I AM THAT / अहं ब्रह्मास्मि
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फरवरी-मार्च 1991 में, अज्ञात प्रेरणा से श्री निसर्गदत्त महाराज के विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ "I AM THAT" का अनुवाद हिन्दी भाषा में करने की उत्कंठा मन में जाग्रत हुई। वैसे इसके मूल में और एक कल्पना यह भी थी, कि इस माध्यम से ग्रन्थ का अध्ययन संतोषजनक रूप से हो जाएगा। कहना न होगा कि इसके लिए मैंने मूल मराठी ग्रन्थ "सुखसंवाद" का भी अवलोकन किया। चूँकि सौभाग्य से मराठी भाषा मेरी मातृ-भाषा ही है, इसलिए इसका भी मुझे असीम लाभ अनायास मिला। मूल मराठी ग्रन्थ "सुखसंवाद", अंग्रेजी "I AM THAT" प्रकाशित होने के बाद प्रकाशित हुआ, किन्तु ध्वनिमुद्रण (tape-recording) पहले हुआ था, जिसे मॉरिस फ्रीडमॅन ने अंग्रेजी में अनुवादित किया, और अंग्रेजी का वही प्रथम संस्करण "I AM THAT" - इस शीर्षक से उस समय अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुआ। इसकी भी अपनी अलग एक कहानी है। अस्तु।
मेरा हिन्दी अनुवाद का यह कार्य पूर्ण हो जाने के बाद और एक यह प्रश्न भी मन में उठना भी बिलकुल ही स्वाभाविक भी था कि क्या यह प्रकाशित किए जाने के योग्य है भी या नहीं?
अतः इस बारे में आगे कुछ सोचना तक मेरे लिए संभव न रहा, तो इस बारे में मन में इच्छा भी कैसे उठती? हाँ यह जानने की उत्सुकता तो मन में अवश्य ही थी कि क्या यह संभव है!
इस ग्रन्थ के परिशीलन से मुझे यह तो स्पष्ट हो गया कि जो कुछ भी होता है, या नहीं होता है, यद्यपि उसके असंख्य कारण तय किए जा सकते हैं, फिर भी यह तय नहीं किया जा सकता है कि जो भी होता है या नहीं होता है, उसके वे कौन से विशिष्ट कारण हो सकते जिन्हें हम जान या नियंत्रित कर सकते हैं। हमें तो यह भी नहीं पता होता है कि हम कब कौन सी इच्छा, भय, चिन्ता आदि से अनायास नियंत्रित और परिचालित हो जाया करते हैं!
इसलिए यह कहना कि यह कार्य किस शक्ति के अनुग्रह से और कैसे हो पाया मेरे लिए संभव नहीं है, और न मेरी इतनी योग्यता ही है कि मैं इस बारे में कोई अनुमान भी व्यक्त कर सकूँ।
इसी दौरान मेरा परिचय श्री निसर्गदत्त महाराज के एक महान भक्त और शिष्य से हुआ, जिन्होंने इस कार्य का संपूर्ण दायित्व सहर्ष अपने कंधों पर उठा लिया ।
उनसे प्रायः फ़ोन पर बात होती थी और उन्होंने अनायास इतनी ही सहृदयता से श्री निसर्गदत्त महाराज की शिक्षाओं के सार का उपदेश मुझे दिया।
उनके अनुसार :
1. पाहातेपण्याच्या आत पाहात्याला पहावें।
2. तुझ्या आत्मज्ञाना वेगळा कोणता ही गुरू अथवा ग्रन्थ मानू नकोस।
3. कोणता ही ग्रन्थ वाचा पण हे विसरू नका कि त्यात तुमच्या आत्म-स्वरूपा ची ख्याति वर्णिली आहे।
इसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस प्रकार से हो सकता है :
1. देखने (की गतिविधि) में विद्यमान और अन्तर्निहित दृष्टा को देखो।
2. किसी भी देवता, गुरु या ग्रन्थ आदि को अपने आत्म-ज्ञान से भिन्न / पृथक् मत मानो।
3. किसी भी ग्रन्थ का पठन करो, किन्तु यह मत भूलो कि उसमें तुम्हारे अपने ही निज आत्म-स्वरूप का ही वर्णन किया गया है।
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