कठोपनिषद्, अध्याय २,
वल्ली १
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अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति।।
ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते।।१२।।
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषः मध्ये आत्मनि तिष्ठति। ईशानः भूतभव्यस्य न ततः विजुगुप्सते।।
अर्थ --
एकमेव आत्मा की ही सदा-सर्वदा सत्यता है। यह पुरुष अर्थात् विज्ञानात्मा जीव, इसी आत्मा में व्यक्त और अव्यक्त होता हुआ प्रकट और अप्रकट है। दोनों ही प्रकारों से यही चराचर जगत् में जो हुआ, और जो होने जा रहा है, उस सबका विधाता, नियन्ता और शासनकर्ता है।
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अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः।।
ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः।। एतद्वै तत्।।१३।।
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषः ज्योतिः इव अधूमकः। ईशानः भूतभव्यस्य सः एव अद्य सः उ श्वः।। एतत् वै तत्।।
अर्थ --
जैसे बन्द मुट्ठी पर अँगूठा संकल्प का द्योतक होता है, और जैसे दीपक पर उसकी ज्योतिरूपी धूमरहित लौ प्रकाशमान होती है, वैसे ही मनुष्य-मात्र के हृदय में यह पुरुष अपनी विद्यमानता का उद्घोष करता हुआ, इस संपूर्ण जगत् को चेतना-रूपी ज्योति से आलोकित करता है।
यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति।।
एवं धर्मान्पृथक्पश्यन्स्तानेवानुधावति ।।१४।।
यथा उदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति। एवं धर्मान् पृथक् पश्यन् तां एव अनुधावति।।
अर्थ --
जैसे दुर्गम (ऊँचे) स्थान से बरसता हुआ जल पर्वतों पर विभिन्न स्थानों पर एकत्र होकर धरती पर भिन्न भिन्न दिशाओं में दौड़ता है, उसी प्रकार भेद-दृष्टि से युक्त पुरुष अपनी अपनी प्रवृत्ति और संस्कारों से प्रेरित होकर भिन्न भिन्न धर्मों की ओर आकृष्ट होकर उन उन दिशाओं में जाता है।
यथोदकं शुद्धे शुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति।।
एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम।।१५।।
यथा उदकं शुद्धे शुद्धं आसिक्तं तादृक् एव भवति। एवं मुनेः विजानतः आत्मा भवति गौतम।।
अर्थ --
और जैसे शुद्ध जल से युक्त किसी पात्र में शुद्ध जल उंडेले जाने पर वह उस जैसा ही शुद्ध हो रहता है, उसी प्रकार हे गौतम!* जो मुनि आत्मा की अभेदता से अभिज्ञ होता है, वह अपने ही भीतर विद्यमान उस अभेद आत्मा को जानकर और उसमें ही विलीन होकर उससे एकात्म हो जाता है।।
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*यहाँ 'गौतम' पद का प्रयोग संबोधन विभक्ति में किए जाने से यह स्पष्ट है कि इस श्लोक के माध्यम से यमराज द्वारा नचिकेता को ही उपदेश दिया जा रहा है।
(तुलना करें -- अध्याय १, वल्ली १ के श्लोक में नचिकेता के पिता को गौतम कहकर संबोधित किया गया है।)
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