June 30, 2024

82 Peaceful Co-existence

Question / प्रश्न 82

What is Peaceful Co-existence? 

- A Myth, Ideal or an Illusion? 

शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व क्या है?

- कल्पना, आदर्श या भ्रान्ति?

Answer  / उत्तर : 

शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व  - न तो कल्पना, आदर्श या कोई भ्रान्ति बल्कि केवल एक कुत्सित राजनीतिक छल है, जिसके माध्यम से शक्तिशाली समुदाय के द्वारा निर्बल समुदाय का शोषण और उत्पीड़न किया जाता है। और इसके माध्यम से अंततः वे दोनों ही विनष्ट हो जाते हैं। 

शान्तिपूर्ण या किसी भी प्रकार का सह-अस्तित्व दो या दो से अधिक प्रकार की भिन्न भिन्न सत्ताओं के परस्पर साथ होने की स्थिति का नाम है। स्पष्ट है कि ऐसी किसी भी स्थिति में उन दोनों या दो से अधिक सत्ताओं के बीच पारस्परिक क्रिया और प्रतिक्रिया होना अवश्यम्भावी है। परिस्थितियों के अनुसार उनमें सामञ्जस्य और तालमेल हो पाना हमेशा संभव नहीं है।

ऐसी स्थिति में उनके बीच पारस्परिक संबंधों के तीन क्षेत्र स्थापित हो जाते हैं :

पहला है युद्ध क्षेत्र - War-Zone, 

दूसरा है शान्ति क्षेत्र - Peaceful-Zone, 

तीसरा संतुलित सुविधायुक्त क्षेत्र - Comfort-Zone.

सत्ताओं का शक्ति-संतुलन ही इन तीनों को परिभाषित करता है। सत्ताएँ तात्कालिक या दीर्घकालिक हितों को ध्यान में रखकर धार्मिक, तथाकथित नैतिक या आदर्श मूल्यों और सिद्धान्तों के आकलन के आधार पर अपनी क्षमताओं के अनुसार कार्य करने के लिए प्रेरित या बाध्य होती हैं। "धर्म और अधर्म क्या है?" इस पर ध्यान तक न देते हुए केवल भिन्न भिन्न प्रकार की परस्पर विवादपूर्ण  मान्यताओं और विश्वासों को उनकी परीक्षा किए बिना ही तात्कालिक लोभ और भय के दबाव में स्वीकार कर लेना ही अधर्म है। लोभ और भय, अज्ञान, त्रुटिपूर्ण और विसंगत मान्यताएँ प्रमाद (In-attention) से ही पैदा होते हैं। इसलिए अनेक प्रकार की मान्यताएँ रखनेवाले परस्पर शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व के साथ रह सकेंगे, ऐसी कामना, कल्पना तक कर लेना भी अंतहीन क्लेश और कष्टों को निमंत्रित करने जैसा है।

जब इस वास्तविकता को देख और समझ लिया जाता है तब किसी दूसरे (मनुष्य या चेतन या जड प्रकृति आदि) के प्रति न तो कोई विशेष लगाव और न ही कोई विद्वेष ही रह जाता है। केवल इस शान्तिपूर्ण स्थिति में ही यह सह-अस्तित्व संभव होता है। विडम्बना यही है कि शायद ही कोई भी मनुष्य अपने आप तक के साथ शान्तिपूर्वक रह पाता हो। वह अपने नितान्त अकेलेपन के सत्य को न तो स्वीकार कर पाता है, न उसे देखना ही चाहता है। वह अपने आप के साथ भी शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व में नहीं रह पाता है। किसी दूसरे से जुड़ने के लिए भी उसे किसी माध्यम की जरूरत महसूस होती है, और उसकी तलाश होती है। फिर वह माध्यम कोई तथाकथित धर्म, विचार, सिद्धान्त, आदर्श या साहित्य, संगीत, कला, सामाजिक या राष्ट्र के प्रति कर्तव्य और प्रेम जैसा ही कोई संकल्प या भावना या फिर आध्यात्मिकता ही क्यों न हो। अपने इस नितान्त अकेलेपन के डर से ही भयभीत होकर वह किसी निकृष्टतम वस्तु के आश्रय में भी सुरक्षित अनुभव करने लगता है। किन्तु यदि केवल एक बार भी वह अपने अकेलेपन / एकान्त के इस यथार्थ सत्य पर दृष्टिपात कर लेता है तो अकेलेपन / एकान्त के अगाध सौन्दर्य से सदा सदा के लिए अभिभूत हो सकता है। किन्तु अपने अकेले होने का काल्पनिक भय ही उसे ऐसा करने से रोक देता है। और वह युद्ध क्षेत्र, शान्ति क्षेत्र और सुविधा क्षेत्र में निरन्तर यहाँ से वहाँ भटकता रहता है।

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June 29, 2024

81. Merits-Demerits

Question प्रश्न 81.

पुण्य और पाप

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किसी भी मनुष्य के द्वारा जाने या अनजाने किया जानेवाला पुण्य अथवा पाप अर्थात् वह कार्य, कर्म या कृत्य, जिससे अंततः उसे वह गति प्राप्त होती है जिसके परिणाम से उसकी आत्मा को चिर शान्ति, या अशान्ति मिल सकती हो? और जिस स्थिति को किसी अप्रत्यक्ष और अप्रकट भविष्य में नहीं, अभी ही साक्षात् जाना जा सकता हो?

Answer उत्तर :

यह तो स्पष्ट ही है कि कोई भी सांसारिक उपलब्धि न तो स्थायी हो सकती है, न सतत सुख या प्रसन्नता का कारण हो सकती है। और केवल प्रमाद (In-attention) के ही कारण मनुष्य इस सरल से सत्य को देखने से वंचित रह जाता है। जाने अनजाने में किया जानेवाला या घटित होनेवाला यह प्रमाद ही एकमात्र पाप है । क्योंकि प्रमाद से ग्रस्त व्यक्ति ही इच्छा और लोभ तथा द्वेष और भय से क्रमशः आकर्षित और विकर्षित होता है और अपने लिए दुःख उत्पन्न करता है। यह प्रमाद मूलतः मोहित बुद्धि का परिणाम होता है और मनुष्य-मात्र ही जन्म लेते ही इससे अभिभूत हो जाता है :

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।। 

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ७

दूसरी ओर मनुष्य की इस सम्मोह से युक्त बुद्धि में ही सांसारिक विषय-ज्ञान या आध्यात्मिक आत्म-ज्ञान का या दोनों ही का अभाव हो सकता है। ऐसे पुरुष को ही अज्ञ कहा जाता है। इससे भिन्न ऐसा भी कोई मनुष्य हो सकता है जिसे इस प्रकार का लौकिक या आध्यात्मिक ज्ञान दिए जाने पर वह या तो इसे सुन और समझ तक नहीं पाता या उसे इस पर अविश्वास अथवा संशय होता है। जैसे ईश्वर विषयक ज्ञान के सबंध में नास्तिक के साथ प्रायः होता है। क्योंकि प्रथमतः तो वह ईश्वर को मन की एक कल्पना ही मानता है। इसी प्रकार ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करनेवाला भी ईश्वर के स्वरूप से अनभिज्ञ होते हुए केवल उसकी एक मानसिक प्रतिमा बना लिया करता है और इस प्रकार ईश्वर के संबंध में उसकी कोई कल्पना एक बहुत दृढ धारणा और आग्रह ही होती है न कि ईश्वर का अनुभूतिपरक ज्ञान। उसकी श्रद्धा ईश्वर पर नहीं बस ईश्वर के बारे में उसकी अपनी धारणा पर होती है। तीसरे प्रकार के मनुष्य में ईश्वर के बारे में कौतूहल या संशय होता है। यद्यपि इन तीनों ही प्रकार के मनुष्यों में अपने स्वयं के अस्तित्व के विषय में न तो अनभिज्ञता, न अश्रद्धा और न ही संशय होता और हो सकता है। 

आशय यह कि अपने स्वयं (जिसे संस्कृत में आत्मा कहा जाता है) के विषय में न तो कोई अज्ञ होता है, न ही वह  अश्रद्धायुक्त अथवा संशयग्रस्त होता है।

कोई भी अपनी आत्मा से अज्ञ, अनभिज्ञ, अश्रद्धायुक्त और संशयग्रस्त नहीं होता किन्तु उसका अपनी आत्मा से यह परिचय मिश्रित ज्ञान का रूप ले लिया करता है।

सांसारिक और लौकिक उपलब्धियों के प्रति आकर्षित कोई भी मनुष्य केवल इस प्रमाद (In-attention) के ही कारण निरन्तर पापरत और पुण्य से विरत होता है।

दूसरी ओर प्रमादरहित मनुष्य का ध्यान सांसारिक सुखों, वस्तुओं और अनुभवों आदि की क्षणिकता की ओर जाने पर उसमें जागरूकता (Watchfulness) उत्पन्न होती है। जैसे जैसे वह इस पर और अधिक ध्यान देने लगता है, उसमें अनायास एक दिव्य प्रेरणा आकर्षित करती है और यही आध्यात्मिकता का प्रारंभ होता है। यह प्रेरणा चिन्तन का रूप ले लेती है - एक ऐसे चिन्तन का रूप जो कोई मानसिक गतिविधि नहीं बल्कि आत्मानुसंधान का ही पर्याय होता है। इसे शब्द या नाम दिया जाना गौण है। किन्तु तब उसे एक सूत्र मिल जाता है,  और एक डोर, जिससे बँधा हुआ वह अपने ही भीतर और भी अधिक गहरे उतर जाता है। जैसे कोई गोताखोर गहरे जल में कुछ खोजने के लिए उतरता है और नेत्र, मुख, कान और नासा-छिद्र भी बन्द कर लेता है और केवल अपने हाथों और पैरों से जल के भीतर गहराई में खोई किसी वस्तु को टटोलता हुआ उसे प्राप्त कर लेता है।

कूपे यथा गाढजले तथान्तः 

निमज्ज्य बुद्ध्या शितया नितान्तम्।। 

प्राणं च वाचं च नियम्य चिन्वन्

विन्देन्निजाहंकृतिरूपमूलम्।।३०।। 

(सद्दर्शनम् महर्षिश्रीरमणकृतम्)

इस प्रकार प्रमाद वह ही एकमात्र पाप है जिसमें मनुष्य जन्म लेता है। इस प्रमाद (In-attention) पर ध्यान जाते ही यही प्रमाद (In-attention) जागरूकता का रूप ग्रहण कर लेता है । वही ऊर्जा अर्थात् जड प्रकृति जो यान्त्रिक प्रक्रिया के रूप में कार्यशील थी, सचेतन हो जाती है यद्यपि और इसीलिए उसका जड अहंकार "मैं'  पिघलकर चैतन्य प्रकाश में बदलने लगता है। और तब भौतिक और मनोपरक जागरूकता (mindfulness) ध्यानपूर्ण सचेतनता (watchfulness) का रूप ग्रहण कर लेती है। जब वह इसमें और अधिक डूबता है तब इस अवधान, ध्यानपूर्वक सचेतनता (watchfulness) में स्थित "मैं" तब पिघलकर साक्षित्व (witnessing) में रूपान्तरित हो जाता है। ऐसा रूपान्तरण जो पदार्थ (matter) का चेतना (consciousness) में होता है। साक्षित्व (witnessing) ही समृद्ध, परिपक्व, परिपूर्ण होकर परम चैतन्य (Awareness) की तरह अभेद एकमेवोऽद्वितीयः की तरह जान लिए जाने पर ज्ञाता और ज्ञेय विलीन हो जाते हैं और तब विशुद्ध ज्ञान ही शेष रह जाता है।


प्रमाद (In-attention) के रहने तक अभ्यास करते रहना ही एकमात्र विकल्प है।

अनवधानता (In-attention) ही एकमात्र पाप है।

अवधान (Attention) ही एकमात्र पुण्य है।

जीवन में सुख दुःख आते जाते रहते हैं और उनके लिए चिन्तित होते रहना व्यर्थ है, जबकि जागरूकता, ध्यान, अवधान, साक्षित्व और चैतन्य जीवन का चरमोत्कर्ष है।

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अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।। 

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।

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June 28, 2024

80. आभास-निराभास

Question प्रश्न  80.

Love, Destiny Or Fate? 

प्रेम, प्रारब्ध या नियति ?

उत्तर :

कहते हैं शनि पूरे राशिचक्र को पार करने के लिए करीब 29 वर्ष का समय लेते हैं। शनि सूर्य (आदित्य) के पुत्र हैं। वैदिक ज्ञान के अनुसार सूर्य की दो पत्नियाँ हैं, पहली है : भगवान् विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा। 

संज्ञा का अर्थ है : चेतना।

संज्ञा से भगवान् सूर्य (विवस्वान्) के पुत्र यम, अश्विनौ तथा पुत्री यमुना हुए। जब संज्ञा (निराभास ज्ञान, वैश्विक चेतना) सूर्य के प्रचंड उत्ताप से व्याकुल हो उठी तो उसने अपनी एक सापेक्ष स्थूल और साभास प्रतिमा का सृजन किया जो अक्षरशः संज्ञा की ही प्रतिलिपि थी और उससे इतना अधिक सारूप्य रखती थी कि भगवान् सूर्य, यम और यमुना भी उसे संज्ञा ही समझ बैठे। संज्ञा ने छाया से उसके सृजन का प्रयोजन कहा और बोली : बहन! तुम भगवान् सूर्यदेव और बच्चों का ध्यान रखना, मैं उनके असहनीय ओर प्रचंड उत्ताप से व्याकुल होने के कारण पिता के घर जा रही हूँ। और यह रहस्य किसी को मत स्पष्ट करना कि तुम संज्ञा नहीं छाया हो।

"और जब मेरे प्राणों पर संकट ही आ जाए तो?"

छाया ने प्रश्न किया। 

"हाँ, तब तुम अवश्य इसके लिए स्वतंत्र हो।"

जब संज्ञा पिता के घर पहुँची तो पिता ने उससे पूछा - तुम अकेली ही कैसे चली आई! भगवान् सूर्य कहाँ हैं?  तब संज्ञा ने उनसे इसका कारण कह दिया। पिता बोले :

"बेटी! स्त्री तो पति के ही घर रह सकती है, तुम लौटकर वहीं जाओ।"

तब संज्ञा वहाँ से तो चली गई किन्तु पति के घर न जाकर उस घोर वन में  (मनो नाम महाव्याघ्राः यत्र वसन्ति) जहाँ रहते हैं, जहाँ विवेकशील पुरुष नहीं जाते, वहाँ चली गई और अश्विनी (घोड़ी) का रूप धारण कर चरती रही। 

इधर छाया से भगवान् सूर्य को तीन संतानें शनि, सावर्णि मनु और तापी नदी के रूप में प्राप्त हुई। 

संज्ञा निराभास शुद्ध चेतना है जबकि छाया भौतिक और इन्द्रिय मनोबुद्धिगम्य चेतना है।

जैसे प्रकाश और छाया सदैव साथ साथ रहते हैं, वैसे ही मनुष्य आदि जीवों में शुद्ध ज्ञान / निराभास चेतना और साभा / अशुद्ध / मलिन चेतना साथ साथ रहती है। प्रथम निराभास के प्रकाश से ही साभास की सृष्टि होती है।

किसी दिन भगवान् यम और यमुना का ध्यान इस ओर गया कि छाया (जिसे वे अब तक संज्ञा ही समझा करते थे), शनि, सावर्णि मनु और तापी से तो लाड़-प्यार करती है लेकिन यम और यमुना की उपेक्षा करती है। यम तो ठहर क्रोधी, उन्होंने पाया पर लात से प्रहार कर दिया। तब छाया ने उन्हें शाप दिया। तब यम पिता के पास जा पहुँचे और उनसे पूरा वृत्तान्त कहा।

भगवान् सूर्य ने छाया से पूछा तो उसने प्राणों पर संकट आया देखकर उनसे सब कुछ सत्य सत्य कह दिया। तब भगवान् सूर्य संज्ञा की खोज में चल पड़े। पहले वे उसके पिता के घर गए तो उन्हें ज्ञात हुआ कि संज्ञा कहीं और चली गई है। तब उन्होंने उसकी खोज सहस्त्र नेत्रों अर्थात् अपनी किरणों के माध्यम से की और उन्हें स्पष्ट हो गया कि संज्ञा कहाँ है और क्या कर रही है। तो उन्होंने उस घोर वन में प्रवेश किया जहाँ संज्ञा अश्विनी के रूप में चर रही थी। यह एक रोचक तथ्य है कि अश्विनी ही राशिचक्र का प्रथम नक्षत्र है। तब भगवान् सूर्य ने अश्व का रूप ले लिया और वे भी उस घोर वन में अश्विनी रूपी संज्ञा के साथ भ्रमण करने लगे। वहीं उनसे अश्विनौ  equinox  की उत्पत्ति हुई।

इस प्रकार यह कथा न केवल ज्योतिषीय, जागतिक सत्य का, बल्कि आध्यात्मिक सत्य का उद्घाटन करती है।

वास्तव में आत्मानुसंधान इसी प्रकार से किया जाता है। 

शनि के राशिचक्र में एक परिभ्रमण करने में अर्थात् 29 वर्ष पूर्ण हो जाने पर किसी भी मनुष्य के जीवन का एक कालखण्ड पूर्ण हो जाता है किन्तु वह प्रारम्भ कैसे और कब होता है यह जानने के लिए अपने जीवन में 29 वर्ष के अन्तराल की बाद घटित होनेवाली घटनाओं पर दृष्टि डालना सहायक हो सकता है।

इसी प्रेरणा से मैंने जब अपने जीवन में घटित घटनाओं के क्रम का अवलोकन किया तो अनुभव किया कि आज 29 वर्षों बाद मैं पुनः उस स्थान पर लौट आया हूँ, जहाँ से उस समय चला था।

वही पुराने परिचित लोग फिर मुझसे मिले लेकिन उनमें से बहुत से लोग जो मुझसे छोटे या बड़े थे आज संसार से विदा हो चुके हैं। कुछ लोग पुनः मिले और उन्हें मुझसे पुनः मिलने में आश्चर्य और खुशी भी हुई। इस बीच हम सभी बहुत कुछ बदल चुके हैं यह भी हमें महसूस हुआ। 

जब वे 29 वर्ष पहले मुझसे मिले थे तो हम लोग विभिन्न विषयों पर आपस में चर्चा किया करते थे जो कभी कभी विवाद, रोष और वैमनस्य का रूप ले लेता था। यद्यपि मैं वहाँ से आगे बढ़ गया किन्तु किन्हीं कारणों से वे अभी इतने मुझ जैसे परिपक्व नहीं हो पाए थे।

मिलते ही बोल पड़े :

"लगता है आप कुछ खास हो गए हैं। हम तो प्रेमवश ही आपसे मिलने आए हैं! लेकिन लगता है आप हमसे बहुत दूर चले गए हैं!"

"देखिए, प्रेम व्रेम क्या होता है मुझे नहीं मालूम। लेकिन लगता है प्रेम, शत्रुता, मित्रता, परिचय, अपरिचय आदि अपनी जगह हैं और मिलने, न मिलने आदि का एकमात्र कारण प्रारब्ध / नियति भी अपनी जगह है।

क्या अघटितघटपटीयसी यही नहीं है? कारण कार्य और उनका क्रम, इस सबके बीच यद्यपि अगणित सिद्धान्तों का अनुमान किया जा सकता है, और संभवतः उनमें से अनेक को शुद्ध भौतिक विज्ञान सम्मत भी सिद्ध किया जा सकता है। इस बारे में आपको क्या लगता है?"

वे चुप हो गए। उन्हें यह भी स्पष्ट हो गया कि अब हमारे बीच बातचीत करने के लिए कोई विषय भी शेष नहीं रह गया है।

"विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिने।।

रसोऽपि रसवर्जं तं परं दृष्ट्वा निवर्तते।।"

वे बोल पड़े।

अब भी कभी कभी रास्ते पर उनसे मुलाकात होती रहती है। वे बस मुस्कुराते भर हैं। और मैं भी उनकी मुस्कुराहट का प्रत्युत्तर इसी प्रकार से दे दिया करता हूँ।

29 वर्षों से जो फाँस उन्हें त्रस्त कर रही थी अब वह दूर हो चुकी है लेकिन यह भी इतना ही सच है कि अब हमारे बीच बातचीत का कोई विषय भी नहीं है।

शनिदेव अब भी अपनी कक्षा में मार्गी या वक्री गति से परिभ्रमण कर रहे हैं।

शायद यह उनका प्रारब्ध / नियति हो! 

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June 23, 2024

Question 79

Question / प्रश्न 79

क्या साँख्य और योग द्वैत / अद्वैत दर्शन है?

Answer  उत्तर :

सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।। 

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५) 

साँख्य और योग दर्शन नहीं दर्शन की सिद्धि के उपाय हैं। इसलिए दोनों ही द्वैत के माध्यम से अद्वैत तक के दर्शन रूपी सिद्धि के लिए दो भिन्न प्रतीत होनेवाले साधन हैं।

उन मित्र का विचार था कि साँख्य पुरुष और प्रकृति के आधार पर स्थापित द्वैत दर्शन है।

भूल दर्शन को मार्ग या उपाय समझ लिए जाने से पैदा हुई है क्योंकि दर्शन, मार्ग या उपाय से प्राप्त होनेवाला फल, सिद्धि या परिणाम है। जिस तत्व की प्राप्ति उस उपाय या मार्ग के माध्यम से होती है, उस तत्व को सत्य भी कहा जा सकता है। उसे आत्म-साक्षात्कार या ईश्वर-अनुभूति भी कहा जा सकता है क्योंकि दोनों ही रीतियों से अंततः एकमेव अद्वितीय ब्रह्म / परमात्मा को ही जान लिया जाता है। इसलिए दर्शन छः षट्दर्शन हैं। प्रत्येक ही स्वतंत्र रूप से सत्य के अनुसन्धान और उसकी प्राप्ति के लिए अपने आपमें सहायक और पर्याप्त भी है। मत और अभिमत की दृष्टि से अवश्य वे भिन्न भिन्न हो सकते हैं। जैसे किसी गंतव्य स्थान तक जाने के लिए भिन्न भिन्न मार्ग होते हैं किन्तु उनमें से एक को ग्रहण करने में अन्य मार्गों का निषेध करना ही पड़ता है। और यह भी रोचक है कि प्रत्येक ही मार्ग पर अनेक मोड़ आते हैं जिनसे हम किसी दूसरे और भिन्न प्रतीत होनेवाले मार्ग पर मुड़ सकते हैं। इसलिए अनेक रूपों में ईश्वर की आराधना करनेवाले अपने अपने ईश्वर को दूसरों के ईश्वर से भिन्न मानते हुए भी परमात्मा को एकमेव ही कहते हैं। किसी मार्ग पर चलते समय यद्यपि उनके बीच मतभेद हो सकता है किन्तु अपने आराध्य की प्राप्ति हो जाने पर वे परस्पर ऐसे किसी भेद को अनुभव नहीं करते। और इसे ही शुद्धाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि नाम प्रदान किए जाते हैं जिनके बीच मतभेद और विवाद होने लगता है। ये सब उस तत्व को सिद्धान्त का रूप दिए जाने का परिणाम है।

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78. The Dove / कपोत

Question / प्रश्न 78. :

ऋषि और देव ?

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Answer : उत्तर

महान ऋषि शौनक का यश / यशस् अपने उस विशाल विश्वविद्यालय में सहस्रों जिज्ञासु छात्रों के लिए अध्ययन करने हेतु दीर्घ काल तक आवास और शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करने के लिए सुविख्यात था।

उन महर्षि के मन में उठा एक प्रश्न उन्हें निरन्तर व्याकुल किया करता था। वह यह था : 

यद्यपि मेरा समस्त ज्ञान परस्पर आश्रित निष्कर्षों पर आधारित और इसलिए अपूर्ण है, वह क्या है, जिसे जान लेने पर वह कुछ तत्वतः जाना जा सकता है?

इसी प्रश्न का उत्तर खोजते हुए वे महान् ऋषि अङ्गिरस् या अङ्गिरा ऋषि के आश्रम में विधिवत् हाथों में समिधा लेकर उनके समक्ष प्रस्तुत हुए थे।

महर्षि अङ्गिरा उस समय अपने आसन पर विराजमान थे और उन्होंने स्मितपूर्वक ऋषि शौनक पर दृष्टिपात किया। 

महर्षि अङ्गिरा के आश्रम में अनेक दूसरे ऋषि प्रारब्धवश श्वान, बिडाल, उलूक, शुक और कपोत के रूप में अलग अलग देह धारण कर पारस्परिक सौजन्यता सौहार्द और स्नेहपूर्वक निवास करते थे। ये सभी ऋषि एक दूसरे से केवल भावतरंगों के माध्यम से परस्पर संवाद करते थे।

श्वान को ज्ञात था कि वे ही स्वयं ऋषि शौनक के आश्रम में भी श्वान के रूप में उनके साथ रहते थे और उन्होंने ही ऋषि अङ्गिरस् / अङ्गिरा और उनके आश्रम के स्थान का पता लगाया, और ऋषि शौनक को वहाँ जाने का संकेत किया था।

ऋषि शौनक अपने उस श्वान के ही साथ चलते हुए वहाँ  अङ्गिरा ऋषि के आश्रम तक आ सके थे।

ऋषि अङ्गिरा के आश्रम में यत्र तत्र हिरण (Deer) और कौशिक (Rabbit) भी स्वच्छन्द और निर्भय होकर विचरण किया करते थे, और इसी प्रकार दूसरे भी अनेक पक्षी और वन्य जीव भी वहाँ आया जाया करते थे।

पातञ्जल योगदर्शन के अनुसार :

अहिंसा में प्रतिष्ठित हुए महानुभाव के समीप सभी प्राणी अपने नैसर्गिक वैर भाव को भुला देते हैं। 

यही वहाँ पर प्रत्यक्ष ही दृष्टिगत होता था।

ऋषयः पूतपापाः गतकल्मषाः

(पूतिं प्राप्तवान् इति पूतिन / पुतिनः अपि)

सनातन धर्म तो कालसापेक्ष और कालनिरपेक्ष दोनों ही प्रकारों से कार्यरत है किन्तु किसी घटना का वर्णन करने के लिए कालसापेक्षता का आश्रय लेना आवश्यक होता है, इसलिए यहाँ भी इसी आधार पर इस कथा को अतीत के सन्दर्भ में कहा जा रहा है। संयोगवश और संभवतः वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में भी यह प्रासंगिक प्रतीत हो सकता है।

अस्तु, 

ऋषि अङ्गिरस् के आश्रम में एक बार शुक और कपोत एक दूसरे से बातचीत कर रहे थे :

कपोत ने शुक से प्रश्न किया :

मित्र! श्वान और विडाल दोनों ही हमसे शत्रुता करते हैं,  उनमें कौन श्रेष्ठ है और कौन निकृष्ट है?

कपोत के द्वारा यह प्रश्न पूछे जाने पर शुक ने कहा :

मित्र! यद्यपि दोनों ही प्रारब्ध और परिस्थितियों के वश में होने से हमसे वैरभाव करते हैं इसलिए हमें उनसे सतर्क और सावधान रहना चाहिए, किन्तु मूषक-दृष्टि से देखें तो श्वान की तुलना में विडाल अधिक श्रेष्ठ है क्योंकि विडाल तो आहार की आवश्यकता होने पर ही किसी का शिकार करता है जबकि श्वान अकारण ही मूषक या किसी दूसरे प्राणी पर भी आक्रमण करता रहता है।

आश्रम में ऋषि शौनक को आते हुए देखकर दोनों चुप हो गए।

फलश्रुति -

मुण्डकोपनिषद् के अनुसार :

ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव।।

लोकस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।।

ऋषि भी देववर्ग की कोटि में होने से प्रारब्धवश किसी भी शरीर का रूप लेकर उस प्रकार से जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

यशस् तथा हि देवानां संबभूव ।।

यदा शौनकः तं / तस्मिन् ज्ञानबीजं वपितवान् / वपति स्म तदा ही ईशो / परमेश्वरो तमाविवेशवान्।।

When Yeshus was given the seed of ऋतज्ञानं / Right Knowledge, by SUnu,  Ishwaro descended upon Yeshus like a Dove

So were / are all these sages of Veda and purANa, वेद, इतिहास, स्मृति और पुराण। 

।।ऋषयः पूतपापाः।। 

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June 22, 2024

तू ढोल बजा!

कविता 22 06 2024

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कोई जीते, कोई हारे, 

तू ढोल बजा, तू ढोल बजा!

रैली में सब से आगे,

तू जश्न मना, तू जश्न मना! 

कोई हँसता या रोता हो,

तू नाच नचा, तू नाच नचा!

बच पाए, या ना बच पाए, 

तू सबको बचा, तू सबको बचा! 

तू रंग जमा, तू साज सजा, 

तू ढोल बजा, तू ढोल बजा!! 

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साँसों को नींद आए तो,

कविता / 22062024

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हो गए हो अगर बड़े,

तो बड़े रहो! 

एकाग्र दृष्टि लक्ष्य पर,

हो तो जड़े रहो!

संकल्प दृढ़ हो अगर,

तो बस अड़े रहो! 

वृक्ष जैसे धरती पर,

हो तो खड़े रहो!

साँसों को नींद आए तो,

बस पड़े रहो!!

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June 21, 2024

कितना कुछ लिखा जाए!

कविता / मेरा आज का व्हाट्स ऐप स्टेटस् अपडेट 

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मैं क्यों, किसलिए जिन्दा हूँ,

समझ में नहीं आता,

न कोई जरूरत है,

न कोई है इरादा! 

खैर ये दिन भी कभी, 

गुजर ही तो जाएँगे,

न कभी याद करूँगा, 

न आऊँगा, है ये वादा!! 

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77. कर्म और कर्तव्य

Question प्रश्न 77 :

How Action, Desire, Compulsion and Destiny are related to one another? 

कर्म, इच्छा, बाध्यता और भवितव्य के बीच परस्पर क्या संबंध है? 

Answer /  उत्तर :

उपरोक्त सभी के बीच वही संबंध है, जो परस्पर कृत्य / कर्तव्य, इच्छित / इच्छितव्य, मन / चेतना, स्वभाव और प्रकृति, प्रारब्ध और भाग्य के बीच होता है।

यद्यपि प्रारब्ध कर्म ही है, और कर्म प्रारब्ध ही है तथापि  किन्तु केवल अतीत और भविष्य की काल्पनिक मान्यता के कारण ही वे दो भिन्न रूपों में दिखाई देते हैं।  

संस्कृत व्याकरण में दो प्रत्यय होते हैं शतृ / शानच् और तव्यत् । प्रयोग में ये दोनों क्रमशः कर्म को करनेवाले और किए जा सकने योग्य कार्य के द्योतक होते हैं।

जैसे कृ धातु और शतृ प्रत्यय से बननेवाला कर्तृ पद / प्रातिपदिक, कर्ता के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैसे पितृ पद से पिता आदि बनते हैं।

शानच् प्रत्यय के साथ किसी संज्ञा को संबंधित करने पर बननेवाला शब्द उस संज्ञा के साथ संयुक्त विशेषता का द्योतक होता है - जैसे कि भाग्यवान्, विद्वान्, बलवान्, भगवान्, धनवान् आदि। 

तव्यत् प्रत्यय योग्यता और संभावना का द्योतक होता है। जैसे कर्तव्य, मन्तव्य, ज्ञातव्य, भोक्तव्य, भवितव्य और इच्छितव्य। 

जैसे पशु स्थूल इन्द्रियों की प्रेरणाओं से प्रेरित होने पर उसी प्रेरणा के पाश में बँधे उस कार्य विशेष को करने में उस हेतु प्रवृत्त हो जाते हैं, किन्तु उस पाश (प्रकृति) से अनभिज्ञ होते हैं, उसी प्रकार से मनुष्य यद्यपि पशु की तुलना में कुछ अधिक सजग होता है, फिर भी मनुष्य भी पशु की ही तरह इच्छा और भय रूपी जिस पाश में बँधा होता है और प्रकृति से ही उस विषय में न केवल पूर्णतः अनभिज्ञ होता है, बल्कि विविध इच्छाओं और भयों के बीच विद्यमान अन्तर्विरोधों की तो उसे कल्पना तक नहीं होती। किसी इच्छा के औचित्य या अनौचित्य का प्रश्न ही किसके मन में उठता है? यह प्रश्न उसके मन में तब उठ सकता है जब वह नैतिकता और अनैतिकता के विचार के संदर्भ में इच्छा के औचित्य या अनौचित्य पर ध्यान दे पाता है। ठीक इसी प्रकार भयों के बारे में भी होता है। भय भी मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं - वास्तविक और काल्पनिक। शरीर की सुरक्षा / असुरक्षा का भान होते ही मनुष्य में जो भय उत्पन्न होता है वह वास्तविक भय होता है जबकि काल्पनिक ज्ञात या अज्ञात स्थिति के अनुमान से जो भय उत्पन्न होता है वह काल्पनिक होता है। इच्छा और भय मूलतः उद्वेग होते हैं जो वैसे तो स्मृति में सुप्त रहते हैं किन्तु समय समय पर अन्य उद्वेगों - जैसे क्रोध, घृणा, लालसा, अवसाद आदि के रूप में व्यक्त होते हैं। किसी वैचारिक मान्यता के दृढ़ हो जाने पर भी विभिन्न प्रकार के ये उद्वेग प्रकट होते हैं । उदाहरण के लिए पाप (अकर्तव्य / निषिद्ध कर्म को करने) का भय और पुण्य का प्रलोभन।  प्रलोभन और भय भी एक ही मानसिक दशा के परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले दो पक्ष हैं।

अब कर्तव्य-अकर्तव्य और पाप-पुण्य के औचित्य और अनौचित्य को बेहतर समझ सकते हैं।

इच्छा और भय, दोनों ही हमें उस कार्य को करने के लिए प्रेरित करते हैं, जिससे हमें सुख या प्रसन्नता प्राप्त होने की आशा होती है। इसी प्रकार इच्छा और भय, दोनों ही  हमें उस कार्य को किए जाने से बचने या उससे दूर रहने के लिए प्रेरित करते हैं जिसे किए जाने पर हमें कष्ट या दुःख प्राप्त होने की आशंका होती है।

किन्तु तात्कालिक आवश्यकताएँ, बाध्यताएँ, संभावित परिणाम जो हमें दृष्टिगत होते हैं हममें दुविधा उत्पन्न होने का कारण होते हैं। भावी की कल्पना और अनुमान हमें इतना अभिभूत करते हैं कि भवितव्य की अपरिहार्यता पर ध्यान देना हमारे लिए असंभवप्राय होता है। तब हम अपरिहार्यतः भावी को प्रारब्ध और भाग्य का नाम देकर उस संबंध में अपने ही भीतर या अपने जैसे दूसरे लोगों  साथ विशद विचार विमर्श करने लगते हैं। भवितव्य वह होता है जिसका अनुमान उसके घटित हो जाने पर ही हो पाता है और तब उसे हम अतीत का नाम देकर स्मृति में स्थान देकर सत्य मान लेते हैं। प्रत्येक मनुष्य की अपनी स्मृति और उसमें संजो रखा गया उसका कल्पित अतीत और वैसा, उतना ही कल्पित एक व्यक्तिगत संसार होता है। इन तमाम इच्छाओं, भयों, कर्तव्य / अकर्तव्य, पाप और पुण्य, इच्छितव्य, भवितव्य, आवश्यकताओं और बाध्यताओं के मकड़जाल में फँसा व्यक्तिगत "मैं" कभी उससे बाहर नहीं निकल पाता और न कभी इसे समझ पाता है कि क्या इससे बाहर निकलने का कोई मार्ग या उपाय कहीं हो सकता है या नहीं! यही उसका मन्तव्य और प्रारब्ध होता है। 

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June 16, 2024

जब तुम नहीं होते... !

कविता / १६-०६-२०२४

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अतीत भी नहीं होता, 

भविष्य भी नहीं होता,

तब संसार भी नहीं होता,

न जन्म होता है, न मृत्यु, 

न भूख, न प्यास,

न जरा, न व्याधि,

न स्मृति, न अनुभव,

न परिचय, न संबंध,

न प्रतिबन्ध, न अनुबन्ध। 

न वर्तमान, न सुख, 

न दुःख, न संसार।

जब तुम नहीं होते!

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June 13, 2024

वैश्विक सामाजिक जीवन

परिचय, संबंध और पारस्परिक व्यवहार

Perception, Relationship, and Mutual Interaction.

किसी भी व्यक्ति से पहली बार मिलने के बाद ही उसकी कोई प्रतिमा मन में बन जाती है, जो बाद में उसके साथ हुए अपने व्यवहार और अनुभवों से सतत स्थिर और दृढ हो जाती है। यह एक प्रभाव (influence / impact / impression) होता है। यह प्रतिमा जितनी ही अधिक सुनिश्चित और स्थिर होती है स्मृति में उतनी ही दृढ होने लगती है और प्रायः इसमें परिवर्तन नहीं हुआ करता है, किन्तु विभिन्न अवसरों पर विशेष कारणों से यह प्रतिमा अकस्मात् खंडित या ध्वस्त तक हो जाती है, या बहुत प्रभावशाली भी हो जाया करती है। संक्षेप में, यह प्रतिमा ही किसी व्यक्ति से हमारा परिचय कहलाता है। जब उस व्यक्ति से परिस्थिति या दूसरे किन्हीं कारणों से पुनः पुनः मिलना होता हो तो मन के स्तर पर एक जुड़ाव हो जाना स्वाभाविक ही है। यह जुड़ाव पुनः केवल औपचारिक हो सकता है या भावनात्मक रूप भी ले सकता है और उस व्यक्ति के विषय में मन में अनेक तरह के विचार पैदा हो सकते हैं। जाने अनजाने ही उस पर अधिकार की भावना भी जन्म ले लेती है और तब मन दुविधाग्रस्त होने लगता है। सामाजिक जीवन में नित्य ही अनेक लोगों से सामना होना स्वाभाविक ही है और उनके प्रति अनेक प्रकार की भावनाएँ भी मन में उठने लगती हैं। ऐसा सभी के साथ होता है। स्मृति में वे सभी लोग इन विभिन्न प्रतिमाओं के माध्यम से स्वयं से जुड़े होते हैं। अगर इतना ही होता तो भी ठीक था, किन्तु मन न केवल व्यक्तियों की प्रतिमाएँ निर्मित कर लेता है, बल्कि उन प्रतिमाओं को वर्गीकृत भी कर लेता है। व्यावहारिक स्तर पर यह भी स्वाभाविक ही है। जैसे कि कोई व्यक्ति शिक्षक, श्रमिक, अधिकारी, चिकित्सक या किसी दफ्तर में कर्मचारी हो सकता है। पढ़ा-लिखा या अनपढ़, गरीब या पैसेवाला, बच्चा, युवा, प्रौढ़, वृद्ध, स्त्री या पुरुष आदि, और तदनुसार उसकी प्रतिमा बन जाती है। शायद ही कभी इन सभी प्रकार के व्यक्तियों से हमारा सामना होता है। केवल एक सीमित दायरा होता है जिसमें हम प्रायः इने-गिने इतने ही लोगों से इस प्रकार से मिलते हैं, जिनसे किसी प्रकार का कोई भावनात्मक संबंध स्थिर रूप ले सके। हाँ, और भी कुछ विशेष पब्लिक पर्सन्स भी होते हैं जैसे फिल्म, टीवी के कलाकार, राजनीतिक या अन्य ख्यातिप्राप्त लोग जिनके प्रति हम कम या अधिक आकर्षित (या विकर्षित भी!) होते हैं, जिन्हें हम बहुत पसन्द करते हैं, या जिनके प्रति हमारे मन में आदर, सम्मान, प्रशंसा या निन्दा की भावना हो सकती है।

हमारा सामाजिक जीवन प्रायः अनेक भिन्न भिन्न नैतिक,  धार्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक मूल्यों द्वारा नियंत्रित, मर्यादित और तय होता है। इन सबका सम्मिलित प्रभाव और दबाव हम सभी पर हमेशा ही होता है। किसी भी समाज में जितने ही अधिक विविध सांस्कृतिक, नैतिक और पारंपरिक मूल्य होंगे वह उतना ही जटिल अवश्य ही होगा। सबके बीच संतुलन और सामञ्जस्य हो पाना भी इसीलिए उतना ही मुश्किल होगा। हमारे समय का यह एक विशिष्ट संकट है, जिसमें हम सभी के लिए जीवन दिन प्रतिदिन और भी, और भी अधिक चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। क्या व्यक्तिगत जीवन को सामाजिक जीवन से अलग किया जा सकता है? समाज और राष्ट्र, विश्व में इस चुनौती का सामना किस प्रकार किया जा सकता है? शायद इसका उत्तर खोजने के लिए पहले इस चुनौती का सामना हमें करना होगा कि क्या हर मनुष्य ही भौतिकता की आज की इस अंधी दौड़ में और भी, और भी अधिक असुरक्षित, आशंकित, व्याकुल, व्यग्र और भयभीत नहीं होता जा रहा है? हर मनुष्य और अधिक, और भी अधिक सफल होना चाहता है, प्रत्येक ही इस स्पर्धा में और भी अधिक स्वकेंद्रित होता जा रहा है। यह अलग बात है कि अपने "स्व" को वह कितना सीमित या विस्तीर्ण करता है। हो सकता है वह किसी समुदाय, राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित होकर उस लक्ष्य से ही, उस लक्ष्य तक ही "स्व" को सीमित रखता हो। यह स्व-सीमितता, स्व-संकीर्णता यद्यपि किसी "आदर्श" को समर्पित हो सकती है और दुर्भाग्य से ऐसे सभी भिन्न भिन्न "आदर्श" एक दूसरे से नितान्त विपरीत और विरोध में भी हो सकते हैं। वे कट्टरता की हद तक क्रूर और निष्ठुर हो सकते हैं, और उन लक्ष्यों के लिए "आत्मोत्सर्ग" कर देने को महिमामंडित भी किया जाने लगता है। एक अति से दूसरी अति तक परस्पर शत्रुतापूर्ण ऐसे "आदर्श" कब तक हमें गौरवान्वित होने के लिए प्रेरणा देते रहेंगे?

इन सबके कारण क्या हम सभी मूलतः और भी, और भी अधिक असंवेदनशील नहीं होते जा रहे हैं!  क्या हम सभी और अधिक लोभ और संशय से ग्रस्त, और भी भयभीत, आशंकित, नहीं होते जा रहे हैं? क्या परस्पर अविश्वास और भी, और भी अधिक बढ़ता ही नहीं जा रहा है?

तो इसलिए मूल प्रश्न यह नहीं है कि हम संवेदनशील कैसे हों? मूल प्रश्न यह है कि हम असंवेदनशील क्यों हैं? हमने क्या कभी इस प्रश्न पर ध्यान दिया है, या केवल और भी नए नए प्रलोभनों, भयों से, नई नई उत्तेजनाओं से रोमांचित होकर, असंभव कल्पनाओं से मुग्ध होने में, मनोरंजन में सुख अनुभव करते हुए और भी अधिक असंवेदनशील, क्रूर और निष्ठुर होते चले जा रहे हैं!

"मनोरंजन" आज के युग का सर्वाधिक शक्तिशाली माध्यम / व्यवसाय / शस्त्र है, जिससे हमारी स्वाभाविक संवेदनशीलता कुंठित और भोंथरी होती जा रही है किन्तु तात्कालिक रोमांच और मुग्धता हमें बहुत आसानी से इसलिए अपना शिकार बना लेते हैं, क्योंकि वहाँ हमें क्षणिक और भी गहरा सुख मिलता हुआ प्रतीत होता है। वह क्षण / समय कैसे और भी, और भी अधिक दीर्घ किया जा सके, इस चेष्टा में हम निरन्तर संलग्न रहते हैं। कामोत्तेजना की कमी और उसे बढ़ाने  के लिए अनेक द्रव्यों  aphrodisiac drugs आदि के विज्ञापन किस बात को इंगित करते हैं?मनुष्य की सामूहिक चेतना तात्कालिक "सुख-बोध" से क्या इतनी अधिक मोहित है कि उसे इस महानिद्रा से कोई नहीं जगा सकता?

तो फिर हमारा क्या भविष्य हो सकता है? 

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June 12, 2024

जब उससे कहा :

एक बहुत छोटी सी प्रेम-कथा

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"यूँ क्या देख रहे हैं!"

उसने कुछ अचकचाकर पूछा। 

"आप मुझे अपने जैसी लगती हैं!"

"अपने जैसी?!"

"जी, अपनी जैसी नहीं, अपने जैसी!"

मैंने मुस्कुराकर कहा।

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June 10, 2024

76 ईश्वरवाद और अनीश्वरवाद

Question / प्रश्न 76

ईश्वर क्या है?

 Answer / उत्तर 

आध्यात्मिक साधनाओं की विविध परम्पराओं का इस आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है कि कुछ तो संसार की सृष्टि करने, संरक्षण और परिपालन तथा पुनः उसका संहार करने के लिए किसी महान ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करती हैं, और इससे विपरीत और भिन्न दृष्टि का आग्रह करनेवाली ऐसी किसी सत्ता का प्रमाण दिए जाने का आग्रह करती हैं। इनमें भी पुनः अनेक मतभेद देखे जाते हैं जैसे कि वह सत्ता एकमात्र और अद्वितीय है और उससे भिन्न किसी और दूसरी ऐसी सत्ता का अस्तित्व ही नहीं है। फिर उस एकमात्र ईश्वरीय सत्ता को माननेवालों की बीच भी इस पर मतभेद होते हैं कि उसका स्वरूप और नाम किस प्रकार का है। उसके साक्षात्कार का मार्ग या उपाय क्या हो सकता है इस पर भी उनके बीच विवाद होता रहता है। फिर इस बारे में भी इन सभी के बीच एक और मतभेद इस प्रकार का होता है कि क्या उस ईश्वरीय सत्ता का संसार में अवतरण होता है या कि वह किसी विशिष्ट मनुष्य को संसार में भेजता है जिसके माध्यम से उसके स्वरूप और कार्य के बारे में संसार को संदेश दिया है। पूर्व की सनातन धर्म की भिन्न भिन्न परम्पराओं में यद्यपि उसे एकमेव और अद्वितीय भी कहा जाता है और उसे ही आत्मा या परमात्मा, ब्रह्म या परब्रह्म भी कहा जाता है - जैसे कि आस्तिक परम्पराओं में, जबकि इनसे भिन्न और भी परम्पराएं हैं, जिनमें ऐसी किसी ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व पर संशय किया जाता है, यहाँ तक कि उसके अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया जाता है। जैसे कि नास्तिक, चार्वाक परम्पराएँ। इनसे भी भिन्न बौद्ध और जैन परम्पराएँ भी हैं जिनमें इस प्रकार का ईश्वर विचार का विषय ही नहीं होता और आत्मा को ही जानने पर बल दिया जाता है क्योंकि यद्यपि आत्मा या स्वयं से प्रत्येक मनुष्य अनायास परिचित ही होता है, आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए बहुत ही श्रम और प्रयास करना भी आवश्यक होता है। इन भिन्न भिन्न मतों या सिद्धान्तों को माननेवालों की तरह किन्तु उनसे कुछ भिन्न यह मत वेदान्तवादियों का होता है कि आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म, सत्य, और उन्हें जाननेवाला एक ही और इन सबसे अनन्य है।

एक दृष्टान्त / उदाहरण दिया जाता है कि यदि वाहन या गाड़ी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जाना है तो उसे खींचकर ले जाया जाता है या धकेलकर ले जाया जाता है इसका विशेष महत्व नहीं है।

इसी प्रकार अनेक सिद्धान्त ईश्वर और आत्मा के बारे में हैं और यदि ईश्वर का या आत्मा का साक्षात्कार करते हुए उसे जानना है, या उसे जानकर उसका साक्षात्कार करना है, तो इसका विशेष महत्व नहीं रह जाता कि इस उद्देश्य की प्राप्ति किस तरह से की जाती है।

यहाँ पर सबसे बड़ी बाधा है व्यक्तिगत स्वतंत्रता, कर्तृत्व, भोक्तृत्व और स्वामित्व के रूप में व्यक्तिगत अहंकार। अहंकार किसी भी यत्न से स्वयं का निषेध, निरसन या निराकरण नहीं कर सकता। इसलिए अहंकार को मिटा सकना लगभग असंभव है। इसके लिए कोई तरीका नहीं हो सकता। किन्तु इस समस्या का एक संभावित हल यह हो सकता है कि सब कुछ ईश्वर के प्रति पूर्णतः समर्पित कर दिया जाए। किन्तु समर्पण भी तब तक किया नहीं जा सकता जब तक मनुष्य में कामना का लेशमात्र भी शेष है। और क्या किसी "ईश्वर" की स्वीकृति भी कामना का ही एक प्रकार नहीं होती! इसलिए ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं, यह प्रश्न गौण है, प्रमुख प्रश्न यह है अहंकार का विलय (dissolution) कैसे हो सकता है? किसी के लिए यह संभव है कि वह निश्चयपूर्वक यह अभ्यास करता रहे कि उस अज्ञात ईश्वरीय सत्ता को यथासंभव सतत स्मरण रखे और अपने समस्त संकल्प, इच्छा आदि को भी उसका ही समझे और अपने सारे यत्नों को भी ।इसी के साथ जो भी कुछ घटित होता है उस सबको भी उसकी ही इच्छा समझे अर्थात् ईश्वरीय सत्ता से वह कोई प्रतिरोध न करे। अपने आपकी सुरक्षा तक उसे सौंप दे। किन्तु यह भी बहुत कठिन प्रतीत होता है। क्या फिर ऐसा नहीं किया जा सकता कि ईश्वर का विचार तक न किया जाए और केवल आत्म-चिन्तन ही किया जाए। यहाँ  इस पर भी ध्यान देना होगा कि तब संसार के समस्त विषयों को मन से बहिष्कृत कर देना होगा। मन इस प्रकार से क्या विषयों से नितान्त रिक्त हो सकता है? संभवतः पतञ्जलि के योगसूत्र से इसका संकेत ले सकते हैं जिसमें योग को चित्त की वृत्तियों का निरोध (करना) कहा गया है। शायद एक और अन्य सांख्यनिष्ठा के आधुनिक युग के द्रष्टा :

Emptying of the mind of all its content / contents.

कहते हैं।

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June 08, 2024

नए तेवर / कलेवर में,

 एक पुरानी कविता 

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ऐसा भी कोई होता है।!?

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जिसका कहीं घर नहीं होता, 

उसको कोई डर नहीं होता। 

उसकी कोई मंजिल नहीं होती,

उसका कोई सफ़र नहीं होता।

वो बीमार तो नहीं होता, 

तन्दुरुस्त भी नहीं होता। 

उसके मर्ज की दवा नहीं होती,

दुआ का भी असर नहीं होता।

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June 05, 2024

कालज्ञ और दैवज्ञ

दो दिन पहले

अर्थात् 03-जून-2024 के दिन मैंने एक पोस्ट :

वृद्धजन राजनीतिक दल

के विचार को प्रस्तुत करते हुए लिखा था।

इससे पहले तमाम ज्योतिषियों और राजनीति के धुरंधर और कुशल विश्लेषणकर्ताओं की भविष्यवाणियों और भविष्यसूचक विवेचनाओं को इन्टरनेट पर सुनता और देखता रहा। हमेशा से मेरा यही तर्क रहा है : पहली बात यह कि भविष्य को कोई कभी जान ही नहीं सकता, और यद्यपि व्यक्ति विशेष के बारे में कोई भविष्यवक्ता उसके जीवन की किसी घटना विशेष की ऐसी भविष्यवाणी भी कर सकता हो जो कि समय आने पर सत्य भी सिद्ध हो जाए, किन्तु कोई भविष्यवक्ता किसी के भाग्य में लिखी घटना को रंचमात्र भी बदलने का दावा तो दूर, वादा तक नहीं कर सकता क्योंकि इसमें निहित विसंगति तर्क की दृष्टि से भी प्रत्यक्ष ही है। ऐसा इसलिए, क्योंकि तर्क की दृष्टि से यदि किसी भविष्यवक्ता ने किसी भावी घटना को पहले ही से यद्यपि और संभवतः ठीक ठीक "देख" भी लिया हो, तो इसके बाद उसे बदले जा सकने का प्रश्न ही नहीं उठता है, और यदि वह उस घटना को स्वरूपतः पूरी तरह या आंशिक रूप में भी बदलने का दावा या वादा करता हो तो यह भी स्पष्ट है कि उस घटना को उसने ठीक ठीक नहीं देखा था।

भौतिक विज्ञान कारणों और परिणामों के संबंध में कोई सुनिश्चित क्रम खोजने का प्रयास करता है। जिस विषय मेंह खोज की जाती है वह कोई इन्द्रियगम्य स्थूल विषय या मन-बुद्धि और तर्कगम्य सूक्ष्म विषय हो सकता है। समय / काल की अवधारणा अनुमान का विषय है और न तो इन्द्रियगम्य स्थूल या मन-बुद्धि और तर्कगम्य सूक्ष्म विषय है। वस्तुतः कोई ऐसा स्थान नहीं, जहाँ पर काल न हो, और स्थान के अभाव में काल का प्रमाण कहाँ और क्या हो सकता है! 

तात्पर्य यह कि काल और स्थान परसापर अन्योन्याश्रित होने से एक ही तथ्य के दो नाम हैं।

फिर भी व्यावहारिक दृष्टि से उनका उपयोग अवश्य है और उन दोनों के बीच तात्कालिक संतुलन भी स्थापित किया जा सकता है। इसे ही वर्तमान कहा जाता है जिसे काल या समय के अन्तर्गत ही स्वीकार किया जाता है। और यह भी सत्य है कि ऐसा कोई प्रत्यक्ष वर्तमान कहीं नहीं हो सकता जो सबके लिए सत्य हो।

फिर भी घटनाओं के क्रम की दृष्टि से इतिहास अतीत / भूतकाल का उपयोग भी है। उसी अतीत - जो स्मृति में ही पाया जाता है, और वर्तमान - जो एक दृष्टि से कल्पना और अनुमान-मात्र होता है, के आधार पर तथाकथित "भविष्य" के बारे में पूर्वानुमान लगाया जाता है जिसे भविष्यवाणी या भविष्यकथन का नाम दिया जाता है। 

यह सब अवश्य ही संदेहास्पद (full of ambiguity)  है और इसकी सत्यता किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं की जा सकती।

राजनीति की तरह यह भी लोगों की मूर्खता का शोषण करने का ही एक और प्रकार है।

हर मनुष्य अनायास ही किसी चमत्कार की सत्यता के बारे में जानने के लिए उत्सुक किन्तु शंकालु भी होता है क्योंकि यदि कोई चमत्कार कभी हो सकता है तो उसका जीवन अशाओं से भर सकता है। जैसे कवि प्रायः करते हैं। उदाहरण के लिए --

कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता,

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों!

03 जून 2024 तक सभी लोग - सत्तारूढ़ और विपक्ष के जो भविष्य में सत्तारूढ़ होने की लालसा से लालायित थे - ऐसे ही भविष्य की आशा के पूर्ण हो सकने और पूर्ण न हो सकने की आशंका से मोहित हो रहे थे।

कल यानी 04 जून 2024 के दिन शाम होते होते उनकी आशाएँ-आशंकाएँ कितनी पूर्ण या अपूर्ण हो सकीं, इस बारे में अभी भी उन्हें कुछ पता नहीं है, और अब वे सभी जोड़-तोड़ करने में जी जान से लगे हुए हैं - 

आशा बलवती राजन् शल्यो जेष्यति पाण्डवान्।।  

गीता के अध्याय १८ का यह श्लोक याद आता है -

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।

न तो कोई कालज्ञ और न ही कोई दैवज्ञ भविष्य को कभी जान सकता है क्योंकि पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद ८ के अनुसार "भविष्य" 

विपर्यय नामक वृत्ति विशेष है जिसे इस प्रकार से परिभाषित किया गया है -

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

तो उसे बदलने की बात करना तो शशशृङ्ग जैसा ही है! 

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June 02, 2024

वह कौन?

Question / प्रश्न 76.

वह कौन?

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वैसे तो वह कोई सजीव सत्ता है जैसे कोई वृक्ष, जैसे कोई पशु, जैसे कोई पक्षी, जैसे कोई मनुष्य - बच्चा, कोई युवा, वृद्ध, जैसे कोई पुरुष या स्त्री, या जैसा कोई आदि-मानव। 

जब उसे भूख लगती है तो वह खाने के लिए भोजन की तलाश करता है, जब भोजन मिल जाता है तो जब तक भूख मिट नहीं जाती तब तक भोजन करता रहता है, या कहें तो खाने का कार्य करता है। फिर वह निरर्थक, यूँ ही यहाँ वहाँ घूमता भटकता रहता है।

प्यास लगने पर पानी पीता है। वह समाज या परिवार में रहता हुआ समय समय पर पैदा होनेवाली अपनी विभिन्न आवश्यकताओं को पूर्ण करने की स्थायी व्यवस्था करना सीख जाता है ताकि बार बार उसे भोजन और पानी की तलाश में यहाँ वहाँ भटकते न रहना पड़े। क्रमशः अपनी और अपने परिवार की, "समाज" की, "सभ्यता" की एक विशिष्ट एक शैली वह विकसित कर लेता है। जैसे पशु / पक्षी आदि अपना समाज निर्मित कर लेते हैं, उस तरह से वह भी अपना समाज निर्मित कर लेता है। अभी तक तो उसने "भाषा" का आविष्कार भी नहीं किया है, और वह भी दूसरे प्राणियों की ही तरह चित्त में समय समय पर और क्षण क्षण पर प्रकट और विलीन होती रहनेवाली विभिन्न भावनाओं के साथ साथ बहता हुआ, उनके अनुभवों को अपनी स्मृति में संजोता है। यह सारा  कार्य उसके किसी भी सचेतन, और स्वैच्छिक निश्चय से नहीं होता, बल्कि अनायास और अपने आप होनेवाला प्राकृतिक कार्य हुआ करता है। और यद्यपि अभी तक उसमें विभिन्न घटनाओं को समझने की बुद्धि उत्पन्न हो चुकी होती है और वह उनके स्वाभाविक पूर्व-पश्चात के क्रम में आधारभूत तथ्य के रूप में "समय" की पहचान भी कर चुका होता है, और उस पहचान से "समय" के विस्तार के छोटे और बड़े होने की तुलना भी कर सकता है, फिर भी अभी वह भाषा और शब्दों से अनभिज्ञ होता है। फिर किसी समय वह विभिन्न वस्तुओं, घटनाओं और ध्वनियों के बीच तारतम्य स्थापित करना भी सीख लेता है जो पुनः स्मृति में किसी प्रारूप में संजो ली जाती हैं।

और फिर किसी समय इसी प्रकार से चित्त में अनायास क्षण क्षण उठती और विलीन होती हुई भावनाओं और उनकी प्रतिक्रियाओं की एक विशिष्ट पहचान बना लेता है। इच्छा, भय, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, रोष, आकर्षण और विकर्षण, शत्रु, मित्र, सापेक्ष और निरपेक्ष वस्तुओं और  आवश्यकताओं आदि की भी पहचान इस तरह उसे हो जाती है।

जीवन जीने के लिए इतना ही पर्याप्त होता है।

किन्तु वस्तुओं, घटनाओं, भावनाओं और अनुभवों आदि से ध्वनियों को संबंधित करने के क्रम में अनैच्छिक रूप से ही सही, "भाषा" का निर्माण वह कर लिया करता है। परिवार, समाज आदि में भी उन ध्वनियों को शाब्दिक रूप में सीख और स्वीकार कर लिया जाता है।

और तब उसके पास वैचारिक मन नामक एक यंत्र आ जाता है जिसकी सहायता, प्रभाव और परिणाम से जब वह अकेला भी होता है तब भी कल्पना के अन्तर्गत वह स्मृति को पुनर्जीवित करने लगता है। तब वह "स्वयं" से "उस भाषा" में स्वप्न जैसी अवस्था में जागते हुए या सोते हुए बातें करने लगता है।

वह कौन?

वही, जो कि अभी तक शाब्दिक भाषा से अनभिज्ञ था।

अब से पहले भी उसका जीवन दो अवस्थाओं में बीतता रहता था - जब वह संसार में जागृत हुआ भूख प्यास को अनुभव करता हुआ उन्हें मिटाने की चेष्टा में संलग्न रहा करता था, और (शरीर के) थक जाने पर विश्राम करता या सो जाता था ।

जागने और सोने की इन दोनों गतिविधियों में शरीर तो यंत्रचालित ढंग से सतत ही अपना कार्य करता रहता था और सोने की स्थिति में 'मन' संभवतः स्वप्न जैसी किसी अवस्था में, -जागने के समय के अनुभवों का स्मरण या विस्मरण किया करता होगा।

इन विभिन्न अनुभवों में "स्वयं" की पहचान तो बहुत बाद में बनती होगी, जिसे और भी बाद में अपनी एक अमूर्त (abstract) पहचान बनाकर स्मृति में केन्द्रीय मौलिक  की तरह अंकित और टंकित कर लिया जाता होगा।

शरीर के सोने या जागने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि उसकी गतिविधियाँ दोनों ही समय स्वाभाविक रूप से कम या अधिक तीव्रता के साथ चलती रहती हैं।  यह तो "मन" ही होता है जिसमें "स्वयं" की वह अमूर्त कल्पना "मैं" की स्मृति बनकर अपना कृत्रिम अस्तित्व निर्मित कर लेती है।

जब "मैं" जागता हूँ उस समय तो किसी न किसी कार्य में व्यस्त होकर अपने आप को उसका "कर्ता" होने की धारणा से बद्ध कर लिया करता हूँ, किन्तु जब करने के लिए इस "मैं" के पास कोई कार्य नहीं होता, तो "वह"  व्याकुल हो उठता है, या तो वह निद्रा की शरण लेता है, या किसी काल्पनिक व्यस्ततता की । अपने लिए "वह" स्वयं ही असंख्य ध्येय कल्पित और  सृजित कर लेता है, उन्हें प्राप्त करने के यत्न में जी-जान से जुट जाता है।

"वह" अपने आपको समस्त सुख-दुःख का, चिन्ताओं, आशाओं, आशंकाओं, महत्वाकांक्षाओं के "भोक्ता" के रूप में भी कल्पित कर लेता है, उपलब्धियों का स्वामी और इस समस्त ज्ञान के संग्रह के "ज्ञाता" की तरह भी।

"वह" यह कभी नहीं देख पाता कि सो जाने पर इन सब असंख्य ध्येयों आदि का क्या होता है! वह अपने आपको सुधारना, निरन्तर और से और भी अधिक परिष्कृत और समृद्ध करते रहने की चेष्टा करता रहता है।

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