June 20, 2022

अमृतत्वमिच्छन्

कठोपनिषद्

अध्याय २

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प्रथमा वल्ली 

कठोपनिषद् में दो अध्याय हैं, 

प्रत्येक अध्याय में ३ वल्ली हैं।

पहला अध्याय रोचक है और दूसरे अध्याय के लिए भूमिका का कार्य भी करता है। इस कथा को पौराणिक, प्रतीकात्मक अथवा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी समझा जा सकता है, और उपनिषद् के रूप में इसे आध्यात्मिक शिक्षा के रूप में भी ग्रहण किया जा सकता है। यमराज स्वयं यमलोक के अधिष्ठाता देवता हैं, और वे ही देवता की तरह मृत्यु तथा जीवन के विधाता भी हैं। 

पातञ्जल योग-सूत्र में वर्णित पाँच सार्वभौम महाव्रत सम्मिलित रूप से यम कहे जाते हैं और योग के अनुष्ठान के आठ अङ्गों में यम को प्रथम स्थान प्राप्त है। आशय यह कि यम का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। पुनः यम के इन पाँच महाव्रतों को क्रमशः अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह की तरह से भी जाना जाता है। इनमें से प्रत्येक ही अत्यन्त कठिन है और जैसा गीता अध्याय ७ में कहा गया है  :

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

समस्त भूत जन्म ही से इच्छा-द्वेष रूपी द्वन्द्व-बुद्धि से मोहित हो अत्यन्त मूढता से युक्त होते हैं। क्योंकि इच्छा और द्वेष दोनों ही सुख प्राप्त करने की लालसा तथा दुःख प्राप्त होने के भय की आशंका से ही उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार से प्राणिमात्र का ध्यान सदैव बाह्य जगत् से बँधा रहता है। बाह्य जगत् को ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से जाननेवाला स्वयं "मैं", जगत् को और ज्ञानेन्द्रियों को भी जानता है। जगत् एक या अनेक, या एक और अनेक से भी विलक्षण और अज्ञात है, जबकि ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं, जो पाँच प्रकारों से जगत् का संवेदन करती हैं। नेत्र देखने का कार्य करते हैं, कान सुनने का, जिह्वा स्वाद चखने का, त्वचा स्पर्श का और नासा गंध ग्रहण करने का। ये पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ जगत् के बारे में अलग अलग निष्कर्ष प्रस्तुत करती हैं। जगत् की किसी एक भी वस्तु के बारे में यही होता है, तो पूरे जगत् की सच्चाई के बारे में क्या कहा जा सकता है!

किन्तु इन्द्रियों के विषयों को मन ही जानता है। मन को बुद्धि, और बुद्धि को बुद्धि का स्वामी अर्थात् "मैं", जो अपने आपको बुद्धि का स्वामी, "मैं" कहता है। क्या यह जाननेवाला बुद्धि से भी पहले से विद्यमान नहीं होता?

एक बार काल और बुद्धि के बीच विवाद हुआ। 

बुद्धि ने कहा : "तुम मेरी सन्तान हो।"

काल ने कहा : "नहीं! तुम मेरी सन्तान हो!"

दोनों भगवान् शिव के पास न्याय के लिए जा पहुँचे।

भगवान् शिव तो काल और बुद्धि से परे, नित्य, सनातन, शाश्वत और अनादि और अनन्त हैं। 

उन्होंने कहा :

"तुम दोनों मेरी ही कल्पना हो। जब मैं जागता हूँ, तो तुम दोनों एक ही साथ व्यक्त हो उठते हो, और जब मैं समाधिस्थ होता हूँ, तो मुझमें ही तुम दोनों का विलय हो जाता है।"

इस प्रकार बुद्धि और काल का अपने आपके स्वयं-भू होने का भ्रम दूर हो गया ।

ऐसा ही एक भ्रम मनुष्य में भी अपने आपके विषय में होता है, - इसे ही अहंकार कहा जाता है। इसके व्यक्त होते ही यह शरीर, मन, बुद्धि, चित्त आदि के रूप में भी व्यक्त रूप ग्रहण करता है। और तब जगत् से अपनी भिन्नता की कल्पना कर स्वयं को "मैं" कहता है।

पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभू-

स्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन्।।

कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष-

दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।।१।।

पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूः तस्मात् पराङ् पश्यति न अन्तर्-आत्मन्। कश्चित् धीरः प्रत्यगात्मानं ऐक्षत् आवृत्त-चक्षुः अमृतत्वं इच्छन्।।

इस प्रकार व्यक्ति-विशेष में उत्पन्न होनेवाले इस स्वयंभू अहंकार में स्वयं के स्वतंत्र होने का भ्रम उत्पन्न हो जाता है, जो पुनः मन, चित्त एवं बुद्धि का अवलंबन लेकर किसी सतत अस्तित्व-मान वस्तु की तरह प्रतीत होता है। आश्चर्य और विडम्बना यह है कि यह अपने आपको भी अपना ही स्वामी मान लेता है और स्वयं को "मैं-मेरा" की तरह से दो में विभाजित कर लेता है। जैसे कभी तो यह शरीर को "मैं" कहता है, तो कभी  शरीर को "मेरा शरीर" भी कहता है। ऐसा ही व्यवहार यह मन, बुद्धि, चित्त तथा प्राणों साथ भी करता है। अहंकार ही इन्द्रियों को बहिर्मुख कर ध्यान को इतस्ततः बिखेर देता है। 

किन्तु कोई धैर्यवान पुरुष ही अपने इस ध्यान को बाह्य जगत् से लौटकर अपने अन्य में स्थित प्रत्यगात्मा पर लगाकर उसे जानने की इच्छा करता है, जो कि मृत्यु से रहित अमरता रूपी सत्य है। 

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इसे ही सद्दर्शनम् में कुछ इस प्रकार से कहा गया है :

धिये प्रकाशं परमो वितीर्य

स्वयं धियोऽन्तः प्रविभाति गुप्तः।।

धियं परावर्त्य धियोऽन्तरेऽत्र

संयोजनान्नैश्वरदृष्टिरन्या।।

परमात्मा बुद्धि में प्रकाशित होता हुआ भी, और बुद्धि को प्रेरित करता हुआ भी स्वयं बुद्धि के लिए अप्रकट ही रहता है। इसलिए बाह्य विषयों में संलग्न बुद्धि को उन उन विषयों से हटाकर पुनः पुनः अपने ही अन्तर्हृदय में विद्यमान परमात्मा पर लाना ही ईश्वर के दर्शन का उपाय है। 

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