पिछले दिनों - अब और आज,
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दो बेचारे, बिना सहारे, देखो पूछ पूछ कर हारे!
यू-ट्यूब पर एक राजनीतिक समीक्षक हैं : भाऊ तोरसेकर
(नाम लिखने में कोई त्रुटि हुई हो तो क्षमा चाहूँगा।)
महाराष्ट्र की राजनीति में कुछ दिनों पहले जो भूचाल आया था, उस प्रसंग उसके बारे में उन्होंने विक्टोरिया नं. 203 फ़िल्म के इस गीत का उल्लेख किया था।
लेकिन मुझे लगता है, यह समस्या उस फ़िल्म के दो पात्रों, राजा और राणा के ही साथ नहीं है, हम सभी के साथ अकसर होती है। सौभाग्य या दुर्भाग्य से हमारे पास चाबी ही नहीं, चाबियों का पूरा एक गुच्छा ही होता है और कौन सी चाबी किस ताले की है, इसका भी हमें पता होता है, किन्तु उम्र और समय के बीतने के साथ साथ चाबियों के बारे में हम भूलते चले जाते हैं।
हर मनुष्य, और हर स्थिति और हमारे सामने उपस्थित हर प्रश्न ही एक ताला बनकर रह जाता है और वह कौन सा ताला है, जिसकी चाबी हमारे पास होगी, इसका पता न तो उसे होता है और न ही हमें।
सिर्फ़ हमारे आपसी संबंधों में ही नहीं, राष्ट्र, जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति, समाज, परंपरा, ऐसे अनेक क्षेत्रों में यही होता है। और व्यक्ति के पास चाबियों के एक नहीं, अनेक गुच्छे होते हैं लेकिन समय पर कोई काम में नहीं लाया जा सकता, और समय बीत जाने पर सब कुछ नए सिरे से शुरू करना होता है!
अन्त तक हम चाबियाँ टटोलते और जानने की कोशिश करते रहते हैं कि कौन सी चाबी किस ताले की है!
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