तत् पद का वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ
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कठोपनिषद् - अध्याय २, वल्ली १,
येन रूपं रसं गन्धं शब्दान्स्पर्शांश्च मैथुनान्।।
एतेनैव विजानाति किमत्र परिशिष्यते। एतद्वै तत्।।३।।
येन रूपं रसं गन्धं शब्दान् स्पर्शान् च मैथुनान्। एतेन एव विजानाति किं अत्र परिशिष्यते।।
यह आत्मा विज्ञानमय होने से जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति की दशाओं में भी इसका विज्ञान अर्थात् जानना मात्र अखंडित ही रहता है। इसी विज्ञान-कला के माध्यम से आत्मा इन तीनों ही दशाओं में विविध और भिन्न भिन्न इन्द्रियानुभवों को जानता है। इन्द्रियों के अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव, और अनुभव का ज्ञान, इस विज्ञानात्मा को ही होता है, न कि अहंकार, मन, बुद्धि, या चित्त को, फिर स्थूल कर्मेन्द्रियों को होना तो असंभव ही है। रूप (दृष्टि), रस (जिह्वा), गन्ध (नासा), शब्द (ध्वनि / कान), स्पर्श (त्वचा), मैथुन (प्रजनन) आदि के संवेदनों को इसी विज्ञानात्मा के माध्यम से जाना जाता है। इस विज्ञानात्मा के न होने पर क्या शेष रह जाता है? तात्पर्य यह कि यही आत्मा का सर्वज्ञता का लक्षण है, जो नित्य, शाश्वत और सनातन है।
यही (एतत् वै) तत् (वह) है। (जिसके बारे में नचिकेता जानना चाहता था।)
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