तदनन्त्याय कल्पते इति।।
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यमराज नचिकेता से कहते हैं कि तुम्हारा यह जो अभीष्ट वर है, अर्थात् इस जिज्ञासा का समाधान कि मृत्यु हो जाने के अनन्तर मनुष्य किस गति को प्राप्त होता है, उस प्रश्न के उत्तर को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि तुम :
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।१४।।
उठ खड़े होओ, जागो और इस वरदान (उपदेश) के माध्यम से उस तत्व का दर्शन करो जो कि मृत्यु के परे का सत्य है।
अवश्य ही यह पथ तलवार की तीक्ष्ण धार की तरह जैसा दुष्कर और कठोर है, जिस पर चल सकना अत्यन्त ही कठिन है, तत्व-दर्शी कवि कहते हैं। उस तत्व का वर्णन करना भी लगभग इसी तरह कठिन है, किन्तु यमराज यह दायित्व उठाते हुए नचिकेता से कहते हैं :
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं
तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत्।।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं
निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते।।१५।।
अशब्दं अस्पर्शं अरूपं अव्ययं तथा अ-रसं नित्यं अगन्धवत् च यत्। अनादि अनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तत् मृत्यु-मुखात् प्रमुच्यते।।
वह तत्व, जिसका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता, जिसे स्पर्श से भी नहीं जाना जा सकता, और जिसके रूप आकृति आदि को नेत्रों से नहीं देखा जा सकता, जो अविनाशी है, तथा इसी प्रकार सर्वथा विरस (रसवर्जं) है जो नित्य अर्थात् जिसका अस्तित्व सदा है, जो इसी प्रकार गन्धरहित है -- संक्षेप में, जो इन्द्रियगम्य नहीं है, जो आदि और अन्त से रहित है, उस महान् परम श्रेयस्कर को जानकर, उसका वरण कर, मनुष्य मृत्यु-मुख में जाने से बच जाता है।
रसवर्जं --
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।।
रसोऽपि रसवर्जं तं परं दृष्ट्वा निवर्तते।।५९।।
(गीता, अध्याय २)
अरसं --
साधु चरित सुभ चरित कपासू।।
निरस बिसद गुनमय फल जासू।।
इस प्रकार यमराज नचिकेता के लिए उस तत्त्व का वर्णन करते हैं, जिसके लिए उसकी तीव्र उत्कंठा है।
ग्रन्थ-प्रशंसा
इस ग्रन्थ का महत्व बतलाते हुए उपनिषद् में अगले दो श्लोकों में कहा जाता है :
नाचिकेतमुपाख्यानं मृत्युप्रोक्तं सनातनम्।।
उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीयते।।१६।।
नाचिकेतं उपाख्यानं मृत्यु-प्रोक्तं सनातनम्। उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीयते।।
यमराज के द्वारा नचिकेता से कहे गए इस उपदेशरूपी सनातन आख्यान को कहने और सुननेवाला मेधावी मुमुक्षु ब्रह्मलोक को प्राप्त कर महिमान्वित होता है।
य इमं परमं गुह्यं श्रावयेद् ब्रह्मसंसदि।।
प्रयतः श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय कल्पते।।
तदानन्त्याय कल्पत इति।।१७।।
य इमं परमं गुह्यं श्रावयेत् ब्रह्मसंसदि। प्रयतः श्राद्धकाले वा तत् अनन्त्याय कल्पते।। तत् अनन्त्याय कल्पते।।
जो मनुष्य इस परम गुह्य शास्त्र का ब्रह्मजिज्ञासुओं या ब्रह्मविदों की सभा में, अथवा श्राद्ध आदि के अनुष्ठान के काल में वाचन करता है, वह उस ब्रह्म और उसके लोक को प्राप्त होता है।।
"तत् अनन्त्याय कल्पते" का दो बार प्रयोग प्रकरण की समाप्ति का सूचक है।।
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