क्या समय पीछे लौटता है?
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मानवता : प्रगति, उन्नति और विकास
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हम कितनी जल्दी शब्दों से प्रभावित हो जाते हैं!
उपरोक्त प्रश्न पूछे जाते ही, थोड़ा सा भी बुद्धिमान व्यक्ति तुरंत ही कहने लगेगा :
"क्या समय कभी पीछे लौट भी सकता है? यह तो असंभव है, समय तो हमेशा आगे ही आगे जाता है, मतलब, भविष्य की दिशा में ही। समय भला पीछे कैसे लौट सकता है?"
और, यह भविष्य क्या है? जिसे भविष्य कहा जाता है, क्या वह सदा अज्ञात ही नहीं हुआ करता है? क्या भविष्य कल्पना में ही नहीं हुआ करता? भविष्य के रूप में जिसकी कल्पना की जाती है, वह अनुभवगम्य भविष्य होता है या बस केवल एक विचार, -अर्थात् भविष्य का विचार होता है?
सवाल यह भी है : किसका भविष्य?
आप किसी खगोलीय पिंड का या ज़मीन पर पड़ी किसी चट्टान का भविष्य जानने, तय करने या बदलने का भी दावा कर सकते हैं, कि आप उसके संबंध में क्या करने जा रहे हैं। और इस दृष्टि से यह भी मान लिया जा सकता है, कि तमाम भौतिक वस्तुओं का भविष्य जान पाना (और उसे बदल पाना) संभव है। क्योंकि आपका विचार भी सतत बदलता रहता है।
किन्तु हमारे अपने या हम जैसे किसी और मनुष्य के भविष्य के बारे में क्या ऐसा कोई दावा किया भी जा सकता है? जैसा कि कहा गया, भविष्य हमेशा अज्ञात ही रहता है, चाहे हम कल्पना में उसे कितना भी खींच तान कर वर्तमान में लाने का यत्न क्यों न करें। और मनुष्य या व्यक्ति विशेष से हमारा क्या मतलब हो सकता है? किसी भी दृष्टि से किसी भविष्य का अनुमान लगाना इसलिए भी असंभव है, क्योंकि भविष्य का अनुमान कितने ही सन्दर्भों में किया जा सकता है। भविष्य को पुनः बचपन, शिक्षा, जवानी, शिक्षा, बुढ़ापा, स्वास्थ्य, मृत्यु जैसी प्रत्यक्ष घटनाओं, या प्रेम, विवाह, सन्तान, संबंध, समाज, परिवार, भाषा, संस्कृति, सफलताओं या विफलताओं, चिन्ताओं, संभावनाओं, खुशियों, दुःखों, उद्विग्नताओं, आशाओं-आशंकाओं जैसी काल्पनिक या अमूर्त घटनाओं की तरह भी तो सोचा जा सकता है।
जहाँ तक सुविधाओं और असुविधाओं का प्रश्न है, तथाकथित भौतिक समृद्धि और संपत्ति आदि साधनों को प्राप्त कर लेने को ही विकास माना जाता है। अर्थात आपके स्वामित्व, क्षमताओं और उपभोग करने की शक्ति में वृद्धि होने को ही उन्नति और संपन्नता समझा जाता है।
दूसरी ओर, किसी रोमांचक दुनिया के अनुभवों को प्राप्त करने को भी इसी तरह उन्नति का द्योतक समझा जाता है। और केवल भौतिक ही नहीं, किसी तथाकथित या वास्तविक, काल्पनिक या आध्यात्मिक अनुभूति से तो हम इसी प्रकार और भी अधिक अभिभूत हो उठते हैं!
युद्ध के सामूहिक महाविनाश के भयानक अस्त्रों शस्त्रों आदि के निर्माण और प्रदर्शन में भी एक अनिर्वचनीय जोश हममें पैदा हो जाया करता है। और प्रायः सभी देश किन्हीं न किन्हीं शत्रुओं से अपने अस्तित्व, स्वतंत्रता, सार्वभौम सत्ता, की रक्षा का तर्क देकर इस दिशा में डटे रहते हैं। उनका आग्रह होता है कि यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी संस्कृति, सभ्यता, अस्मिता पर संकट खड़ा हो जाएगा।
क्या यह मनुष्य की सामूहिक / वैश्विक मूर्खता ही नहीं है?
यही तर्क औद्योगिक, यांत्रिक, तकनीकी, आर्थिक और खेलों, कला-कौशल आदि तथा मनोरंजन के अनगिनत प्रकारों के नए नए आविष्कारों के क्षेत्र में प्रीति या उन्नति के पक्ष में भी दिया जा सकता है। मनुष्य के स्वास्थ्य, नीरोगता की चिन्ताओं, अमर होने की महत्वाकांक्षाओं के औचित्य को भी सिद्ध करने के लिए दिया जा सकता है। किन्तु मृत्यु को पराजित कर भी दिया जाए तो भी मनुष्य अवश्य ही कभी न कभी इस सब के प्रयोजन और सार्थकता पर प्रश्न करेगा ही। लंबे समय तक जीते रहने और सुखों का अमर्यादित उपभोग करते रहना वैसे भी संभव ही नहीं है, और यदि संभव हो भी तो भी क्या इससे मनुष्य और अधिक संवेदनशील होगा, या उसमें पाशविकता ही और भी बढ़ेगी? क्या इससे हम अधिक सभ्य संवेदनशील, प्रेमपूर्ण, उत्कृष्ट और सुसंस्कृत हो सकेंगे, क्या इससे हममें विद्यमान भय, घृणा, क्रोध, लोभ, आदि की भावनाएँ, और ऐसे पाशविक संवेग समाप्त हो जाएँगे?
क्या यही विकास, उन्नति या प्रगति का मापदंड है?
जब तक हममें सहज स्वतःस्फूर्त प्रेम, निश्छलता, स्वाभाविक शान्ति नहीं जागृत होते हैं, और हम पशुओं जैसा, या उनसे भी अधिक निकृष्ट जीवन जी रहे होते हैं, तो क्या हम पाषाणकाल में ही नहीं जी रहे होते हैं! यह तथ्य भी पुनः व्यक्ति, समूह या समाज या संपूर्ण मानव जाति के सन्दर्भ में भिन्न भिन्न प्रकार से देखा जा सकता है।
ऐसे पाषाण-युग के समय में जीते हुए क्या हम समय में पीछे की ओर ही नहीं लौट रहे होते हैं?
क्या इसे ही समय का पीछे लौटना नहीं कहा जा सकता?
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