर्म है। लोभ और भय, अज्ञान, त्रुटिपूर्ण और विसंगत मान्यताएँ प्रमाद (In-attention) से ही पैदा होते हैं। इसलिए अनेक प्रकार की मान्यताएँ रखनेवाले परस्पर शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व के साथ रह सकेंगे, ऐसी कामना, कल्पना तक कर लेना भी अंतहीन क्लेश और कष्टों को निमंत्रित करने जैसा है।
जब इस वास्तविकता को देख और समझ लिया जाता है तब किसी दूसरे (मनुष्य या चेतन या जड प्रकृति आदि) के प्रति न तो कोई विशेष लगाव और न ही कोई विद्वेष ही रह जाता है। केवल इस शान्तिपूर्ण स्थिति में ही यह सह-अस्तित्व संभव होता है। विडम्बना यही है कि शायद ही कोई भी मनुष्य अपने आप तक के साथ शान्तिपूर्वक रह पाता हो। वह अपने नितान्त अकेलेपन के सत्य को न तो स्वीकार कर पाता है, न उसे देखना ही चाहता है। वह अपने आप के साथ भी शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व में नहीं रह पाता है। किसी दूसरे से जुड़ने के लिए भी उसे किसी माध्यम की जरूरत महसूस होती है, और उसकी तलाश होती है। फिर वह माध्यम कोई तथाकथित धर्म, विचार, सिद्धान्त, आदर्श या साहित्य, संगीत, कला, सामाजिक या राष्ट्र के प्रति कर्तव्य और प्रेम जैसा ही कोई संकल्प या भावना या फिर आध्यात्मिकता ही क्यों न हो। अपने इस नितान्त अकेलेपन के डर से ही भयभीत होकर वह किसी निकृष्टतम वस्तु के आश्रय में भी सुरक्षित अनुभव करने लगता है। किन्तु यदि केवल एक बार भी वह अपने अकेलेपन / एकान्त के इस यथार्थ सत्य पर दृष्टिपात कर लेता है तो अकेलेपन / एकान्त के अगाध सौन्दर्य से सदा सदा के लिए अभिभूत हो सकता है। किन्तु अपने अकेले होने का काल्पनिक भय ही उसे ऐसा करने से रोक देता है। और वह युद्ध क्षेत्र, शान्ति क्षेत्र और सुविधा क्षेत्र में निरन्तर यहाँ से वहाँ भटकता रहता है।
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