इतिहास के आईने में
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हम सब स्तब्ध हैं। हम यह नहीं समझ पा रहे कि अब हम क्या करें! हम बस प्रतिक्रियाएँ कर रहे हैं। कोई भी समुदाय हो, सभी अपनी अपनी किताबों के ही एकमात्र, प्रामाणिक होने, उसके ही अन्य सभी, समस्त समुदायों की किताबों से उच्चतर होने का हठपूर्ण दावा करते हैं।
इस सारे कोलाहल में इस सरल तथ्य और प्रश्न को जानते-बूझते हुए भुला दिया जाता है, कि हिंसा और बल-प्रयोग के माध्यम से किसी समुदाय या किन्हीं भी समुदायों को आतंकित कर, डरा धमका कर अपने मत का प्रचार करना, कहाँ तक नैतिक है? क्या मत मतान्तरों को धर्म कहा जा सकता है?
फिर भी एक तथ्य अत्यन्त स्पष्ट है।
जो कुछ हो रहा है उसके लिए कोई, या कोई-न-कोई तो अवश्य ही जिम्मेदार है। शायद हम सभी।
यद्यपि कोई अपने आपमें अत्यन्त स्पष्टता से स्थिति को शान्ति से देखकर उसका आकलन भी कर सकता है, किन्तु वह दूसरों पर अपना मत नहीं थोप सकता है, और न ही थोपना चाहेगा । क्योंकि इस प्रकार से बलपूर्वक अपना मत दूसरों पर आरोपित करना ही तो वर्तमान समस्या की मूल जड़ है। ऐसे विचारशील मनुष्य यदि संगठित हो जाते हैं, तो भी दूसरे लोग अपने अपने आग्रह और विश्वास कदापि नहीं छोड़ सकते और ऐसी स्थिति में संघर्ष होना अवश्यंभावी है। इसलिए वर्ग-संघर्ष केवल एक राजनैतिक ही नहीं, बल्कि एक मानवीय प्रश्न ही अधिक है।
जब तक समुदाय और समुदाय-विशेष से संबद्ध मनुष्य-मात्र भी केवल अपने, अपने समुदाय, धर्म(!) के आधार पर समस्या का आकलन करता है, और किसी किताब-विशेष को प्रमाण मान, उसी आधार से सबको चलने के लिए बाध्य किए जाने को ही समस्या का एकमात्र समाधान मानकर चलता है तब तक वर्ग-संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता। और उस स्थिति में किसी समय यद्यपि कोई अपने स्वयं को सुरक्षित और लाभदायक स्थिति में अनुभव भी कर सकता है, किन्तु अन्ततः कभी न कभी तो उसे भी मृत्यु अपना शिकार बना ही लेगी। अगर अभी नहीं, तो फिर कभी। यह सिर्फ 'कब' का प्रश्न है।
तात्पर्य यह कि न तो कोई मनुष्य अकेला, न कोई समुदाय, और न ही पूरा मनुष्य-वर्ग मिलकर भी वर्तमान स्थिति से हमें मुक्ति दिला सकता है।
सामान्य और औसत बुद्धियुक्त कोई भी मनुष्य केवल प्रतिक्रिया ही कर सकता है, या शायद मौके का लाभ लेकर खुश भी हो सकता है। वह दुःखी, निराश, अवसादग्रस्त भी हो सकता है, या फिर किसी आदर्श के लिए या दूसरों से अपनी प्रतिरक्षा करने के लिए प्राण ले या दे भी सकता है। यह आदर्श धर्म, राष्ट्र आदि जैसी कोई कल्पना भी हो सकता है। उससे प्रेरणा तो मिलती ही है और शक्ति भी तो जागृत होती ही है न!
ऐसी कोई भी प्रेरणा हममें दुष्टता और दुस्साहस पैदा कर सकती है, या वह हममें जीवन को एक चुनौती की तरह मानकर उसका सामना करने, उसे समुचित प्रत्युत्तर देने की कर्तव्य-बुद्धि को भी पैदा कर सकती है। सवाल यह नहीं है कि क्या हम परिणाम को देख पाने के लिए जीवित रहते हैं या नहीं, सवाल सिर्फ यही है कि हम जीवित रहते हुए जीवन का सामना निर्भयतापूर्वक कर सकते हैं या नहीं।
हम सभी सिर्फ प्रतिक्रियाएँ कर रहे हैं, वास्तविकता को शायद ही कोई देखता हो, या देखना चाहता भी हो।
तो, हमारे लिए अब क्या आशा शेष हो सकती है!
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