दासतान-ए-वक्त!!
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कहाँ है वक्त मेरे पास जिसे,
जिसे बिताऊँ या कि काटूँ मैं?
ये वक्त किसको दूँ या लूँ मैं,
किसके साथ बोलो, बाँटूँ मैं!!
वो जिनके पास होता होगा वक्त,
उन्हें ही शायद बेहतर पता होगा,
कि कैसा सुलूक बेहतर कोई,
वक्त के साथ किया जाना होगा!
वक्त को काटना या बिताना भी,
कभी आसान, मुश्किल होता है! !
काटने या बिताने के अलावा,
वक्त लिया-दिया भी तो जाता है,
कभी बचा भी लिया जाता है,
कभी फिजूल किया जाता है!
खींच-तानकर, कभी चुराकर भी,
इसको बड़ा-छोटा किया जाता है,
फिर भी कुछ भी तय नहीं है,
कहाँ से आता, और कहाँ जाता है!
हर कोई ही खिलौना है इसका,
इसके हाथों में खेला करता है!
किसी को कुछ भी बना देता है,
बनाकर फिर मिटा भी देता है!
क्या कभी कोई समझ भी पाया है,
ये हकीकत है या कि बस माया है!
इसलिए मैं इसे काटता भी नहीं,
मैं इसे बचाता-बिताता भी नहीं!
जानता हूँ वक्त खयाल ही तो है
खयाल है लेकिन सवाल भी तो है!
जैसे दौलत या शोहरत होती है,
जैसे इज्जत या ताकत होती है,
जैसे बीता या नया कल होता है,
जो कभी आज नहीं होता है!
फिर भी लगता है था, या होगा,
ये सपना शायद सच कभी होगा!
बस इसी तरह से वक्त भी चलता है,
कल आज में, आज, कल में ढलता है!
फिर भी ठहरा रहता है वो हमेशा ही! ,
बीतता या आता-जाता नहीं फिर भी!
ये सपना कभी झूटा या सच होता है,
वक्त हकीकत या ख्वाब होता है!
कितना भी हकीकत हो लेकिन,
कभी नाकामयाब भी तो होता है!
ये सब खयाल नहीं, तो और फिर क्या है?
खयाल ही न करो, तो फिर क्या है?
हाँ पूछा करता हूँ, सभी से मैं!
कोई बोले तो वक्त फिर क्या है?
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